डॉo सुरेश वशिष्ठ. गुरुग्राम 

मुझे याद आता है कि ओमप्रकाश आलोक, फूलचंद सुमन और रामानंद आनंद की तिगड़ी ने इस दिशा में अपना पहला कदम आगे बढ़ाया। हिंदी को प्रतिष्ठित और समृद्ध किया। इन्होंने कुछ चर्चाएं, कुछ गतिविधियां शुरू की और संस्था के नाम पर ‘अखिल भारतीय प्रादेशिक हिंदी साहित्य सम्मेलन’ को खड़ा किया। स्कूल के बच्चों को भी इसमें शामिल किया। उन्हें नाटक, भाषण और कविता से जोड़ा। उन्हें लेकर अनेक आयोजन, अनेक गोष्ठियां और चर्चाएं शुरू हुई। सभी को साथ जोड़कर, प्रगति के पथ पर ये लोग अग्रसर हुए। एक स्वस्थ परिवेश बनाने की कोशिश इनके द्वारा की गई।

गुरुग्राम एक ऐतिहासिक नगर है। गुरु द्रोणाचार्य की शिक्षा स्थली। यहां हर दिन कोई न कोई साहित्यिक, सांस्कृतिक या कला से संबंधित अन्य गतिविधियां होती ही रहती हैं। हिंदी के नाम पर अनेक जमावड़े यहां प्रतिदिन दिखते हैं। आज गुरुग्राम एक औद्योगिक नगर के रूप में जाना जाता है। यहां रामलीला का प्रचलन बहुत था। एक समय, मुशायरो का भी बहुत चलन था। लोगों की जुबान पर उर्दू शायरी और लफ्फाज रहते थे। हिंदी को लेकर कोई कार्यक्रम ना के बराबर होते थे। यूं तो अनेक हिंदी प्रेमी या हिंदी शिक्षक उत्साहित दिखाई पड़ते थे, परंतु सुचारु रुप से कोई वर्चस्व हिंदी का नहीं था। रामलीलाएं और नाट्य-लीलाएं खूब होती थी परंतु हिंदी के क्षेत्र में कोई साहित्यिक परिवेश यहां निर्मित नहीं था।           

  इस तिगड़ी में सेवा का भाव मौजूद था। मुशायरों से इतर काव्य गोष्ठियों ने भी अपना स्थान बना लिया। लोगों को जोड़ने के साथ-साथ, एक परिवारिक परिदृश्य भी उपस्थित होने लगा था। टोलियां बनाकर, चार-चार आने चंदा लेकर लोक-हितार्थ का कार्य ये सभी कर रहे थे। प्रोग्राम किए जाते, स्कूलों में छात्रों को राह दिखाई जाती, लोगों को अपनी भाषा, अपनी संस्कृति के प्रति जागृत किया जाता था। बच्चों और युवाओं को कार्यशाला के माध्यम से लिखना, बोलना, अभिनय करना, नृत्य और लोकधुनों के प्रति उन्हें उत्साहित किया जा रहा था। उन्हें मंच प्रदान कर उनकी प्रतिभा को निखारा जा रहा था।     

दूसरी एक टीम नंदलाल मेहता जी द्वारा बनाई गई। ‘अखिल भारतीय हिंदी साहित्य परिषद’। वहां भी विचार-विनिमय और बैठकों का दौर चलता था। बहुत से साहित्य प्रेमी उठ खड़े हुए थे और सतत् साधना में सहयोग करने लगे थे। वहां से सीखने-समझने लगे थे। इससे साहित्य की नींव मजबूत होने लगी। नंदलाल मेहता जी प्रबुद्ध लोगों को बुलाते और चर्चाएं करते। उनके व्याख्यान सुनने को भीड़ बढ़ने लगी थी। लोग एक दूसरे से परिचित होते और हिंदी एवं साहित्य के प्रति विचारों का आदान-प्रदान होने लगा था। लोगों की भागीदारी सुनिश्चित हुई और एक साहित्यक वातावरण बनने लगा था। हिंदी साहित्य, कला, सांस्कृतिक परिदृश्य गुरुग्राम की भूमि पर आपसी सद्भाव को बढ़ाने और सुगठित करने लगा था।  उसी समय के कुछ साथियों द्वारा ‘सुरूचि’ नामक संस्था की शुरुआत हुई।   

रामानंद आनंद की कुछ पंक्तियां आज भी स्मरण हो आती है।… “किसको नमन करूं मैं/ किसको झुकाउं शीष/ एक नागनाथ है/ एक सांपनाथ है/ किसको नमन करूं मैं/ किसको झुकाउं शीष/ नंदलाल जी गंभीर समीक्षक और पारखी रचनाकार थे। रामानंद आनंद, फूलचंद सुमन और ओमप्रकाश आलोक ओजस्वी कवि और सद्गुणी इंसान थे। प्रखर चिंतक और सेवा-भाव से ओतप्रोत शख्त थे। आज इन तीनों की कमी खलती है। गुरुग्राम के साहित्य सरोवर से इनका जाना रिक्तता दे गया।    

  आज कुछ नहीं पता। दिशाहीन कवियों और रचनाकारों की भरमार है। बैठकों का दौर भी है। पुस्तकें भी खूब छप रही हैं। स्वयं को प्रबल स्थापित करने की होड़ लगातार बढ़ रही है। बड़े-बड़े मंचों पर बैनर लगाकर कवि- गोष्ठियों, कवि सम्मेलनों, लघुकथा प्रेमियों की लंबी एक लाइन देखी जा सकती है। परचम भी लहराए जाते हैं। ऑनलाइन गोष्ठियों और परिचर्चाएं भी बहुत हो रही हैं । परन्तु साहित्य के नाम पर लक्ष्य निर्धारित करने की परंपरा चल निकली है। धरातल पर कुछ भी नहीं है।     

आपसी प्रेम नदारद है। सभी अपनी-अपनी डौंडी और अपना-अपना ढोल पीट रहे हैं। पहले जैसा परिवेश आज नहीं है। लिखने वालों, गाने वालों की भरमार है, परंतु ये क्या लिख रहे हैं, किस भाव और तन्मयता से क्या परोस रहे हैं, उसे साहित्य में मान भी सकते हैं या नहीं, इसपर विचार करना अहम हो गया है। काव्य और लघुकथा के नाम पर अपने लक्ष्य को साधने का खेल पसारा गया है, जो साहित्य के लिए नुकसानदेह है। सम्मानित होना थी आम बात होने लगी है। सरकारी संस्थाओं की तर्ज पर उभरती अनेक संस्थाएं जो नित्यप्रति सम्मान बांट रही है, संभावित है कि तू–मुझे, मैं–तुझे। दूसरे राज्यों के लोगो की सांठगांठ से भी ऐसा चल रहा है।     

खैर ! इसपर चर्चा निरर्थक होगी। हां, इस अला-बला से ऐसे रचनाकार जो पहले अच्छे खासे सक्रिय थे, लेखन भी जिनका बेहतरीन था, घर बैठ गए हैं। निष्क्रिय हो गए हैं।… मैं कहूंगा अंधेरी कोठरी में चले गए हैं। बाहर आना अब उन्हें पसंद नहीं।     

नंदलाल मेहता जी और इस तिगड़ी के साथ जुड़े पुराने मित्र और रचनाकार अब लुप्तप्राय हो गए हैं। ‘अखिल भारतीय प्रादेशिक सम्मेलन’ को मुकुल शर्मा ने कुछ समय तक संभाला परंतु ईश्वर को वह मंजूर नहीं था। उनकी अक्समात मृत्यु आघात दे गई। आज भी अनेक विद्वान साथी उस परंपरा को आगे बढ़ाने का काम सुचारू रूप से कर रहे हैं। परन्तु  स्वयं को साहित्यकार कहलवाने का दम भरने वाले, चंद लोग नित्यप्रति हिंदी और उसके साहित्यिक पक्ष को कमजोर करने में लगे हुए हैं।     

कुकुरमुत्तों की तरह अनेक साहित्यिक मंच, अनेक संस्थाएं पैदा हो गई हैं। उनके प्रमुख अपने निजी हित साधने में लगे हैं। कुछ लोग इकट्ठे किए, किसी नेता को बुलवाया  और अपने हितार्थ कार्य को अंजाम दे दिया। फोटो खिंचवाए , सोशल मीडिया पर प्रसार किया। दैनिक पत्र-पत्रिकाओं में वाह-वाही लूटी, खेल पसारा और स्वयं को योद्धा की तरह प्रस्तुत कर दिया। गुरुग्राम में आज यही सब रह गया है। मिलना-जुलना,  प्रेम-प्रीत पारिवारिक  भाव आज कहीं नहीं है।    

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