भारत सारथी/ऋषि प्रकाश कौशिक वर्तमान में हरियाणा में बरोदा उपचुनाव बहुत चर्चा में है। इसके पीछे अनेक कारण हैं। पहला तो यही कि बरोदा उपचुनाव में इतने समय पूर्व ही प्रचार में लगे अनेक नेता कोविड-19 शिकार बन चुके हैं, जिनमें मुख्य रूप से मुख्यमंत्री मनोहर लाल, विधानसभा अध्यक्ष ज्ञानचंद गुप्ता, करनाल के सांसद संजय भाटिया, जेपी दलाल, रणधीर चौटाला, कांग्रेस के दीपेंद्र हुड्डा… बड़ी लंबी फेहरिस्त है। यह तो तय है कि सरकार पर इस सीट के जीतने या हारने से कोई अंतर पडऩे वाला नहीं है, क्योंकि सरकार के पास अभी भी पर्याप्त बहुमत है कि उसे खतरा नहीं। और इसी प्रकार कांग्रेस की अपनी सीट थी, जीत गई तो भी विधानसभा की स्थिति पर कोई अंतर नहीं पडऩे वाला है। ऐसा कुछ इनेलो के अभय चौटाला के बारे में कह सकते हैं कि एक हो या दो स्थिति वही रहेगी। अर्थात किसी पार्टी को सदन में इसका लाभ या हानि होने से कोई संबंध नहीं है। यह प्रतिष्ठा की लड़ाई है। भाजपा सत्तारूढ़ पार्टी है और यह भारतीय राजनीति में माना जाता है कि जब चुनाव को चार साल से भी अधिक का समय हो तो सत्तारूढ़ पार्टी ही उपचुनाव जीता करती है। इसी प्रकार भूपेंद्र सिंह हुड्डा का दावा है कि पहले भी हम यह सीट जीतते रहे हैं और अब भी हम ही जीतेंगे और इसी प्रकार अभय चौटाला का कहना है कि यहां के लोग ताऊ देवीलाल के भक्त हैं और यह सीट राजनीति की दिशा तय करेगी और इससे सरकार गिर भी सकती है। इस पर विचार करेंगे। सर्वप्रथम बात करें भाजपा की तो मुख्यमंत्री 2014 से ही अपने विधायकों की पहली पसंद नहीं रहे हैं और वर्तमान की गठबंधन सरकार में तो मंत्री-विधायक का विरोध स्पष्ट नजर आने लगा है। दूसरी ओर गठबंधन की सरकार है तो दुष्यंत चौटाला इस समय सरकार में छाए हुए हैं और उनका कहना है कि दोनों मिलकर चुनाव लड़ेंगे लेकिन यह नहीं कहते कि उम्मीदवार किस पार्टी का होगा। यह समय के साथ तय कर दिया जाएगा। इसी प्रकार जाट बाहुल्य क्षेत्र है। भाजपा पशोपेश में है कि यहां से जाट उम्मीदवार उतारा जाए या गैर जाट। तात्पर्य यह कि भाजपा के सामने अनेक समस्याएं खड़ी हैं। पहली तो गठबंधन की समस्या, दूसरी मंत्री मंडल को एकजुट करने की, तीसरी किस जाति के उम्मीदवार को चुनाव में उतारना है और सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि वह मोदी के नाम से लड़ेंगे या अपनी उपलब्धियों की नाम से। अब उपलब्धियों की ओर देखें तो इस कोरोना काल में कहीं नजर तो आती नहीं। दूसरी ओर अयोध्या मंदिर शिलान्यास के पश्चात न जाने क्यों मोदी का जादू कम होता नजर आ रहा है। इस महीने की मन की बात में आए डिस्लाइक इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं। उसके बाद बेरोजगारों द्वारा 5 तारीख को 5 बजे 5 मिनट पर ताली-थाली बजाने का विरोध प्रदर्शन अपनी पहचान बना गया, जिसके फलीभूत आज रात 9 बजे 9 मिनट का कार्यक्रम रखा गया है, परिणाम क्या होगा वह तो 9 बजे ही पता लगेगा। परंतु इतना तय है कि मोदी जी की लोकप्रियता का ग्राफ गिरता जा रहा है। ऐसे में भाजपा के रणनीतिकारों के सामने समस्याओं के अंबार ही अंबार हैं। अब एक शास्वत सत्य यह है कि यदि एक नीति बनाकर कार्य किया जाए तो सफलता मिलती है, नहीं तो असफलता हाथ लगती है। अब प्रश्न यही है कि क्या भाजपा के दिग्गज मिलकर एकजुट एक नीति से चुनाव लड़ पाएंगे। अब कांग्रेस की बात करें तो स्थिति कांग्रेस की भी भाजपा से कुछ बेहतर नजर नहीं आ रही, क्योंकि भाजपा के पास तो कुछ संगठन और नेतृत्व है भी और प्रदेश अध्यक्ष और जिला अध्यक्ष भी बना दिए हैं। अभी दो माह से अधिक का समय है चुनाव में। इतने समय में यह मंडल और प्रदेश कार्यकारिणी बना पाएंगे ऐसा विश्वास है, परंतु कांग्रेस की ओर देखें तो अशोक तंवर के अध्यक्ष बनने के बाद अब जब कुमारी शैलजा अध्यक्ष हैं वहीं संगठन कार्यकारिणी आदि का गठन ही नहीं हुआ है और आगे भी स्थितियों को देखते हुए संभावना नहीं लगती। माना जाता है कि पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा अपनी मर्जी की चलाना चाहते हैं और जब अशोक तंवर ने अपनी मर्जी से फैसले लेने का प्रयास किया तो हुड्डा की तरफ से असहयोग की नीति अपनाई गई और उन्होंने जो भी उनके समर्थ थे, उन्हें निष्क्रिय होने का संकेत दे दिया और वे निष्क्रिय हो गए तथा इसका परिणाम यह निकला कि कांग्रेस ही निष्क्रिय हो गई। वरना पिछले पांच साल जैसा शासन भाजपा का चला था, उसे देखते हुए कांग्रेस को पूर्ण बहुमत में आ जाना चाहिए था परंतु कांग्रेस विपक्ष ही रही और भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने अपनी इस नाकामी को छुपाने के लिए अपनी सीटों की बात कम की, ज्यादा मुख्यमंत्री के 75+ के नारों की बात की, जिससे आम जनता में शायद कुछ ऐसा संदेश भी गया कि 31 सीटें लेना कांग्रेस की उपलब्धि है और भूपेंद्र सिंह हुड्डा फिर नेता बन गए, बिना प्रदेश प्रधान बने। वर्तमान में जो दिखाई दे रहा वह यह कि बरोदा उपचुनाव कांग्रेस नहीं अपितु भूपेंद्र सिंह हुड्डा लड़ रहे हैं। अब हुड्डा साहब के सामने जो परेशानियां हैं, उन पर नजर डालें। पहले तो बरोदा सीट पर कांग्रेस के पास भी 4-5 उम्मीदवार हैं। अब उनमें से टिकट तो एक को ही मिलेगी, अन्य में से कोई निर्दलीय भी अपना भाग्य अपना सकता है। दूसरी ओर कृष्ण हुड्डा पुत्र भी टिकट की दावेदारी कर रहे हैं और कृष्ण हुड्डा जनाधार वाले नेता थे। अत: यदि इस परिवार का साथ नहीं मिला तो हुड्डा साहब के सामने बड़ी परेशानी होगी और इन सबसे बड़ी बात जो दिखाई दे रही है वह यह कि कांग्रेस के रणदीप सुरजेवाला, कुलदीप बिश्नोई, किरण चौधरी आदि कोई भी नेता बरोदा उपचुनाव में नहीं आया। अत: कहा जा सकता है कि यह चुनाव कांग्रेस नहीं हुड्डा साहब ही लड़ेंगे। अब इसमें सस्पेंस जो बचा, वह यह कि अन्य कांग्रेसी इनका साथ देंगे या दूरी बनाकर यह संदेश देंगे कि यह केवल हुड्डा का कद बढ़ाने की लड़ाई है। अत: कद नहीं बढऩा चाहिए। अर्थात दुश्वारियां यहां भी कम नहीं। अब हम बात करें इंडियन नेशनल लोकदल के एकमात्र विधायक और एकमात्र नेता अभय चौटाला की। तो दुश्वारियां भाजपा-कांग्रेस के साथ हैं, वह इनके साथ नहीं हैं, क्योंकि पार्टी अभी ऐसी स्थिति में है ही नहीं। अत: जो फैसला करना है वह अभय चौटाला ने ही करना है और अभय चौटाला को यह तो माना नहीं जा सकता कि वह राजनीति जानते नहीं हैं, उनके खून में राजनीति है और परिस्थितियों का लाभ उठाना बखूबी जानते हैं। और वर्तमान परिस्थितियां उनके अनुकूल नजर आती हैं, क्योंकि सामने वाली दोनों पार्टियां आपसी फूट से ग्रसित हैं। दूसरे यह क्षेत्र भी इनेलो का रहा है। तो यह माना जा सकता है कि गत चुनाव में जो वोट जजपा के उम्मीदवार को मिले थे, वे भाजपा विरोधी थे। अत: वे वोट अब फिर परिवार के दूसरे व्यक्ति अभय चौटाला की ओर आ सकते हैं। दूसरी ओर अभय चौटाला ने जजपा के प्रदेश अध्यक्ष प्रकाश भारती को भी अपने साथ मिला लिया है। और अभी हाल-फिलहाल में कांग्रेस के राजकुमार वाल्मीकि को भी इनेलो में शामिल कर लिया है और यह तो पुराना इतिहास बताता है कि दलित इनेलो के साथ आ जाती है। अधिकतर सुरक्षित सीटें विगत में इनेलो जीतता रहा है तो ऐसी स्थितियां अभय चौटाला की राह को आसान करती नजर आ रही हैं। अत: अपनी पहचान बनाने में जुटे अभय चौटाला के लिए हमारी दृष्टि से यह मौका है और अनेक लोग यह कहते हैं कि यह मुकाबला कांग्रेस और भाजपा में होगा लेकिन हमारा मानना है कि इनेलो को परिपेक्ष से बाहर नहीं माना जा सकता। उपरोक्त तीनों पार्टियों की स्थितयों को देखकर यह कहा जा सकता है कि मुकाबला दिलचस्प होगा। हर पार्टी में सम्मान और वर्चस्व की जद्दोजहद होगी। यदि भाजपा अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं करती है और जजपा का खड़ा करती है तो भाजपा पहले ही हारी हुई मानी जाएगी। उधर जजपा जो यह कहती है कि यह हमारे दादा के समर्थकों की जगह है, टिकट हमें मिलनी चाहिए और उन्हें टिकट नहीं मिलती है तो समर्थक उनके साथ रहेंगे यह बहुत बड़ा सवाल है। अर्थात यदि यहां से जाट वोट भाजपा को मिले तो दुष्यंत चौटाला की साख खटाई में होगी। इसी प्रकार भूपेंद्र सिंह हुड्डा यदि इस चुनाव को नहीं जीत पाए, वर्तमान परिस्थितियों में तो जो उन्होंने इतने समय से अपने वर्चस्व की लड़ाई छेड़ रखी है, उसमें हार जाएंगे। और इनेलो के अभय चौटाला की अबात करें तो उनको भी राजनीति में अपनी जगह बनाने का यह सुंदर अवसर है। यदि वह यह सीट जीत जाते है तो उनका वर्चस्व फिर बनने की संभावना है और यदि थोड़े मार्जन से हारकर दूसरे नंबर पर रह जाते हैं तो भी उनके कद में वृद्धि होगी। तो इस प्रकार कह सकते हैं कि यह चुनाव सीट के लिहाज से नहीं लेकिन राजनीति की दिशा तय करने के लिए अति महत्वपूर्ण है। Post navigation भाजपा समाज कल्याण के लिए करती है राजनीति : धनखड़ भाजपा खट्टर सरकार में सरकारी भर्तीयों में भारी भ्रष्टाचार : विद्रोही