उमेश जोशी   

मध्यप्रदेश में कमलनाथ सरकार गिरने के बाद यह तय माना जा रहा था कि पड़ोसी राज्य राजस्थान में गहलोत सरकार पर भी संकट के बादल अवश्य मंडराएंगे। ज्योतिरादित्य सिंधिया की महत्त्वाकांक्षी छवि सचिन पायलट में स्पष्ट दिखाई दे रही थी इसलिए सरकार पर संकट की आहट साफ सुनाई दे रही थी। कमलनाथ सरकार का सफाया करने के लिए जो रास्ता चुना गया था वो रास्ता  राजस्थान में भी विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद ही बन गया था। सचिन पायलट की महत्त्वाकांक्षा उनके समर्थकों के उग्र प्रदर्शनों में साफ दिखाई दे रही थी। 

सचिन पायलट को भ्रम था कि कांग्रेस पार्टी को 21 से 99 तक पहुंचाने में उनकी अकेले की भूमिका रही है इसलिए मुख्यमंत्री की कुर्सी के सिर्फ वही हकदार हैं। उन्हें यह भी भरोसा था कि पायलट परिवार के लिए कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व हमेशा उदार रहा है और राजनीतिक धर्म से हट कर उन्हें उपकृत करता रहा है। 

 सचिन पायलट को मुख्यमंत्री नहीं बनाया तो उन्होंने शीर्ष नेतृत्व को आंकने का नज़रिया ही बदल दिया। जिस शीर्ष नेतृत्व से पूरे पायलट परिवार ने हमेशा लाभ उठाया उसी नेतृत्व ने ही तो गहलोत को मुख्यमंत्री की कुर्सी और सचिन पायलट को उपमुख्यमंत्री की कुर्सी दी थी। फिर यहाँ शीर्ष नेतृत्व कैसे गलत हो गया। इसके अलावा विधायकों ने गहलोत को ही नेता चुना था। इन हालात में शीर्ष नेतृत्व विधायकों की भावनाओं को कैसे नज़रंदाज़ कर सकता था। सचिन पायलट विधायकों का दिल जीत नहीं पाए और दोष शीर्ष नेतृत्व को दे रहे हैं। यदि इस फैसले में आलाकमान की भूमिका है भी तो उसका फैसला सचिन पायलट को रास क्यों नहीं आया? क्यों सचिन आलाकमान के फैसले से असंतुष्ट थे?क्यों आलाकमान में आस्था खत्म हो गई? इसका अर्थ यह हुआ कि सचिन पायलट के मनमाफिक फैसला करे तो आलाकमान सही है वरना गलत है। 

यह सच है कि विधानसभा चुनाव के समय सचिन पायलट प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष थे। राजस्थान के इतिहास में झांकें तो इस बार कांग्रेस को सत्ता सौंपने की बारी थी। वहां एक बार बीजेपी और एक बार कांग्रेस को सत्ता मिलती है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कोई भी होता, सत्ता कांग्रेस को ही मिलनी थी। जीत का सेहरा भले ही हम सचिन के सर बांध दें, लेकिन जनता ने जेहन में गहलोत को मुख्यमंत्री के तौर पर रख कर वोट दिया था। पार्टी को बहुमत मिला तो आलाकमान ने अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बना दिया।  क्या गलत कर दिया? जिसका हक़ था उसे कुर्सी सौंप दी। सचिन पायलट को तो उस वक़्त भी कुर्सी सौंपी गई है, जब उसका हक ही नहीं था।  

सचिन को आज भी राजस्थान की जनता बाहरी मानती है। जनभावनाएं किसी बाहरी को राज्य की बागडोर सौंपने के खिलाफ हैं। जनता नहीं चाहती कि राजस्थान के मूल निवासी की उपेक्षा कर अन्य प्रदेश से आए व्यक्ति को राज्य की बागडोर सौंप दी जाए।  

जनभावनाएं देखते हुए गहलोत को मुख्यमंत्री बनाया गया। गहलोत का पिछला कार्यकाल सराहनीय था। वसुंधरा राज में कई अवसरों पर लोग गहलोत की कार्यशैली की खुलकर प्रशंसा करते थे। केंद्र में कांग्रेस सरकार की खराब छवि के कारण पूरे देश में कांग्रेस के खिलाफ माहौल बन गया था इसलिए गहलोत चुनाव हार गए थे।  सचिन पायलट आलाकमान के पिछले फैसलों पर एक बार गौर करें और फिर खुद निर्णय करें कि क्या उसके सारे फैसले गलत थे। यदि वो सही थे तो गहलोत को मुख्यमंत्री बनाने फैसला कैसे गलत हो सकता है।

उत्तर प्रदेश के मूल निवासी राजेश पायलट को राजस्थान से चुनाव लड़वाने का फैसला आलाकमान का ही तो था। राजस्थान के उस वक़्त के नेताओं ने इस फैसले के खिलाफ विद्रोह तो नहीं किया था। तब पायलट परिवार को राजस्थान से चुनाव लड़वाने का फैसला एकदम सही लग रहा था। राजेश पायलट की पत्नी का राजनीति में क्या कोई योगदान था? शायद कतई नहीं। फिर भी कांग्रेस आलाकमान ने उसी दौसा सीट से रमा पायलट को चुनाव लड़वाया जिस सीट से राजेश पायलट चुनाव लड़ते थे। सचिन पायलट ने इस फैसले पर कभी उंगली उठाई? यदि सचिन पायलट यह मानते हैं कि काम के आधार पर पद या पुरस्कार मिलना चाहिए तो क्या कभी उन्होंने सोचा कि उनकी माँ रमा पायलट को बिना किसी योगदान टिकट रूपी पुरस्कार क्यों मिल गया। उंगली उठाते भी कैसे? परिवार को जो फायदा मिल रहा था।

   इसके बाद उसी दौसा सीट से 2004 में रमा पायलट के स्थान पर सचिन पायलट को लोकसभा चुनाव में उतार दिया। उस वक़्त उनका भी राजनीति में कोई योगदान नहीं था। महज एक ही योग्यता थी कि वे राजेश्वर विधूड़ी उर्फ राजेश पायलट के बेटे हैं। सिर्फ इसी योग्यता पर लोकसभा का टिकट दिया गया तो क्या उस वक़्त सचिन पायलट ने कांग्रेस नेतृत्व की आलोचना की। अगर वे काम के आधार पर पद देने के पक्ष में हैं तो क्या उस वक़्त पार्टी के लिए उनसे अधिक काम  करने वाले कार्यकर्ता को टिकट नहीं मिलना चाहिए था। उस वक़्त सचिन पायलट का वो चश्मा कहाँ था जिससे वे आज आलाकमान का फैसला देख रहे हैं। लोकसभा का टिकट मिला तो चुनाव भी जीत गए और राजेश पायलट का ‘बेटा’ रातोंरात नेता बन गया।       

वर्ष 2009 में दौसा सीट रिज़र्व हो गई तो सचिन पायलट को अजमेर से चुनाव लड़वाया। यह फैसला भी आलाकमान का ही था। पायलट परिवार आलाकमान के फैसले से बहुत खुश था क्योंकि बिना संघर्ष किए सचिन पायलट दुबारा सांसद बन गए और केंद्र में मंत्री पद भी मिल गया। सचिन पायलट की पारिवारिक सीट सुरक्षित सीट होने बावजूद पार्टी हाईकमान ने रास्ता निकाला और अजमेर से चुनाव लड़वाया क्योंकि उसे सचिन पायलट की लॉयल्टी पर भरोसा था। जिस आलाकमान को सचिन पायलट आंख दिखा रहे हैं उसी ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का पद देकर सम्मान दिया था; उसी आलाकमान ने उप मुख्यमंत्री का पद दिया था। जनता आलाकमान के जिन फैसलों पर परिवारवाद का ठप्पा लगा कर आलोचना कर रही थी वो फैसले भी पायलट परिवार को कभी गलत नहीं दिखाई दिए। आज आलाकमान के फैसले गलत नज़र आ रहे हैं क्योंकि हमेशा की तरह उन्हें प्लेट में रख कर सत्ता नहीं दी गई।

  सचिन पायलट यह क्यों भूल गए कि जिन नेताओं ने उन्हें सांसद, केंद्रीय मंत्री, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री बनाया उन्हीं नेताओं ने ही अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बनाया है। जब आलाकमान सचिन पायलट को मलाई देता है तो फैसला सही है। वही आलाकमान किसी पात्र को मलाई देता देता तो सचिन पायलट को फैसला गलत दिखाई देता है। सचिन पायलट सिर्फ अपना ही हित क्यों देखते हैं। क्यों इतने संकीर्ण हो गए हैं पायलट? 

सचिन पायलट, उनके पिताश्री या माताश्री की कर्मभूमि राजस्थान तो रही नहीं। सीधे दौसा गए और चुनाव लड़ लिया। राजेश पायलट इंडियन एयरफोर्स में एक पायलट ही तो थे। राजीव गांधी ने करीबी रिश्ते होने के कारण उन्हें राजनीति में उतार दिया। कांग्रेस की उस वक़्त की छवि के कारण चुनाव भी जीत गए और नेता बन गए। कहाँ है वो संघर्ष जो अशोक गहलोत ने किया है। वर्षों संघर्ष करने के बाद अशोक गहलोत इस मुकाम पर पहुंचे हैं।

पिता की तरह बेटे सचिन पायलट को भी कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा। राजेश पायलट का बेटा होने के नाते सब कुछ प्लेट में रखा हुआ मिल गया। यह देख कर ताज्जुब होता है और तकलीफ भी होती है कि एक संघर्षशील नेता को मुख्यमंत्री की कुर्सी मिलने पर उस व्यक्ति को तकलीफ हो रही है जिसे बिना संघर्ष किए सत्ता सुख मिल गया। लोग वर्षों पापड़ बेलते हैं और उन्हें कभी विधायक तक बनने का अवसर नहीं मिलता। सचिन पायलट अपने स्वार्थ का चश्मा उतार कर अशोक गहलोत के संघर्षपूर्ण जीवन में झांक कर देखें, उसके बाद आलाकमान के फैसले की आलोचना करें।

One thought on “हक़ मांगने से पहले अतीत में झांकें सचिन पायलट”
  1. बहुत सटीक विश्लेषण।
    सत्य को उद्घाटित करता बेबाक लेख।
    सचिन पायलट के लिए आईना।
    साधुवाद।

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