भाजपा को 2019 रिपीट करना, कांग्रेस को 10 साल का सूखा तोड़ना चुनौती

अशोक कुमार कौशिक 

लोकसभा चुनाव से ठीक पहले हरियाणा में जिस तरह से सियासी उथल-पुथल हुई है, इसके दूरगामी परिणाम होंगे। हरियाणा में हुए इस प्रयोग का असर सिर्फ भाजपा ही नहीं, बल्कि कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दलों की रणनीति को भी प्रभावित करेगा। 

इससे हासिल हुए परिणाम पर ही विधानसभा चुनाव की नींव रखी जाएगी। जाटलैंड में जातीय समीकरणों को साधने के लिए सभी पार्टियों को खूब गहरे तक मंथन करना होगा। सियासी दलों की प्रयोगशाला बने हरियाणा में इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को छोड़कर किसी भी दल के पास खोने को कुछ नहीं है। भाजपा के समक्ष 2019 में हासिल सभी दस सीटें बचाना चुनौती है तो 2014 में एक सीट और पिछले चुनाव में शून्य पर सिमटी कांग्रेस को दस साल का सूखा तोड़ना होगा।

राज्यों की राजनीति और महत्वपूर्ण सीटों पर चर्चा तेज हो चली है। राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हरियाणा में देशवाली बेल्ट राजनीतिक दलों के लिए अहम है, जहां लोकसभा चुनाव में बहुकोणीय मुकाबला होने जा रहा है। राज्य में सत्तारूढ़ बीजेपी पारंपरिक रूप से कांग्रेस का गढ़ माने जाने वाले जाट बहुल इस क्षेत्र में उसे कमजोर करने की कई वर्षों से कोशिशें कर रही है। इस क्षेत्र में रोहतक और सोनीपत लोकसभा क्षेत्र आते हैं।

हरियाणा में ऐसा प्रयोग पहली बार हुआ कि चुनाव से ऐन पहले सत्तारूढ़ दल ने मुख्यमंत्री बदलने का दांव खेला। भाजपा का मकसद एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर कम करना है, लेकिन यह विश्वास जनता में पैदा करना होगा कि केवल चेहरा ही नहीं व्यवस्था भी बदली है। मंत्रिमंडल में पुराने ही चेहरे ज्यादा शामिल हैं। आचार संहिता लगने से अब नए मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी के पास समय व अवसर नहीं है कि यह संदेश दे सकें कि वह सरकार बदल चुकी है जिसके प्रति विरोध था।

संगठन की चाक-चौबंदी से लेकर प्रत्याशी तय करने में भाजपा ने त्वरा दिखाई। छह प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं। इनमें जातीय समीकरणों का ध्यान रखा। मनोहर को लोकसभा चुनाव लड़वाना दिग्गजों को मैदान में उतारने के उसी प्रयोग का हिस्सा है जो भाजपा ने दो अन्य राज्यों कर्नाटक व उत्तराखंड में पूर्व मुख्यमंत्रियों को मैदान में उतार कर किया है। लेकिन कांग्रेस इसी पर उससे सवाल कर रही है कि जनता को बताए कि सीएम को क्यों हटाया। क्या उनकी परफार्मेंस ठीक नहीं थी?

जाट मतों के विभाजन की भाजपा ने चली चाल

अढाई प्रतिशत आबादी वाले सैनी समुदाय से संबंधित नायब सिंह को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा अन्य पिछड़ा वर्ग की 40 प्रतिशत आबादी को साधना चाहती है। 25 प्रतिशत जाट वोट बैंक उसके लिए दूर की कौड़ी रहा है। सांसद बृजेंद्र सिंह के कांग्रेस का दामन थामने, उनके पिता बीरेंद्र सिंह के भी पार्टी से नाराज चलने से जाट बेल्ट में भाजपा ने नुकसान भांप लिया है। जाट मतों के विभाजन की भाजपा ने चाल चली।

जननायक जनता पार्टी (जजपा) से नाता तोड़कर एक और हलचल पैदा की। उसे यह उम्मीद है कि अगर जजपा अकेले मैदान में उतरती है तो जाट मतों का विभाजन कांग्रेस, जजपा और इनेलो में हो सकता है, जिसका लाभ उसे मिल सकता है। पंजाबी यानी जीटी रोड बेल्ट की तीन सीटों से भाजपा को इसलिए भी उम्मीद है क्योंकि मनोहर व सैनी दोनों यहां से हैं, लेकिन पिछले पांच साल में उनका जनता से कितना जुड़ाव रहा है, यह अब मतदाता आंकेगा जरूर। भाजपा ने यादव व गुर्जर मतदाताओं को ध्यान में रखते हुए राव इंद्रजीत व कृष्णपाल गुर्जर को फिर मैदान में उतारकर अहीरवाल बेल्ट व एनसीआर में मजबूती पाने की कोशिश की है।

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने सात लोकसभा सीटें जीती थी और केवल रोहतक में उसे हार का सामना करना पड़ा था। इंडियन नेशनल लोक दल (इनेलो) ने दो सीटें जबकि कांग्रेस ने रोहतक से जीत दर्ज की थी। उस वक्त रोहतक पर कांग्रेस की पकड़ तोड़ने में नाकाम रहने के बाद भाजपा ने हुड्डा परिवार के गढ़ में कांग्रेस को कमजोर करने के मकसद से क्षेत्र में अपनी गतिविधियां बढ़ा दीं। बीजेपी का प्रदेश मुख्यालय भी रोहतक में है।

पिछली बार बीजेपी ने जीती थी सारी सीट

बीजेपी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में सभी 10 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की थी और उसने प्रमुख राजनीतिक घरानों के ”गढ़” में सेंध लगायी थी। बीजेपी ने हुड्डा परिवार के गढ़ माने जाने वाले रोहतक में जीत हासिल की थी जहां तत्कालीन सांसद दीपेंद्र सिंह हुड्डा को हार का स्वाद चखना पड़ा था। बीजेपी ने सोनीपत से चुनावी मैदान में उतरे भूपेंद्र सिंह हुड्डा को भी पराजित किया था। कांग्रेस 2019 के चुनाव में करारी हार के बाद इस बार बीजेपी को कड़ी टक्कर देने की उम्मीद कर रही है। उसने आम आदमी पार्टी (आप) के साथ सीट बंटवारे का समझौता किया है जिसके तहत ‘आप’ कुरुक्षेत्र सीट से चुनाव लड़ेगी।

देशवाली बेल्ट और उत्तरी हरियाणा में बीजेपी के लिए एक और चुनौती

कांग्रेस नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने इस गठबंधन पर कहा, दोनों एक साथ मिलकर और मजबूती से लड़ेंगे। देशवाली बेल्ट और उत्तरी हरियाणा में बीजेपी के लिए एक और चुनौती यह है कि इस क्षेत्र में निरस्त किए जा चुके तीन कृषि कानूनों के खिलाफ हाल में उग्र किसान आंदोलन हुआ है। उत्तरी हरियाणा में अंबाला, कुरुक्षेत्र और करनाल निर्वाचन क्षेत्र आते हैं। पिछले आम चुनाव में बीजेपी ने राज्य के बागड़ी बेल्ट में सिरसा से भी जीत हासिल की थी जहां एक वक्त में भाजपा को कमजोर माना जाता था।

पूर्व सांसद अशोक तंवर हाल में ‘आप’ से बीजेपी में शामिल

वरिष्ठ नेता और पूर्व सांसद अशोक तंवर हाल में ‘आप’ से बीजेपी में शामिल हुए हैं और इससे भी बीजेपी का हौसला बढ़ सकता है। अहीरवाल बेल्ट के नाम से पहचान पाने वाले दक्षिणी हरियाणा में कांग्रेस की चुनौती आसान होने की उम्मीद नहीं है। यहां से केंद्रीय मंत्री और गुरुग्राम से सांसद राव इंद्रजीत सिंह भाजपा के प्रमुख नेता हैं। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने हाल में कहा था कि बीजेपी राज्य में सभी 10 सीटें जीतकर 2019 के अपने प्रदर्शन को दोहराने की कोशिश में है। यही बात अब मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी भी दोहरा रहे।

गुटबाजी कांग्रेस की बड़ी मुसीबत

कांग्रेस ने भी इंडिया गठबंधन में सहयोगी आम आदमी पार्टी को कुरुक्षेत्र सीट देकर प्रयोग किया है। कांग्रेस नेता वहां आप के प्रत्याशी के लिए जुट भी गए हैं, लेकिन क्या बाकी क्षेत्रों में कांग्रेस को भी इस सहयोगी से वैसा समर्थन मिलेगा, यह कहना मुश्किल है। गुटबाजी कांग्रेस की बड़ी मुसीबत है, लेकिन जातिगत समीकरण उसके पक्ष में बनते हैं। कांग्रेस इस बार भी जाट व दलित वोट बैंक से ही ताकत मिलने की उम्मीद में है।

दस में से लगभग पांच सीटों पर जाट व दलित मतदाता जीत-हार तय करते हैं। विधायक दल के नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा के साथ कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष व दीपेंद्र हुड्डा गुट और दूसरी ओर कुमारी सैलजा, रणदीप सुरजेवाला और किरण चौधरी का गुट है। कांग्रेसी मानते हैं कि पार्टी के भीतर बेशक खींचतान है, लेकिन वोटर जाट व दलित कंबीनेशन वाले इन दोनों गुटों के नेताओं को वोट देगा तो फायदा कांग्रेस को होगा। देसवाली व बांगर बेल्ट में कांग्रेस इसी फैक्टर का लाभ लेने की फिराक में है। छठे चरण में चुनाव होने से प्रत्याशी तय करने के लिए कांग्रेस को कुछ समय मिल गया है।

दुष्यंत चौटाला अभी आगामी रणनीति तय नहीं कर पाए

जजपा के लिए अपने विधायकों व नेताओं को संभाले रखना ही चुनौती है। वह लोकसभा चुनाव लड़ती है तो जीतने नहीं, वोट काटने की ही स्थिति में होगी। जजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अजय चौटाला व मनोहर सरकार में उप मुख्यमंत्री रहे दुष्यंत चौटाला अभी आगामी रणनीति तय नहीं कर पाए हैं। दूसरी ओर जिस इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) से टूटकर जजपा बनी, वह जरूर इस उम्मीद में है कि जजपा में बिखराव हुआ तो उसके नेताओं की घर वापसी होगी।

संजीवनी मिलने की उम्मीद में इनेलो ने सभी सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान कर दिया है। पार्टी के प्रधान महासचिव अभय चौटाला की नजरें इस चुनाव से ज्यादा विधानसभा चुनाव पर होंगी। इस सारी कशमकश में अभी और दल बदल होंगे जो इस चुनाव को पिछले चुनावों से अलग करेंगे।

भर्ती में पर्ची-खर्ची सिस्टम खत्म- भाजपा

भाजपा मोदी के नाम, केंद्र सरकार के राष्ट्रीय एजेंडे- राम मंदिर, अनुच्छेद 370 इत्यादि के साथ ही मनोहर सरकार के कार्यों को भुनाएगी। कानून-व्यवस्था, बेरोजगारी और भाजपा सरकार की नाकामियों को कांग्रेस मुद्दा बनाएगी। भाजपा का कहना है कि उसने भर्ती में पर्ची-खर्ची के सिस्टम यानी भ्रष्टाचार को खत्म किया है, वहीं कांग्रेस का कहना है कि भर्तियों को लेकर भाजपा ने अपना वादा पूरा नहीं किया है।

किसानों का मुद्दा जमीन पर उतना नजर नहीं आता जितना नारों में। भाजपाइयों का कहना है कि फसल खरीद, बीमा, मुआवजे का पैसा सीधा खातों में गया तो किसानों को अंतर नजर आ गया है। दावों व वादों की झड़ी के बीच ऊंट किस करवट बैठेगा, यह प्रदेश के 1.98 करोड़ मतदाताओं को तय करना है।

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