नई शिक्षा नीति असमानताओं को बढ़ाने वाली अर्थव्यवस्था के अनुरूप: शर्मा

भारत सारथी/ कौशिक

नारनौल। हरियाणा विधालय अध्यापक संघ के पूर्व राज्य सचिव धर्मपाल शर्मा ने बताया कि देश की वर्तमान सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 लागू की है। आज़ाद भारत की यह तीसरी शिक्षा नीति है। केंद्र सरकार का कहना है कि यह नीति 21वीं सदी के भारत की ज़रूरतों के अनुरूप बनाई गई है। हम जानते ही हैं कि यह सरकार वर्तमान भारत को किस दिशा में ले जा रही है। यह शिक्षा नीति असमानताओं को बढ़ाने वाली अर्थव्यवस्था के अनुरूप है। इन मंतव्यों को आगे बढ़ाने के लिए बनाई गई शिक्षा नीति ही सरकार के अनुसार ‘आज की ज़रूरतों’ को पूरा करने वाली है।

इसीलिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में केंद्रीकरण, व्यापारीकरण, संप्रदायीकरण और असमानता को बढ़ाने के रुझान बहुत साफ़ दिखाई पड़ रहे हैं। समूची शिक्षा व्यवस्था के केंद्रीकरण के संकेतों को उच्चतर शिक्षा, स्कूल शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा आदि सभी स्तरों पर देखा जा सकता है। इन स्तरों की शिक्षा व्यवस्था से जुड़े तमाम ढांचों का केंद्रीकरण किया जा रहा है। यही बात शिक्षा के निजीकरण और संप्रदायीकरण के संदर्भ में भी दिखाई देती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में कुछ बातें ऐसी ज़रूर कही गई हैं जिनसे यह शिक्षा नीति बेहतर शिक्षा देने की ओर उन्मुख दिखाई देती है परंतु जब हम इस शिक्षा नीति को बारीकी से देखते हैं तो स्पष्ट होता है कि इसमें पहले की कुछ समस्याएं तो जरूर बताई गई हैं लेकिन उनके समाधान के लिए प्रतिबद्धता नहीं दर्शाई गई है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 की मूलभूत कमज़ोरियां निम्न है।

यह शिक्षा नीति भारतीय संविधान के आधारभूत मूल्य धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद का उल्लेख एक बार भी नहीं करती।
यह नीति शिक्षा के अधिकार कानून-2009 को कमज़ोर बनाती है।

यह नीति आंगनवाड़ी केंद्रों में ही बच्चों को शिक्षा देने की बात करती है जबकि आंगनवाड़ी केंद्र स्वयं आधारभूत सुविधाओं एवं मानव संसाधन की कमी के चलते बदहाल हैं। नीति में बच्चों की कम संख्या के आधार पर सरकारी स्कूलों को बंद करने की बात भी कही गई है जबकि निजी स्कूलों को बढ़ावा देने का मंतव्य स्पष्ट दिखाई देता है।

उच्चतर शिक्षा की बात करें तो महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता प्रदान करने की बात कही गई है। इसके निहितार्थ उन्हें सरकारी अनुदान से वंचित करके स्वयं अपना वित्तीय प्रबंधन करने की ओर धकेला जा रहा है।

नीति में हर ज़िले में एक उच्च शिक्षा संस्थान स्थापित करने की बात कही गई है लेकिन वर्तमान समय में सभी संस्थानों में अनेक पद रिक्त पड़े हुए हैं और अधिकांश संस्थानों में गुणवत्ता का स्तर भी निम्न हो गया है। इन संस्थानों की बेहतरी के लिए कोई स्पष्ट संकेत नहीं दिखाई देते।

इस नीति के अनुसार अब स्नातक की डिग्री 4 साल में मिलेगी लेकिन गरीब-वंचित परिवारों के अभिभावक बच्चों को 3 साल भी बहुत मुश्किल से पढ़ा पाते हैं तो अब 4 साल कैसे पढ़ा पाएंगे। इसलिए इस वर्ग के बच्चों का ड्रॉप आउट बढ़ने की संभावना बहुत ज़्यादा हो जाएगी।

नीति में जो निजीकरण का रुझान दर्शाया गया है उसके चलते गरीब बच्चे उच्चतर शिक्षा तक तो पहुंच ही नहीं पाएंगे।

सार्वजनिक शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का 6% खर्च करने की बात की गई है लेकिन नीति में सार्वजनिक खर्च की संभावनाएं कम ही दर्शाई गई हैं। इस वर्ष बजट में शिक्षा पर सार्वजनिक खर्च के रूप में सकल घरेलू उत्पाद का 2.5% ही रखा गया है। इससे स्पष्ट होता है कि सरकार सार्वजनिक खर्च को बढ़ाने नहीं जा रही।

दरअसल शिक्षा नीति की ये कमज़ोरियां सरकार की जन विरोधी मंशाओं को ही परिलक्षित करती हैं। इसलिए अखिल भारतीय जन विज्ञान नेटवर्क और भारत ज्ञान-विज्ञान समिति राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 का विरोध लगातार कर रहे है।

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