वरिष्ठ कांग्रेस नेत्री श्रीमती पर्ल चौधरी

रामनवमी—भारत के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक जीवन का एक विशेष दिन—अभी कल ही देशभर में पूरे उल्लास और श्रद्धा से मनाया गया। करोड़ों रामभक्तों ने घरों और मंदिरों में भगवान श्रीराम के जन्म का उत्सव मनाया। अयोध्या के मंदिर में जब प्रभु के दिव्य ललाट पर सूर्य की किरणें पड़ीं, तो मानो समस्त ब्रह्मांड राममय हो उठा।

लेकिन इस पावन पर्व के ठीक एक दिन बाद, आज केंद्र सरकार ने एक ऐसा फैसला लिया, जिसने जनता की भक्ति पर एक करारा व्यंग्य कर दिया—पेट्रोल और डीज़ल पर एक्साइज ड्यूटी में ₹2 प्रति लीटर की वृद्धि।

यह निर्णय ऐसे समय लिया गया है जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें पिछले तीन वर्षों के निचले स्तर पर हैं। यह वह समय था जब जनता को राहत मिलनी चाहिए थी—लेकिन सरकार ने राहत के बजाय टैक्स का रिटर्न गिफ्ट दे डाला।

सरकार की सफाई—आधा सच और पूरा छल?

सरकार ने इस बढ़ोतरी पर दावा किया कि इससे आम जनता पर कोई असर नहीं पड़ेगा, केवल तेल कंपनियों का मुनाफा घटेगा।

लेकिन यह कहावत तो आपने सुनी ही होगी— आधा सच, अक्सर पूरे झूठ से भी ज्यादा खतरनाक होता है।

क्योंकि अगर वाकई एक्साइज ड्यूटी का बोझ जनता तक नहीं आएगा, तो फिर यह टैक्स किस उद्देश्य से लगाया गया?
क्या तेल कंपनियाँ सरकार के लिए चुपचाप घाटा उठाने को तैयार हो जाएंगी?

क्या यह मान लिया जाए कि सरकार अब जनता की तरफ से निजी कंपनियों को “मुनाफा नियंत्रण” का निर्देश दे रही है?

यह भ्रम जल्द टूटेगा, क्योंकि जब तेल कंपनियों का मुनाफा घटेगा, वे मूल्य में वृद्धि कर ही देंगी—और तब सरकार हाथ झाड़ लेगी, कहकर कि “ये तो बाज़ार का फैसला है।”

गिरते क्रूड दाम, बढ़ते टैक्स – ये कैसा बजट संतुलन ?

2022 में क्रूड ऑयल करीब 120 अमरीकी डॉलर प्रति बैरल के पार चला गया था।
अब वही कच्चा तेल करीब 62 अमरीकी डॉलर तक आ चुका है।

क्या यह जनता का अधिकार नहीं था कि उसे सस्ते पेट्रोल-डीज़ल का लाभ मिले?
क्या सरकार को टैक्स घटाना नहीं चाहिए था?
या फिर टैक्स का हर लाभ केवल सरकार की तिजोरी में ही जाएगा?

2014 में पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी ₹9.48 प्रति लीटर थी, और डीज़ल पर ₹3.56 प्रति लीटर । जिसे अब बढ़ा कर पेट्रोल पर ₹13 प्रति लीटर और डीज़ल पर ₹10 प्रति लीटर कर दिया गया है
2021-22 में सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों से ₹4.92 लाख करोड़ की वसूली की।

कहीं न कहीं इस कर वृद्धि की असलियत यही है—सरकार खुद घाटा सहना नहीं चाहती, और मुनाफा छोड़ना नहीं चाहती।

रामराज्य का आदर्श कहाँ है?

रामराज्य का मतलब था—प्रजा की सुविधा, शासन में पारदर्शिता और नीति में धर्म।
आज रामराज्य का नाम तो हर मंच से लिया जाता है, लेकिन नीति में उसका अंश तक नहीं दिखता।

मंदिर निर्माण और धार्मिक आयोजन ज़रूरी हैं, लेकिन वे जनकल्याण के विकल्प नहीं हो सकते।

अब सवाल पूछने का समय है

जब राम के नाम पर चुनाव लड़े जाते हैं, जब उनकी तस्वीरें मंचों पर लगती हैं, जब सरकारें श्रीराम को आस्था का प्रतीक नहीं बल्कि राजनीतिक पूंजी के रूप में इस्तेमाल करती हैं—तो फिर यह भी पूछा जाना चाहिए:

*क्या राम सिर्फ़ सरकार के हैं, या माँ भारती के उन करोड़ों बेटों बेटियों के भी जो रोज़ पेट्रोल भरवाते समय सिर झुका लेते हैं, लेकिन आवाज़ नहीं उठाते?

रामराज्य मर्यादासहित नीति और न्याय का नाम था।
अगर आज सरकार वाकई श्रीराम को आदर्श मानती है, तो उसे उनकी नीति भी अपनानी होगी—जहाँ राजा सबसे पहले जनता का सेवक होता है।

आज जब भगवान श्रीराम का नाम हर दिशा में गूंज रहा है,
तो ज़रूरी है कि नारे के साथ-साथ नीति में भी राम लौटें।

जय जनता जनार्दन।

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