सुरेश गोयल धूप वाला

देश के सर्वोच्च न्यायालय मे केन्द्र सरकार ने धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम और ईसाई बने अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण का लाभ न दिए जाने को लेकर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए शपथ पत्र दिया है। आशा की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट गहराई से इस विषय में चिंतन करते हुए अपना फैसला देगा कि दलित समाज के जो लोग मुस्लिम या ईसाई बने है, उन्हें अनुसूचित जाति के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए या नही।

सरकार का यह तर्क पूरी तरह सही है कि जब दलित समाज के लोग धर्म परिवर्तन यह कह कर करते है कि उन्हें छुआ -छूत का सामना नही करना पड़ेगा। जिन दलित समाज के लोगो ने अपना धर्म परिवर्तन कर ही लिया है तो उन्हें अल्पसंख्यक होने का लाभ भी मिले व दलित होने का लाभ भी मिले यह कहाँ तक संभव है। दलित वर्ग व पिछड़ा वर्ग को संविधान में उनका जीवन स्तर ऊपर उठाने के उद्देश्य से आरक्षण की व्यवस्था की गई है यदि धर्मान्तरित लोगो को आरक्षण का लाभ दिया जाएगा तो जाहिर है उनके अधिकारों की हानि तो होगी ही ।

वास्तव में दोहरा लाभ लेने के उद्देश्य से ही धर्म परिवर्तन का कदम उठाते हैं। हकीकत यह है कि जो लोग धर्म परिवर्तन करते है, बाद में वे भारत राष्ट्र की मूल जड़ों से अलग होते जाते हैं।

धर्म परिवर्तन कर हिन्दू धर्म से मुसलमान बने एक हजार वर्षों का इतिहास साक्षि है कि वे राष्ट्र की मूलधारा से कटते चले गए।पाकिस्तान मजहब के नाम पर अलग राष्ट्र बना जबकि सयुंक्त भारत के अधिकतर मुस्लिमों के पूर्वज हिन्दू ही थे। एक तरफ तो मुस्लिम और ईसाई धर्म गुरु इस बात का ढिंढोरा पीटते नही थकते की हमारे धर्म मे जात-पात का कोई भेद है ही नही, परंतु दूसरी ओर जाति के नाम पर आरक्षण का लाभ भी प्राप्त करना चाहते हैं। यह दोहरी नीति किसी भी सूरत में कैसे स्वीकार की जा सकती है ?

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