डॉ महेन्द्र शर्मा “महेश”……….. पानीपत

रामायण हम को जीना सिखाती है, हमें मर्यादाओं और सीमाओं में रहना सिखाती है। यदि हम धर्म को समझना चाहते हैं तो हम को रामायण का अध्ययन करना होगा। धर्म की व्याख्या करना असम्भव है, जीवन में मर्यादा का क्रियान्वन करने से ही धर्म को समझा जा सकता है। राम दरबार राम परिवार की बात करें तो हमें धर्म समझ आ जाएगा। राम चरित मानस में किसी भी सुचरित्र द्वारा विषम से विषम परिस्थिति में धर्म का त्याग नहीं किया गया। बनवास खंड में पंचवटी में प्रवास के दौरान जब जानकी जी को छद्म स्वर्ण मृग (जो वास्तव में माया के इलावा कुछ होता नहीं है) दिखाई देता है तो वह बनवास खंड के प्रवास में पहली बार अपने पति श्री राम को स्वर्ण मृग लाने की बात करती हैं तो राम मना नहीं कर पाते, उस का पीछा करने जंगलों में चले जाते शेष कथानक से सभी परिचित है तो लक्ष्मण रेखा से कीलित कुटिया के द्वार पर दशानन का भिक्षुक के रूप में प्राकट्य होता है, जब वह भिक्षा के लिए अलख जगाता है तो जगदंबिका कहती हैं आप कुटिया के द्वार पर भिक्षा ले जाएं, रावण जिस का मंतव्य तामसिक था, रावण जब इस आणविक रेखा को पार नहीं कर पाता तो जनक नंदिनी धर्म का मर्म जानती थी कि द्वार पर आए हुए याचक को खाली हाथ वापिस लौटाना धर्म नहीं है, मैं इस आणविक रेखा को पार कर के धर्म की रक्षा करूंगी, चाहे जो भी परिणाम हो। जगदंबिका राम के बल से भी परिचित थी, लक्ष्मणजी ने अपना बल उस रेखा को खींच कर बता ही दिया था। धर्मो रक्षति रक्षिता: के सिद्धांत पर चलने वाली आदि शक्ति ने धर्म को सत्य सिद्ध कर के दिखा दिया कि इक लख पूत सवा लख नाती। रावण का क्या हश्र हुआ।

हमारी संस्कृति में प्रश्नों को स्वीकार करना भी धर्म माना गया है, हम प्रश्नों का स्वागत करते हैं। यदि आज हम इन प्रश्नों का उत्तर देने से बचेंगे तो जीवन के हर मोड पर यही प्रश्न सामने आ कर खड़े हो जाएंगे। जीवन का कोई भी क्षेत्र हो उस क्षेत्र की जानकारी की जिज्ञासा को तो शांत करना ही होगा चाहे प्रश्न घर परिवार का हो या समाज का, नगर का हो या राज्य का या फिर विश्व का और विश्वेश्वर का। स्वतंत्रता संग्राम के नायकों से आज कोई व्यक्ति यदि प्रश्न करता है कि ऐसा क्यों नहीं हुआ, ऐसा क्यों नहीं किया या ऐसा करना चाहिए था … यह सब प्रश्न अनुचित हैं। अपने ज़माने में यदि अपने दादा जी से मैं यह प्रश्न करता की दादा जी आपने हमारे लिए किया क्या है तो जवाब में शायद वह मेरा पिछवाड़ा लाल कर देते। एक बार गलती से मैं अपने मामा के घर से प्याज खा कर आ गया और दादा जी से लिपट कर बोला दादा जी खर्ची दो तो उन्होंने मेरे गाल पर तमाचा रसीद कर दिया था कि प्याज कहां से खा कर आया है।

यह आजादी के 75 वर्ष बाद प्रश्न … प्रश्न यह है कि समयभेद के कारण राज्यशक्ति हाथ में आ गई है और वो सत्ताधीश गत दस वर्षों में राजनीति के हर क्षेत्र में नाकाम रहे हैं। उनसे जनमानस प्रश्न कोई न पूछे, इसलिए पहले तो जनमानस को आपस में लड़वा दो और फिर मध्यस्थ बन कर उन का फैसला करवा दो, समय बीत जाएगा, तब तक पिछले प्रश्न मर जाएंगे, यदि वही फिर से उठने लगे तो एक नई समस्या पैदा कर दो फिर उसी में लोग उलझे रहेंगे और समय बीत जाएगा। यही क्रम चल रहा है, संसद जिस में सत्ताधीश संसद के प्रति जवाबदेह हैं, उसे हर प्रश्न का उत्तर देना होगा … लेकिन प्रश्नों का उत्तर हो तो दिया जाए। काल चक्र तो चलता रहता है , सदैव कोई भी शक्तिशाली नहीं रहता , हमारे यहां तो प्रजातंत्र है लाल किला किसी के पिता की सम्पदा नहीं है

आज कोई, कल कोई और था और कल कोई और होगा।
वो भी इक दौर था और कल भी नया कोई दौर होगा।

बात तो वर्तमान की है तो अतीत को याद करें। महाभारत युद्ध के काफी वर्षों के बाद महाभारत के बाद 38 वर्षों तक धर्मराज युधिष्ठिर का साम्राज्य रहा, जब इस कालखण्ड का आखिरी दौर आया तो जब अर्जुन द्वारिका से वापिस लौट रहे थे रास्ते में अर्जुन को भीलों ने लूट लिया जिस में अपने गाण्डीव से बड़े बड़े अत्याचारियों को मौत के आगोश में सुला दिया था …

समय हमेशा करवट बदलता रहता है
ज़हन में सबके प्रश्न कुछ कहता है।
उधर वो पत्थर बदलते रहते हैं
इधर भी अहले जनूं सर बदलते रहते हैं
यह दबदबा यह हुकूमत ये नशा ए दौलत
किरायेदार हैं सब घर बदलते रहते हैं

एक न एक हम सब को अपने द्वारा किए गए कर्मों का बोझ तो ढोना ही पड़ेगा। यह याद रखें कि तप का फल राज्य होता है और इसी राज्य का फल नरक।

पांडव सारी उम्र सत्य का पालन करते रहे और उन पांडवों को मृत्यु के बाद सब से पहले नर्क में जाना पड़ा था ।और दुर्योधन केवल एक सत्य बोलने पर सीधा स्वर्ग में गया था जिस ने अपने जीवन में केवल एक ही गम्भीर बात बोली थी … हे पण्डित अश्वथामा! हे धनुर्धर! हे गुरुपुत्र! तू ने यह क्या कर डाला अनर्थ हो गया पंडित … अनर्थ। तू अबोध पाण्डव बालकों के सिर काट कर ले आया। रूंधे हुए गले से और रोते हुए दुर्योधन अश्वथामा से कहता है कि तुम भली प्रकार से जानते हो कि महाभारत युद्ध में मेरे सारे भाई , अर्जुन का पुत्र वीर अभिमन्यु और तो और मेरा पुत्र लक्ष्मण भी वीरगति को प्राप्त हो चुका है। मृत्यु अटल सत्य है … मुझे तुम से केवल यही उत्तर चाहिए कि कल जब हम सभी दिवंगत हो जाएंगे तो हमें जलांजलि कौन देगा? यही प्रश्न आज हमारे देश के सामने है कि जब कुछ नहीं बचेगा तो हमारे देश का क्या होगा।

जब तक हम सब के जीवन में रामायण अर्थात अनुशासन और पारदर्शिता नहीं होगी तो भले भले ही हम राम राम चिल्लाते रहें , हमारे जीवन और हमारे में राष्ट्र में महाभारत हो जाने की संभावनाएं प्रबलता प्राप्त करती जाएंगी और एक दिन हम को हमारी संस्कृति धर्म और मर्यादा को समाप्त कर देंगी और सर्वत्र क्षुद्रता ही क्षुद्रता के दर्शन होंगे। यदि हम राम के भक्त हैं तो भगवान की तरह राष्ट्र के आखिरी नागरिक के प्रश्न का उत्तर दे कर उसको भी भगवान श्री राम संतुष्ट किया था, भक्तों को सीता जी के पुनःबनवास की बात कर रहा हूं। यही है सनातन धर्म यहां श्री राम की मर्यादा का वास है। यदि यहां किसी नागरिक को उसके प्रश्नों के उत्तर से वंचित किया जाता है फिर हमारे यहां राम राज्य नहीं दुर्योधनी संस्कृति का वास है। हम सभी यह बात याद रखें कि धर्म ही धर्म की रक्षा करता है और धर्म जानते हुए उस का पालन न करने से यही धर्म दुर्योधन का उसके परिवार सहित नाश भी कर देता है। सब प्रश्नों के उत्तर में तर्क से यह कभी भी निर्णय नहीं होता कि वह तथ्य नहीं है, वह कुछ न कुछ घटनाक्रम तो अवश्य था तभी तो तर्क करते हैं … आप। सत्य ही ईश्वर है मर्यादा का पालन ही धर्म है।

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