· राष्ट्रवाद को वोट-वाद में बदलने का प्रयास नहीं होना चाहिए– दीपेन्द्र हुड्डा
· वंदे मातरम् की भावना देश को एकजुट करना है, विघटित करना नहीं – दीपेन्द्र हुड्डा
· राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम्‘ के 150 वर्ष पूर्ण होने पर लोकसभा में सांसद दीपेन्द्र हुड्डा ने ऋषि बंकिम चंद्र की प्रतिमा संसद भवन में स्थापित करने की मांग की
· वंदे मातरम् महामंत्र जिसका दुरुपयोग नफरत के स्रोत के रूप में नहीं होना चाहिए – दीपेन्द्र हुड्डा
· यह देश सभी का है और सभी का रहेगा, भारत माँ सबकी थी, सबकी है और सबकी रहेगी – दीपेन्द्र हुड्डा

चंडीगढ़, 8 दिसंबर। सांसद दीपेन्द्र हुड्डा ने राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम्’ के 150 वर्ष पूर्ण होने पर आज लोकसभा में हुई चर्चा के दौरान कहा कि वंदे मातरम् की आड़ में बीजेपी वंदे वोटरम का प्रयास कर रही है। वंदे मातरम् की भावना देश को एकजुट करना है, विघटित करना नहीं। वंदे मातरम् उस विराट आंदोलन का उद्घोष है, जिसने धर्म, जाति और प्रांत की सीमाओं को लांघकर देश को एक किया था। आजादी की लड़ाई और भारतीयता के आध्यात्मिक इतिहास में इसका स्थान अद्वितीय है। जब हम ये गीत गाते हैं तो इसमें देश की मिट्टी की सुगंध आती है, स्वतंत्रता संग्राम की आवाज सुनाई देती है, देश पर जान कुर्बान करने वाले लाखों शहीदों के चेहरे नजर आते हैं, पिछले 75 वर्षों में आजाद भारत की गौरव गाथा का परिचय मिलता है और भारतवर्ष के स्वर्णिम भविष्य के सपने सँजोए जाते हैं। वंदे मातरम् एक गीत ही नहीं, बल्कि भारत की राष्ट्रीय चेतना जगाने के लिए एक महामंत्र है। उन्होंने वंदे मातरम् की 150वीं वर्षगाँठ पर मांग करी कि इसकी रचना करने वाले ऋषि बंकिम बाबू की प्रतिमा संसद भवन में स्थापित की जाए। सरकार इसकी घोषणा करे, वे सबसे पहले इसका स्वागत करेंगे।
उन्होंने कहा कि आजादी के आंदोलन में वंदे मातरम् ऐसा नारा है जिसने सारे देश को एकजुट किया और अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की रणनीति को विफल किया व जन-जन की आवाज बना। अंग्रेज़ी हुकूमत बांटो और राज करो की रणनीति के आधार पर सांप्रदायिकता, धर्म, जाति, भाषा, भूषा के भेदभाव पर अपनी हुकूमत चलाना चाहते थे, वंदे मातरम् ऐसा महामंत्र है जिसने देश को एकता के सूत्र में बांधा उस पवित्र गीत का दुरुपयोग कम से कम से नफरत के स्रोत के रूप में नहीं होना चाहिए।
दीपेन्द्र हुड्डा ने कहा कि आज कुछ लोग माँ की वंदना में भी विवाद ढूंढते हैं। जबकि भारत माँ का सच्चे मन से, सच्ची भावना से पूजन होना चाहिए, उसमें कौन क्या नारा बोले और कौन किसको क्या नारा बुलवाना चाहे, इस बात का विवाद नहीं होना चाहिए। देश की आजादी के आंदोलन से हमें सीखना चाहिए, देश के आजादी के आंदोलन के हमारे नायकों ने बड़े-बड़े नारे दिए। बंकिम बाबू की कलम से दिया गया वंदे मातरम् का नारा हो या आजादी के आंदोलन के समय भारत माता की जय का नारा गाँधी जी, नेहरू जी, सरदार पटेल जी की सभाओं में और कांग्रेस की हर सभा में गूँजता था। वहीं आजाद हिन्द फौज की स्थापना के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने ‘जय हिन्द’ का नारा दिया तो हीद-ए-आज़म भगत सिंह जी द्वारा ‘हिन्दुस्तान जिंदाबाद’ ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा लगाया गया और अज़ीमुल्ला ख़ान द्वारा ‘मादरे वतन हिन्दुस्तान जिंदाबाद’ का नारा दिया गया। ये सभी नारे भारत माँ की वंदना के भाव को प्रदर्शित कर रहे हैं। नारे-नारे में बहस नहीं होनी चाहिए, नारों पे राजनीतिक विवाद खत्म हो। दूसरे की देशभक्ति पर प्रश्न उठाना कोई सच्ची देशभक्ति नहीं है। अपने दिल के अंदर जो देशभक्ति की जोत है, उसमें पवित्रता लाने का तप करना ही सच्ची देशभक्ति है।

उन्होंने उन स्वतंत्रता सेनानियों को भी याद किया जिनके दिल में वही सच्ची मातृभक्ति का भाव था। जब वो वंदे मातरम् का नारा लगाते थे तब उनको जेल की चोट मिलती थी, चुनाव की वोट नहीं। देश की आजादी में असंख्य लोगों ने वंदे मातरम् कहते-कहते अपने प्राणों की आहुति दी, जेलों की यातनाएं सही। मुझे इस बात पर गर्व है कि मैं ऐसे परिवार से हूँ जिसकी उस समय दो पीढ़ियों ने – मेरे परदादा और दादा ने अंग्रेजों की यातनाएं सही। मेरे स्वर्गीय परदादा जी को अंग्रेजों ने काले पानी की सजा सुनाई। मेरे स्वर्गीय दादा चौ रणबीर सिंह जी को 8 साल की सजा हुई, जिसमें से 4 साल की जेल वंदे मातरम् का नारा लगाने पर हुई।
सांसद दीपेन्द्र हुड्डा ने कहा कि वर्तमान के संदर्भ में भी वंदे मातरम् गीत का अर्थ भी गहराई से समझना जरूरी है – वंदे मातरम् गीत की आत्मा में भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक प्रतीक भारत माँ बसी है। क्योंकि – माँ जननी है, माँ पालनहारी है। माँ के लिए सब संतान बराबर हैं, माँ कभी संतान – संतान में भेद नहीं कर सकती। माँ ही है जो हमेशा ये चाहती है कि उसकी सारी संतान आपस में प्यार से रहे, फलें फूलें और संतान के लिए भी उसकी माँ से बढ़कर कुछ भी नहीं। एक संतान कभी दूसरी संतान को ये नहीं कह सकती कि तुझे माँ मुझसे कम प्यारी है। दूसरे की देशभक्ति पर प्रश्न उठाना भी सच्ची देशभक्ति नहीं है। सृष्टि में सबसे बड़ा अगर कोई है तो माँ है। क्योंकि, माँ से बड़ा कोई व्यक्ति, कोई दल, कोई विचारधारा, कोई संगठन नहीं हो सकता। माँ से बड़ा कुछ नहीं और भारत माँ से बड़ा तो कुछ भी नहीं हो सकता। माँ के प्रति संतान के दिल में सच्ची मातृभक्ति का भाव होता है।
दीपेन्द्र हुड्डा ने कहा कि दुर्भाग्य से आज कुछ लोग वंदे मातरम् का नारा मातृभक्ति नहीं, वोटभक्ति के लालच में लगा रहे हैं। अपनी राजनीतिक शक्ति बढ़ाने के लिए मातृभक्ति का प्रयोग नहीं होना चाहिए। राष्ट्रवाद को वोट-वाद में बदलने का प्रयास नहीं होना चाहिए। इससे अगर किसी को ठेस पहुँचेगी तो माँ की आत्मा को ठेस पहुँचेगी। माँ को कभी अपनी राजनीति का हथियार बनाने के बारे में कोई सच्चा मातृभक्त सोच नहीं सकता। वो मातृभक्ति ही क्या जो अपनी माँ को राजनीति में घसीटे। उन्होंने महान् क्रांतिकारी अशफ़ाकउल्ला खां द्वारा फांसी से पहले लिखी गई पंक्तियों को उद्धृत करते हुए कहा कि इस्लाम में पुनर्जन्म नहीं मानते, बावजूद इसके उन्होंने कहा कि अगर खुदा मिल जाए तो जन्नत छोड़ दूंगा और भारत देश में ही पुनर्जन्म माँगूँगा।
सांसद दीपेन्द्र हुड्डा ने 150 वर्षों के वंदे मातरम् के सफर का उल्लेख करते हुए कहा कि 1875 में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की कलम से अंकित वंदे मातरम् पहली बार 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में रवींद्रनाथ टैगोर जी द्वारा गाया गया। इसी के साथ कांग्रेस ने अपने अधिवेशनों और कार्यक्रमों में ‘वंदेमातरम्’ के नियमित गायन की परंपरा शुरू की। जो आज भी कायम है। 1907 में जब अंग्रेजों की गाज पंजाब के किसान पर गिरी तो पगड़ी संभाल जट्टा के माध्यम से पंजाब के गाँव गांव में वंदे मातरम् का नारा गूँजा। उस समय शहीद भगत सिंह जी के चाचा सरदार अजीत सिंह और मेरे परदादा चौधरी मातुराम हुड्डा को अंग्रेजों ने काले पानी की सज़ा सुनाई। महात्मा गांधी ने 1921 में जब ‘असहयोग आंदोलन’ छेड़ा, तब लाखों कांग्रेसी वंदे मातरम का नारा लगाते हुए जेल गए। धीरे – धीरे यह गीत जन जन की आवाज बन गया। 1937 में भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस ने रवींद्रनाथ टैगोर जी के प्रस्ताव को पूर्णतः अपनाते हुए वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किया। जब मुहम्मद अली जिन्ना ने ‘वंदेमातरम्’ को मुस्लिम विरोधी बताया तो 6 अप्रैल 1938 को पंडित नेहरू ने मुहम्मद अली जिन्ना को एक करारा पत्र लिखा, जिसके शब्द थे कि “मिस्टर जिन्ना याद रखिए, – वंदेमातरम् गीत भारतीय राष्ट्रवाद के साथ पिछले 30 साल से अधिक समय से गहराई से जुड़ा हुआ है। इसके साथ अनगिनत बलिदान और भावनाएं जुड़ी हुई हैं।
लोकप्रिय गीत किसी आदेश से पैदा नहीं होते और न ही उन्हें जबरन थोपा जा सकता है। वे जनभावनाओं से उपजते हैं। पिछले 30 साल से अधिक समय में ऐसा कभी नहीं माना गया कि ‘वंदे मातरम्’ गीत में कोई सांप्रदायिक भाव छुपा हुआ है और इसे हमेशा से भारत की प्रशंसा में देशभक्ति का गीत माना गया है।’ जब जिन्ना विरोध कर रहे थे तब कुछ संगठन अपना ही गीत गा रहे थे। इन लोगों ने जिन्ना के विरोध में कुछ नहीं कहा। यही नहीं, 14-15 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि को जब भारत स्वतंत्र हो रहा था, तब भी नेहरू जी ने संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद को पत्र लिखकर कार्यक्रम की रूपरेखा भेजी, जिसमें सबसे पहला बिंदु था कि आज़ादी के कार्यक्रम की शुरुआत ‘वंदेमातरम्’ गीत से हो, और ऐसा ही हुआ। अंततः देश की आजादी के बाद 1950 में संविधान सभा, जिसमें मेरे दादा जी चौ रणबीर सिंह जी भी सदस्य थे, ने इस गीत को एक स्वर में, एक सहमति से राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किया।
उन्होंने कहा कि आज जब हम वंदे मातरम् का उद्घोष कर रहे हैं तो पिछले 75 वर्षों में आजाद भारत की गौरव गाथा का एहसास भी हो रहा है और भारतवर्ष के स्वर्णिम भविष्य के सपने भी हम सभी मिलकर सँजो रहे हैं। पिछले 75 सालों में हम भारत माँ की संतानों ने दुनिया की चर्चिल जैसे लोगों की उन सारी अटकलों धारणाओं को गलत साबित किया। जिनमें वो मानते थे कि भारत एकजुट नहीं रह पाएगा। लेकिन, जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल और बाबा साहब अंबेडकर जैसे महापुरुषों ने देश की ऐसी नींव रखी, कि भारत इन 75 वर्षों में न सिर्फ एकजुट रहा अपितु कहीं सिक्किम जैसे देश को अपने देश में मिलाया तो कहीं गोवा को पुर्तगालियों से मुक्त कराया। वंदे मातरम् का विरोध करने वाले जिन्ना के पाकिस्तान के दो टुकड़े भी हिंदुस्तान ने कर दिये।
भारत आज विश्व के इतिहास में सबसे बड़ा लोकतंत्र और दुनिया की तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति है। देश की आजादी के समय 30 करोड़ देशवासी अनाज आयात करके अपना पेट भरने को मजबूर हो रहे थे, आज उस देश के किसान ने धरती का सीना फाड़कर 140 करोड़ देशवासियों का पेट भरने का और देश के अनाज गोदामों को भरने का काम किया। देश के दुश्मन ने जब भी हमारी तरफ नज़र उठाई, तो दुनिया की सबसे शानदार, बेहतरीन भारतीय फौज ने भारत माँ का शीश झुकने नहीं दिया। नेहरू जी के कार्यकाल में स्थापित IIT, IIM और एम्स से निकले हुए हमारे बेहतरीन डॉक्टर और इंजीनियरों को दुनिया सबसे काबिल डॉक्टर-इंजीनियर मानती है। अमेरिका के मुकाबले 20% से कम बजट में इसरो के माध्यम से हम मार्स पर पहुँच गए। तमाम आंतरिक सुरक्षा से जुड़ी चुनौतियों को, आतंकवादी – अलगाववादी विचारधाराओं को परास्त करने के लिए हमारे पूर्व प्रधानमंत्रियों को अपने प्राणों की आहुति भी दी, ताकि देश चट्टान की तरह एकता के सूत्र में बंधा रहे। इन 75 सालों में इस देश को आगे बढ़ाने में सभी का योगदान रहा, और आगे भी सभी का रहेगा, कोई चाहे न चाहे, लेकिन यह देश सभी का है और सभी का रहेगा। भारत माँ सबकी थी, सबकी है और सबकी रहेगी।








