क्या 2024 से पहले थर्ड फ्रंड को हवा दे रहे अखिलेश?
मोदी की चुनावी राह के बड़े रोड़े
क्षेत्रीय दल भाजपा कांग्रेस की दुखती रग बने
वर्ष 2023 कई मायनों में प्रमुख राजनैतिक दलों के लिए 2024 के आम चुनाव का सेमीफाइनल होगा

अशोक कुमार कौशिक

2024 के लोकसभा चुनाव के लिए अभी से सभी राजनीतिक पार्टियों ने जमीन पर काम करना शुरू कर दिया है। बीजेपी की तो सोमवार को राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक हो चुकी है। कांग्रेस अधिवेशन भी अगले महीने होने जा रहा है।

इस बीच समाजवादी पार्टी भी अब अपने पत्ते खोलने लगी है। कहने को सपा का ज्यादातर जनाधार उत्तर प्रदेश में है, लेकिन क्योंकि वो उस राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी है और लोकसभा की भी सबसे ज्यादा सीटें इसी राज्य से निकलती हैं, ऐसे में अखिलेश यादव को किसका साथ पसंद है, ये मायने रखता है। अब उसी पसंद की अटकलें लगने लगी हैं। अखिलेश को तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव का साथ पसंद आ रहा है।

सपा प्रमुख अखिलेश, केसीआर की विशाल रैली में शामिल होने जा रहे हैं। ये ऐलान भी उस समय हुआ है जब अखिलेश यादव ने कांग्रेस से पूरी दूरी बना ली है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो भारत जोड़ो यात्रा है जो अभी कुछ दिन पहले ही उत्तर प्रदेश से निकली है। कांग्रेस की तरफ से अखिलेश यादव को यात्रा में शामिल होने का न्योता दिया गया था। लेकिन अखिलेश यादव ने ये बोलकर टरका दिया कि वे इस यात्रा के साथ सिर्फ भावनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं। यानी कि उन्होंने कांग्रेस को यूपी में किसी भी तरह का सियासी साथ नहीं दिया।2017 के चुनाव में जरूर ‘ये साथ पसंद है’ कहा गया था। लेकिन अब 2024 के रण के लिए सपा अपनी खुद की सियासी पिच तैयार कर रही है। इस पिच में केसीआर को खेलने का मौका दिया जा रहा है, सीएम नीतीश कुमार को भी मौका मिल सकता है, लेकिन अभी तक कांग्रेस की नो एंट्री है।

केसीआर की रैली और थर्ड फ्रंट को लेकर अखिलेश यादव ने भी दो टूक जवाब दिया है। वे कहते हैं कि लोकसभा के लिए एक फ्रंट बनने की आवश्यकता है जिसे लेकर ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, ओम प्रकाश चौटाला और केसीआर जैसे नेता प्रयास कर रहे हैं। अब अखिलेश का ये बयान बताने के लिए काफी है कि वे थर्ड फ्रंड को लेकर काफी गंभीर हैं। वे मानकर चल रहे हैं कि अगर 2024 में बीजेपी के विजय रथ को रोकना है तो इन तीन नेताओं में से किसी को बड़ी भूमिका निभानी पड़ेगी। वैसे केसीआर की रैली में अखिलेश का जाना ज्यादा हैरान भी नहीं करता है। समाजवादी पार्टी का इतिहास बताता है कि एक समय तक दक्षिण की राजनीति में पार्टी की सक्रिय भूमिका रही है। सपा विचारधारा दक्षिण से निकली है, गोवा ही वो पहला राज्य था जहां पहली सपा सरकार (सोशलिस्ट पार्टी) बनी थी । गोवा को पुर्तगालियों से राम मनोहर लोहिया ने आजाद करवाया था, गोवा की आजादी की लड़ाई लोहिया ने लड़ी थी । समाजवादी पार्टी की शुरुआत भी दक्षिण से ही हुई।

सपा सूत्रों के मुताबिक, महाराष्ट्र एक समय पर सपा के आंदोलन का केंद्र रहा, जॉर्ज फर्नांडिस ने इस आंदोलन को लीड किया था। वहीं जिस तरह देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने और मुलायम सिंह रक्षा मंत्री बने तब कांग्रेस ने समर्थन दिया था और तभी थर्ड फ्रंट की सरकार बनी थी । सपा के कुछ नेता यह मानते हैं कि देश में अभी जो माहौल है, वो एंटी बीजेपी और एंटी कांग्रेस है, बीजेपी की सरकार को हटाने के लिए जो लोग ठीक समझेंगे, वो थर्ड फ्रंट के साथ आगे आएंगे, फिर चाहे अंदर से आए या बाहर से, लेकिन 2024 में जो भी सरकार बनेगी, वो मिली जुली वाली रहेगी, कई विपक्षी दल साथ आएंगे । प्रधानमंत्री कौन होगा, उस पर फैसला बाद में हो सकता है.

मोदी की चुनावी राह के बड़े रोड़े

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने 2014 और 2019 के आम चुनावों में लगातार जीत हासिल करके एक इतिहास रचा, जो 50 साल से अधिक पहले 1971 में इंदिरा गांधी द्वारा हासिल की गई उपलब्धि के समान था। हालांकि, जब विधानसभा चुनाव की बात आई तो राज्यों में भाजपा को सत्तारूढ़ कराने की प्रधानमंत्री की क्षमता पर संदेह जताया जाने लगा।

2018 और 2021 के बीच हुए 23 राज्यों के चुनावों में, भाजपा ने एकमात्र सीधी जीत अपेक्षाकृत छोटे पूर्वोत्तर राज्य त्रिपुरा में ही हासिल की। उसे बाकी जीत, चाहे वह महाराष्ट्र, बिहार, तीन पूर्वोत्तर राज्यों या पुदुच्चेरी में हों, अन्य दलों के साथ गठबंधन में मिलीं। 2022 में, जब भाजपा ने उत्तर प्रदेश, गुजरात और उत्तराखंड में तीन अच्छी जीत दर्ज की, तब मोदी का जादू पूरे रंग में नजर आया। यह भाजपा के लिए अच्छी खबर है लेकिन हिमाचल प्रदेश में आंतरिक फूट के कारण मिली हार ने पार्टी को अंदरूनी गुटबाजी के खतरे की गंभीरता से आगाह कर दिया है।

2023 में नौ राज्यों में चुनाव होने हैं और इनमें न केवल भाजपा के लिए बल्कि कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के लिए भी बहुत कुछ दांव पर लगा है। इन राज्यों में बड़ी जीत मोदी और भाजपा के लिए 2024 के आम चुनाव की सबसे बड़ी दावेदार बना देगी। हालांकि मोदी की लोकप्रियता ऊंचाई पर बनी हुई है, लेकिन एक चरमराती अर्थव्यवस्था, महंगाई और बेरोजगारी जैसे प्रश्न भाजपा की चुनावी किस्मत पर ग्रहण लगा सकते हैं।

मोदी के लिए फायदे की बात यह है कि चाहे वह अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो या कश्मीर में धारा 370 हटाना, हिंदुत्व के मोर्चे पर कामयाबी हासिल करने के बाद वे विकास के प्रमुख मुद्दों पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं जो राष्ट्रीय मुद्दों को लेकर पार्टी की पकड़ मजबूत करने में मददगार होंगे। इस साल जी-20 में भारत की अध्यक्षता उनके लिए एक अतिरिक्त उपलब्धि होगी। इस बीच, विपक्ष की स्थिति डांवाडोल है। हालांकि पंजाब से अकाली दल बिहार से नीतीश तथा महाराष्ट्र शिवसेना उससे छिटक कर दूर हो गई है। हिमाचल में पार्टी की मनोबल बढ़ाने वाली जीत के बाद आगामी राज्य चुनाव राहुल गांधी और कांग्रेस के लिए एक बड़े पुनरुद्धार का आखिरी बड़ा मौका हो सकता है।

इनसे यह भी पता चल जाएगा कि राहुल की भारत जोड़ो यात्रा का कोई राजनैतिक प्रभाव पड़ा है या नहीं। अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के लिए, 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव मायने नहीं रखेंगे क्योंकि इनमें से अधिकांश राज्यों में उनकी उपस्थिति नगण्य है लेकिन वे पंजाब में जहां वे पिछले साल सत्ता में आए थे और अपने गढ़ दिल्ली में कितना अच्छा शासन दे पाते हैं, उससे उनकी क्षमता का आकलन होगा। दक्षिण में के. चंद्रशेखर राव की अध्यक्षता वाली बड़ी क्षेत्रीय पार्टी, भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) को अपने और अपने नेता के अस्तित्व के लिए आगामी तेलंगाना चुनाव में जीत की आवश्यकता होगी । दो हजार तेइस में होने वाले राज्य के चुनावों को चार प्रमुख लड़ाइयों में बांटा जा सकता है। जिनमें से प्रत्येक का अलग-अलग प्रभाव होगा। पहला घमासान पूर्वोत्तर राज्यों त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड में होगा जिसकी शुरुआत फरवरी में होगी. भाजपा और उसके सहयोगियों के लिए यहां कोई भी जीत प्रतीकात्मक होगी।

सबसे ज्यादा नजर त्रिपुरा पर रहेगी जहां पार्टी के सामने सत्ता बरकरार रखने की चुनौती होगी। बढ़ती सत्ता-विरोधी लहर के कारण बिप्लब कुमार देब की जगह माणिक साहा को मुख्यमंत्री बनाया गया था। अगर भाजपा इन तीनों चुनावों में जीत हासिल करती है, तो वह क्षेत्र में प्रभुत्व बनाए रखने में सफल होगी। यह उसके लिए एक उल्लेखनीय उपलब्धि इसलिए भी है क्योंकि मात्र छह साल पहले, वह कांग्रेस थी जो इस क्षेत्र की राजनीति की दिशा तय करती थी।

दूसरी लड़ाई अपेक्षाकृत बड़ी है, जो मई में कर्नाटक में होने वाली है। यह एकमात्र दक्षिणी राज्य है जहां अभी भाजपा का शासन है जबकि अन्य चार बड़े दक्षिणी राज्यों में इसकी उपस्थिति नगण्य है। हालांकि कर्नाटक में भी इसकी पकड़ कमजोर है। 2018 के चुनाव में, भाजपा 104 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी-224 के सदन में साधारण बहुमत से नौ कम-लेकिन 80 सीटों वाली कांग्रेस और 37 सीटें जीतने वाले जनता दल (सेक्युलर) ने गठबंधन करके सरकार बना ली। एक साल बाद, भाजपा ने कांग्रेस में दल-बदल कराकर अपनी सरकार बना ली और बी.एस. येदियुरप्पा मुख्यमंत्री बने।

दो साल बाद, जुलाई 2021 में, बढ़ते सत्ता विरोधी रुझान को टालने के लिए भाजपा ने येदियुरप्पा को हटाकर बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाया । बोम्मई के लिए अब भाजपा को जीत की ओर ले जाना बहुत मुश्किल कार्य लग रहा है क्योंकि राज्य में पार्टी के नेता उनके पीछे पूरे मन से खड़े नजर नहीं आते। कांग्रेस में भी उसके दो शीर्ष नेताओं पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष डी.के. शिवकुमार के बीच अंदरूनी कलह चरम पर है । अगर दोनों एकजुट होकर चले तो कांग्रेस के पास जीतने का अच्छा मौका है। इससे पार्टी को इसके बाद होने वाले राज्य चुनावों में भाजपा से मुकाबला करने के लिए गति और धन दोनों मिल सकता है।

कर्नाटक चुनाव के नतीजे का 2023 के अंत में होने वाली तीसरी बड़ी लड़ाई पर महत्वपूर्ण असर पड़ेगा, जब मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनाव होंगे। 2018 में, कांग्रेस ने तीनों राज्यों में जीत हासिल करके भाजपा को चौंका दिया, लेकिन वह उसका लाभ गंवा चुकी है।

इसने मध्य प्रदेश को भाजपा के हाथों गंवा दिया जब इसके बहुत से नेताओं ने दलबदल करके कमलनाथ की सरकार गिरा दी । शिवराज सिंह चौहान का मुख्यमंत्री के रूप में यह चौथा कार्यकाल है। सत्ता विरोधी लहर के साथ पार्टी में नेतृत्व की लड़ाई भी उतनी ही तेज चल रही है। हालांकि, संगठनात्मक रूप से भाजपा कांग्रेस के मुकाबले बहुत मजबूत बनी हुई है। राजस्थान में, कांग्रेस मुश्किल में है. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व डिप्टी सचिन पायलट अभी भी एक-दूसरे के साथ युद्ध की मुद्रा में ही हैं।

वैसे हालात भाजपा के भी कुछ अच्छे नहीं हैं ।‌पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और गजेंद्र सिंह शेखावत के बीच नेतृत्व को लेकर चल रही खींचतान से पार्टी की एकजुटता पर असर पड़ रहा है । छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने के लिए भाजपा अब तक एकजुट नहीं हो पाई है।

ये तीन राज्य 2024 के आम चुनाव की दौड़ में महत्वपूर्ण हैं और जो पार्टी उन्हें जीतेगी हवा उसके पक्ष में बनेगी। भाजपा तर्क दे सकती है कि 2018 में इन तीन राज्यों को खोने के बावजूद, उसने 2019 के आम चुनाव में अपनी अधिकांश लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की। लेकिन यह आंशिक रूप से इसलिए भी था क्योंकि पुलवामा हमले के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे हावी हो गए थे और जो माहौल बना था उससे मतदाता मोदी के साथ खड़े हो गए. 2024 के लिए ऐसी कोई गारंटी नहीं है।

चौथी बड़ी लड़ाई तेलंगाना के लिए होगी, जहां भाजपा बड़ी बढ़त बनाने में कामयाब रही है, लेकिन वह तीसरे कार्यकाल के लिए मैदान में उतर रहे चालाक केसीआर और उनकी पार्टी, बीआरएस के प्रभुत्व को खत्म करने के लिए शायद पर्याप्त नहीं है । इससे बेफिक्र, भाजपा केसीआर को सत्ता से हटाने के लिए पूरी ताकत झोंक रही है, क्योंकि यह राज्य उसके लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बनता जा रहा है। उसके बाद उसकी परीक्षा हरियाणा में होगी। पिछली बार हरियाणा में अपने बलबूते पर सरकार बनाने वाले मोदी इस बार वह करिश्मा नहीं दिखा पाए और उन्हें गठबंधन की सरकार को मंजूरी देनी पड़ी।

चाहे वह पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस हो, ओडिशा में बीजू पटनायक की बीजू जनता दल हो, आंध्र प्रदेश में वाइ.एस. जगन मोहन रेड्डी की वाइएसआर कांग्रेस पार्टी हो या तेलंगाना में केसीआर की बीआरएस हो, इन सभी ने अपने-अपने राज्य में लाख कोशिशों के बावजूद एक बार भी भाजपा की दाल नहीं गलने दी है।

क्षेत्रीय दल पार्टी की दुखती रग बने हुए हैं।‌हालांकि इनमें से कुछ राज्यों में अच्छा प्रदर्शन करते हुए कांग्रेस को हटाकर भाजपा प्रमुख प्रतिद्वंद्वी दल बन गई है लेकिन क्षेत्रीय ताकतों को हराना सबसे बड़ी चुनौती है। बिहार में जद (यू) के नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ सत्तारूढ़ गठबंधन से बाहर निकलकर राजद के तेजस्वी यादव के साथ हाथ मिला लिया है और वहां भाजपा के लिए राहें मुश्किल होंगी।

महाराष्ट्र में, भाजपा ने भले ही शिवसेना को तोड़कर सत्ता में वापसी की हो, लेकिन वह अभी पूर्ण नियंत्रण से दूर है. शिवसेना से अलग हुए धड़े और भाजपा की मिली जुली सरकार कितनी टिकाऊ होगी, यह इस साल मुंबई/ठाणे में होने वाले निकाय चुनाव के नतीजों पर निर्भर करेगा, जो यह तय करेगा कि असली शिवसेना कौन है।

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