भारत सारथी/ऋषि प्रकाश कौशिक

गुरुग्राम। गुरुग्राम में निकाय चुनाव की आहट से राजनैतिक सरगर्मियां बढ़ती नजर आ रही हैं। एक प्रकार से कहें कि सभी पार्टियों के रंग सामने आने लगे हैं। निगम चुनाव में हिस्सा लेने के इच्छुक व्यक्ति अपनी ओर से अपनी सुविधानुसार माहौल बनाने का प्रयास करने लगे हैं। नजर डालते हैं थोड़ा-थोड़ा तीनों पार्टियों पर—

भाजपा

भाजपा सत्तारूढ़ पार्टी है और निगम चुनाव उसके सम्मान का प्रश्न है, क्योंकि निगम चुनावों से बना माहौल लोकसभा चुनाव पर अवश्य असर डालेगा और भाजपा 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुटी चुकी है। जैसा कि मैंने पहले भी लिखा था कि चुनाव की संभावना 2023 से पूर्व नहीं है। मैं उस बात पर कायम हूं और बात वही कि निगम चुनाव का सीधा असर लोकसभा चुनाव पर पड़ेगा।

भाजपा की स्थिति कांग्रेस से भिन्न नहीं। भाजपा में भी अलग-अलग शक्ति केंद्र बने हुए हैं, जिनमें मुख्यमंत्री, प्रदेश अध्यक्ष, आरएसएस आदि के नाम तो प्रदेश स्तर पर लिए जा सकते हैं। जिले में जिला अध्यक्ष, विधायक एवं केंद्र, सांसद आदि से आशीर्वाद प्राप्त अलग-अलग ढपली बजा रहे हैं और इसका जनता में सामने आना शायद निगम चुनावों की गहमागहमी में हो जाएगा। 

मेयर का उम्मीदवार कौन होगा?

गुरुग्राम में अटकलों का दौर जारी है, मेयर के नाम के लिए कई दिग्गजों के नाम भी सामने आ रहे हैं। मैंने कहीं पढ़ा और सुना कि पूर्व सांसद सुधा यादव भी मेयर के चुनाव की तैयारी में हैं। मैंने उनसे इस बात की सत्यता जानने के लिए संपर्क किया तो उनसे उत्तर मिला कि मैं निगम चुनाव लडऩे के बारे में सपने में भी नहीं सोच सकती। मुझे नहीं पता मेरा नाम कहां से और किसने क्यों लिखा है। इसी प्रकार यह बात बताने का अर्थ यह है कि फिलहाल अटकलों का दौर जारी है।

असली जो चुनाव लडऩा चाहते हैं या कहें लड़ेंगे, वह तो अभी चुप्पी साधे हुए हैं और हाईकमान में अपनी गोटियां बिठाने में लगे हैं। भाजपा के आम कार्यकर्ता को यह भी नहीं समझ में आ रहा कि टिकट का बंटवारा प्रभारी और निकाय मंत्री कमल गुप्ता करेंगे या प्रदेश अध्यक्ष ओमप्रकाश धनखड़ या फिर मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर या फिर राव इंद्रजीत के आशीर्वाद से टिकट मिलेगी? तात्पर्य यह कि अभी बहुत कुछ खुलना बाकी है, आगे करेंगे चर्चा।

कांग्रेस

कांग्रेस की बात करें, क्या कहें। गुरुग्राम में कहीं कांग्रेस नजर तो आती नहीं। हाल ही में हुए निकाय चुनावों में भी कांग्रेस कहीं उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाई लेकिन उनके नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा जिन्हें हाईकमान ने हरियाणा की कमान सौंप रखी है, उनका कहना है कि निकाय चुनाव में हमें 52 प्रतिशत मत मिले हैं, जबकि भाजपा को 26 प्रतिशत मिले। 

धरातल पर देखें तो गुरुग्राम में कांग्रेस की ओर से मेयर के चुनाव की तो बात क्या करें, पार्षदों के लिए उम्मीदवार दिखाई दे नहीं रहे हैं। प्रदेश अध्यक्ष उदयभान ने जब कमान संभाली तो दावा किया था कि दो महीने में संगठन बना देंगे और अभी तक कहीं से ऐसे समाचार नहीं मिल रहे कि कांग्रेस में संगठन बनाने के लिए कुछ चल रहा है। हां, यह अवश्य कि एक लिस्ट प्रवक्ताओं की भूपेंद्र सिंह हुड्डा या यूं कहें कि प्रदेश अध्यक्ष उदयभान ने जारी की थी, जिस पर कांग्रेस हाईकमान रोक लगा दी थी। उसके पश्चात अभी तक कोई बात सुनने में नहीं आई है। 

वर्तमान में तो चर्चा राज्यसभा चुनाव की ही चल रही है कि कांग्रेस 31 विधायक होते हुए भी अपना उम्मीदवार बना नहीं पाई। एक वोट तो सर्वविदित है कि जो डंके की चोट कुलदीप बिश्नोई ने नहीं दिया लेकिन एक वोट जो कैंसिल हुआ, वह किसका यह भी अब तक विधायक दल के नेता और हरियाणा प्रभारी पता नहीं कर पाए। ऐसे में जनता कांग्रेस पर कितना विश्वास करेगी, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। संभव है इसमें कांग्रेस के एक होने के प्रचार को और बड़ा धक्का लगे।

आप पार्टी

केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने के समय से ही हरियाणा में आप का अस्तित्व नजर आने लगा था लेकिन अपना कोई प्रभाव वह हरियाणा में छोड़ नहीं पाई थी। पंजाब चुनाव के परिणाम आते ही आप पार्टी का आत्मविश्वास शिखर पर दिखाई देने लगा। समझ नहीं आ रहा था कि एकदम जैसे गुब्बारे में हवा भरी जाती है, ऐसे ही इनका विश्वास कैसे बन गया? तब भी मैंने कहा था कि इस प्रकार के आत्मविश्वासों को धराशाही होने में देर नहीं लगती। निकाय चुनावों के परिणामों ने उन्हें धरातल पर ला दिया लेकिन पहले से अच्छी स्थिति में है। इनके पक्ष में यह बात जाती है कि आम जनता भाजपा और कांग्रेस दोनों से परेशान ही है, क्योंकि भाजपा के नेता सरकार में होते हुए भी जनता से कटे हुए हैं और कांग्रेस के नेता विपक्ष में होने पर भी अपने नेताओं की ही चिलम भरते नजर आते हैं। जनता से दोनों के नेताओं को सरोकार नजर नहीं आता। इसका लाभ आप पार्टी उठा सकती थी या कहें कि उठा सकती है।

जैसा कि ऊपर कहा कि भाजपा में कई शक्ति केंद्र बने हुए हैं और कांग्रेस में एक शक्ति केंद्र बना है बाकी निष्क्रिय हैं। ऐसा ही कुछ आप पार्टी में भी नजर आता है। न तो इनकी प्रदेश कार्यकारिणी गठित हो पा रही है, न जिला कार्यकारिणी में पता लगता कि पार्टी कौन चला रहा है। केवल यह दिखाई देता है कि राज्यसभा सांसद और हरियाणा प्रभारी सुशील गुप्ता ही पार्टी के सर्वेसर्वा हैं। नाम अशोक तंवर, अनुराग ढांडा आदि के भी लिए जाते हैं परंतु लगता नहीं कि उनके ऊपर कोई व्यक्तिगत जिम्मेदारी किसी काम की है। लगता केवल यही है कि सर्वेसर्वा सुशील गुप्ता ही हैं।

अब गुरुग्राम की बात करें तो गुरुग्राम में भी इनके कई केंद्र नजर आते हैं। कहीं जिला अध्यक्ष, कहीं अभय जैन, कहीं सरपंच वीरू और पूर्व विधायक इनका बिना किसी संदेह कहा जा सकता है कि इनका सबसे अधिक जनाधार है। इनकी चुप्पी अपने आपमें बहुत कुछ संदेश दे देती है। ऐसे में लगता नहीं कि गुरुग्राम निगम चुनाव आप पार्टी कहीं अपना स्थान बना पाएगी। अनुमान है देखिए आगे-आगे होता है क्या। हमें जो जानकारी मिल रही हैं कि आज आप पार्टी में जो नवीन दहिया शामिल हुए हैं, उन्हें पहले ही उनके वार्ड से पार्षद का चुनाव लडऩे की इजाजत दे दी है। अनुमान लगाइए होना है क्या।

निगम चुनाव गुरुग्राम में शायद व्यक्तिगत जनाधार वाले लोग ही सफलता प्राप्त कर पाएंगे। यह दूसरी बात है कि कोई पार्टियां व्यक्तिगत जनाधार वाले व्यक्ति को अपना उम्मीदवार घोषित कर दे लेकिन यह बात आप और कांग्रेस पर तो लागू हो जाएगी। वैसे कांग्रेस में भूपेंद्र सिंह हुड्डा चुनाव चिन्ह पर चुनाव लडऩे की हिम्मत जुटा पाएंगे, यह चर्चाकार मानते नहीं हैं। अत: यह परीक्षा सबसे बड़ी भाजपा की ही होगी कि किस प्रकार अपनी पार्टी एकजुट रख पाएगी?