शरद गोयल ………….. चीफ एडिटर विचार परिक्रमा

अभी हाल ही में 5 राज्यों के विधानसभाओं के चुनावों के नतीजे आए। 3 राज्यों में भारतीय जनता पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला। लेकिन एक चौकाने वाली बात जो मेरे दिमाग को झकझोर गई कि जब मुख्यमंत्री का नाम तय करने की बारी आई तो कमोपेश उन्हीं लोगों का नाम सामने आया जो लम्बे अरसे तक उन राज्यों में मुख्यमंत्री रह चुके है।

यदि हम मध्यप्रदेश की बार करे तो शिवराज चौहान लगभग 15-16 साल मुख्यमंत्री रहे और इस बार अचानक किसी नए व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाने पर कहीं ना कहीं उनमे और उनके समर्थकों में और सबसे अधिक उस जाति के लोगों में आई जिस जाति से वो संबंध करते है। ऐसा ही कुछ हास्य राजस्थान में हुआ।

वसुंधरा राजे सिंधिया कई बार राजस्थान की मुख्यमंत्री रही है और इस बार भी मुख्यमंत्री पद की प्रबल दावेदार रही। उनके स्थान पर किसी और को मुख्यमंत्री बनाने के लिए इतनी अनुशासित पार्टी के आलाकमान को खासी मशकत करनी पड़ी और एक बार फिर वसुंधरा जी के खेमे में और उनके समाज के लोगों में निराशा छाई।

कई सवाल दिमाग में पैदा हुए कि इन दोनों घटनाओं ने दिमाग में कई सवाल पैदा कर दिए। क्या राजनीति में ताकतवर होने का मतलब सिर्फ सत्ता में पद पर बने रहना है या समाज कल्याण करना है। जो व्यक्ति 3-4 बार मुख्यमंत्री रहने के बाद भी अपने को स्वेच्छा से उस पद से नहीं दूर करता है। तो नए लोगों को नई सोच के लोगों को इस प्रकार अपना हुनर दिखाने का मौका मिलेगा। हम अपने बुजुर्गों से सुना करते थे कि राजनीति सत्ता प्राप्ति का साधन नहीं समाज सेवा का साधन है। समाज सेवा के लिए आवश्यक नहीं कि मात्र मुख्यमंत्री व मंत्री बनकर ही समाज की सेवा करे।

आप सत्ता रूढ़ दल से जुड़े हुए है। यही अपने आपमें बहुत बड़ी बात है। यदि आप समाज सेवा करना चाहते है तो इसमें आपका मंत्री व मुख्यमंत्री बनना आवश्यक नहीं।

पूरी राजनीति व्यवस्था में ऐसे अनेकों उदाहरण है जिनके परदादा, दादा, पिताजी और अब वो लोग सत्ता में है और अब भी वो लोग इच्छा रखते है कि उनके बच्चे राजनीति में आए।

21 वी सदी का आने वाला भारत आने वाले भारत के एक नौजवान को वोट डालते समय भी इस बात को ध्यान में रखना होगा कि क्या हम नए लोगों को राष्ट्र के विकास का मौका देना चाहते है या उन्हीं चेहरों को बार-बार दोहराना चाहते है। राजनीतिक दलों के मुख्यों को यह पहल करनी चाहिए। उन लोगों को लोक सभा, विधान सभा की टिकटे दी जानी चाहिए जो राष्ट्र विकास में सहायक सिद्ध हो सके। उनके मापदंड में उनकी राजनीतिक छवि के साथ-साथ उनकी शिक्षा, अनुभव और सोच को प्राथमिकता देनी चाहिए ना कि जातीय समीकरण को। दुर्भाग्य से आज पूरे देश की राजनीति जातीय समीकरण में सिमट कर रह गई है। जोकि विकसित भारत के सपने को पुरा करने में रूकावट साबित हो सकती है।

राष्ट्रीय स्तर की बात कुछ और होती है। क्योंकि वहां पर अंतर्राष्ट्रीय मापदंड भी देखने होते है। किन्तु यदि राज्यों की बात करे तो मुख्यमंत्री और मंत्रियों के बदलाव एक स्वस्थ राजनीतिक व्यवस्था का मापदंड है। किसी भी राजनेता को उसकी कार्यक्षमता और काबिलियत के आकार पर आंका जाना चाहिए ना कि वो कितनी बार मुख्यमंत्री बना है और किस जाति से आता है इस बात को। क्योंकि सत्ता में पद पर बना रहना आवश्यक नही है। पार्टी और पार्टी की विचारधारा को मजबूत करना आवश्यक है।

error: Content is protected !!