लघुकथा : छायाँजली

डा. सुरेश वशिष्ठ, गुरुग्राम 

छायाँजली बहुत दिनों से चुप थी । हृदयमित्र नवन्दु से किसी बात पर नाराजगी थी । बहस चली और दोनों में बातचीत बंद हो गई थी । ऑफिस में हर रोज इकट्ठे जाना होता परंतु दोनों के बीच कोई बातचीत नहीं होती थी । मौन पसरा रहता था ।   

 कई दिनो की चुप्पी ने दिलों में हाहाकार को प्रबल किया ।    दोनों कुछ कहना भी चाहते थे । कहने को बहुत कुछ था भी । दोनो घुट रहे थे परंतु चुप्पी कौन तोड़े ? अहम आगे आ खड़ा होता था । संवाद की समाप्ति घुटन को बढ़ावा देने लगी । लंबी श्वांस खींचते और आंखें बंद किए बैठे रहेते । कोई मिलता तो दोनों मुस्कुराते भी लेकिन उनके दूर होते ही पुन: सन्नाटा पसर जाता था ।

 चंचलायुक्त छायँजलि की भाव तरंगिणी धीमी पड़ने लगी । नवेन्दु के चेहरे पर क्रोध पनपने लगा था । दोनों में ह्रदयहीन अहंकार युद्ध शुरू हो चुका था । अनर्गल सिलसिले और दोषारोपण का दौरा बड़ने लगा था । ऐसा लंबे समय तक होता रहा । मिलते और चुप अपने-अपने घरों को लौट जाते । सिलसिला यूं ही आगे बढ़ता रहा ।    

 अनायास एक रोज छायाँजलि ने हृदयमित्र नवेन्दु के हाथ को अपने हाथ में दबाया और चुप्पी तोड़ी– “सॉरी ! माफ कर दो !”   

 नवेन्दु में आक्रोश की गति धीमी होने लगी । अविरल धारा आँखों से बहने लगी । मनो-मिलन जागने लगा । तिरंगायिनी की चाल तीव्र हुई और लहलहाने लगी। अहम छूमन्तर हुआ और होठों पर मुस्कुराहट दौड गई । चित्त की खण्ड-खण्डता अखण्ड होने लगी । दोनों को महसूस हुआ कि सम्पूर्ण परिवेश संगीत की मीठी तान के संग नृत्य बिखराने लगा है ।   

 “चाहत आत्मा का स्पन्दन है, शरीर गौण प्रतीक है ।” यह बात दोनो की समझ में आने लगी थी ।

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