भारत सारथी/ऋषि प्रकाश कौशिक

गुरुग्राम। वर्तमान परिस्थितियों में आज का समाज नैतिकता और चरित्र की तो बात क्या यथार्थ छोड़, भौतिकवाद की ओर दौड़ रहा है। ऐसे में नैतिकता और चरित्र तो लगता है किताबी बातें हो गई हैं और राजनीति में नैतिकता और चरित्र ढूंढऩा तो ऐसा ही है जैसे भूसे के ढ़ेर में सुईं ढूंढना। 

हरियाणा की राजनीति की बात करें तो जो चुनाव के समय भाजपा को यमुना पार पहुंचा रहे थे, वही अब भाजपा का साथ निभा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि यह एकमात्र उदाहरण है। भाजपा में नजर डालेंगे तो अनेक कांग्रेसी मिल जाएंगे, जो कहते हैं तो हैं कि हमें भाजपा की नीतियां पसंद आईं इसलिए भाजपा में शामिल हुए लेकिन वास्तविकता शायद किसी से छिपी नहीं है कि वर्तमान समय में जिस नेता को जहां यह लगता है कि उसका भविष्य अधिक उज्जवल होगा, वह वहीं शामिल हो जाता है। नीति और सिद्धांत तो सब लोगों को बरगलाने के लिए हैं।

हरियाणा में एक प्रचलित कहावत है कि जहां देखी तवा-परात, वहीं गुजारी सारी रात। और यह जनता में पूर्ण रूप से चर्चा है कि राजनीतिज्ञों के साथ बिल्कुल ऐसा ही है कि जिन्हें जिस पार्टी में जाने से अपना लाभ दिखाई देता है, वह वहीं चला जाता है।

उन चर्चाकारों से हमने पूछा कि भाई सभी तो मंत्री नहीं बन पाते फिर इतने लोग क्यों शामिल होते हैं? इस पर सभी की लगभग एक ही प्रतिक्रिया सामने आई कि मंत्री, विधायक बनना ही नहीं अपितु अनेक पद होते हैं और फिर सत्ता के साथ रहने का तो अलग ही सुख है। मैंने पूछा क्या तो उसने महाराज अकबर की कहानी सुना दी।

एक बार अकबर के दरबार में एक भ्रष्टाचारी की शिकायत आई तो महाराज अकबर ने कहा कि इसे किसी ऐसी जगह लगा दो, जहां यह भ्रष्टाचार कर ही न सके। इस पर बीरबल ने कहा कि महाराज आप गलती कर रहे हैं। ऐसा कोई स्थान नहीं जहां राजा की मोहर लगी हो, वहां भ्रष्टाचार के मौके न हों। राजा ने बीरबल से कहा कि सिद्ध कर सकते हो। बीरबल ने हामी भर दी।

राजा ने बीरबल को कहा कि जाओ नहर की लहरे गिनो, देखें उसमें कैसे भ्रष्टाचार होता है। बीरबल शीश नवाकर चला गया। एक माह बाद राजा बीरबल के पास पहुंचे और उनसे कहा कि क्यों बीरबल हो गए न गलत सिद्ध। तो बीरबल ने सोने के सिक्कों की एक थैली महाराज को अर्पित की और कहा कि महाराज इतना ही भ्रष्टाचार मैं कर पाया हूं। राजा ने पूछा यह कैसे तो बीरबल ने बताया कि महाराज नदी से जो व्यक्ति निकलता था उसे कहता था कि राजाज्ञा है नहरे गिनने में व्यवधान पड़ता है तो उसे जाना पड़ता था तो शुल्क दे जाता था। उसी प्रकार व्यापारियों के जहाज यहां से गुजरते थे तो वे सोने की मोहरें दे जाते थे। इस बात से यह पता लग गया कि सत्ता के साथ लोग क्यों जाते हैं। वैसे भी हमें अनेक जानकार कहते हैं कि हम तो राजपूत हैं, जिसका राज उसके पूत। 

वर्तमान में शासन-प्रशासन में नैतिकता और चरित्र ढूंढना मुश्किल है। जो राजनीज्ञि हैं उन्हें अपने शीर्ष अधिकारियों की बात माननी पड़ती है और जो जितनी अच्छी अपने शीर्ष अधिकारी की प्रशंसा करता है, वह उतना ही अच्छा पद पा जाता है। ऐसा किसी एक पार्टी में नहीं अपितु वर्तमान परिवेश में हर पार्टी में यही स्थिति है।

प्रशासनिक अधिकारियों की बात करें तो उन्हें अपने विभाग के नेताओं, मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों के अनुसार चलना ही पड़ता है वरना उनकी सर्विस बुक में लाल निशान लगने अवश्य संभावी हैं। और फिर प्रशासनिक अधिकारी ही तो इस भौतिकवादी युग में ही जी रहे हैं।

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