बीके मदन मोहन……….ब्रह्माकुमारीज, ओम शांति रिट्रीट सेंटर

गुरुग्राम – श्रीमद भगवत गीता वास्तव में सम्पूर्ण जीवन दर्शन का शास्त्र है। गीता आध्यात्मिक जीवन शैली को दर्शाता है। गीता ज्ञान समग्र मानवता को एकत्व भाव प्रदान करता है। भगवत गीता ही ऐसा शास्त्र है जिसमे भगवानुवाच है। कहते हैं कि ‘सा विद्या या विमुक्तये’। ज्ञान वो है जो मुक्ति प्रदान करे। मुक्ति का ज्ञान भी वही दे सकता है, जो पहले स्वयं मुक्त हो। इसलिए ये तो सर्वदा सत्य है कि गीता ज्ञान दाता एक परमात्मा के सिवाए कोई और नहीं हो सकता। गीता में वर्णित अध्याय 15 का छठा श्लोक जो इस प्रकार है – न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः। यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥ इसमें परमात्मा स्वयं अपने धाम के बारे में कहते हैं – “मेरे रहने का धाम, परमधाम सबसे श्रेष्ठ है। उस धाम को सूर्य, चंद्र और अग्नि भी प्रकाशित नहीं कर सकते। उसका अपना ही प्रकाश है। वहाँ जाने के बाद आत्मा जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाती है। इससे ये सिद्ध होता है कि परमात्मा सदा मुक्ति की अवस्था में हैं। इसलिए हमें मुक्ति का मार्ग दर्शाते हैं।

श्रीमद भगवत गीता कराती है आत्म बोध

गीता आध्यात्मिक शास्त्र होने के कारण आत्मा का सच्चा बोध कराती है। गीता ज्ञान व्यक्ति को उसके मूल स्वरूप और मूल गुणों की स्मृति दिलाता है। जब गीता में स्वधर्म की बात आती है तो उसका सीधा सा अर्थ आत्मा के धर्म से है। गीता के अध्याय 3 का 35 वां श्लोक जो इस प्रकार है – श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मतस्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावह॥ जिसका भावार्थ है कि स्वधर्म अर्थात आत्मा का धर्म सबसे श्रेष्ठ है जबकि प्रकृति अर्थात शरीर का धर्म इसके विपरीत है। आत्मिक स्मृति में शरीर छोड़ना सुखद है और दैहिक स्मृति में रह शरीर छोड़ना भयावह है। इससे सिद्ध है कि गीता हमें आत्मा के मूल स्वरूप में स्थित होने का संदेश देती है। हमारी सत्य पहचान ही आत्मा है, देह तो आत्मा का वस्त्र है।

गीता ज्ञान देता है सत्य और अहिंसा का दिव्य संदेश

श्रीमद भगवत गीता में जब युद्ध की बात आती है तो सामान्य व्यक्ति उसे दैहिक युद्ध समझने लगता है। लेकिन गीता में वर्णित युद्ध वास्तव में दैहिक नहीं बल्कि आत्म स्वरूप में स्थित होने के लिए मनोविकारों से मुक्त होने का पुरुषार्थ है। वैसे भी गीता ज्ञान के अनुसार आत्मा अपना मित्र भी स्वयं है और शत्रु भी स्वयं है। जब आत्मा का कोई शत्रु ही नहीं है तो युद्ध का प्रश्न ही नहीं उठता। आत्मा की शत्रु कोई दूसरी आत्मा नहीं है। आत्मा के असली शत्रु काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जैसे पांच विकार हैं। गीता के अध्याय 16 के 21वें श्लोक के अनुसार – त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः। कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।। काम, क्रोध और लोभ ये तीन नरक के द्वार हैं। इन तीन दैत्यों को मारने को कहा गया है। गीता ज्ञान हमें सत्य और अहिंसा का दिव्य संदेश देता है। इसलिए महात्मा गांधी जी ने गीता के अध्ययन से ही सत्य और अहिंसा को जीवन में अपनाया। उन्होंने ये भी कहा कि मैं समझता हूं – गीता का ज्ञान किसी युद्ध के मैदान में नहीं बल्कि तपोवन में दिया गया।

गीता ज्ञान से हुई सत्य धर्म की स्थापना

आज की दुनिया में जितने भी धर्म हैं – सभी देह के धर्म हैं। दैहिक धर्मों के कारण ही भिन्नता के भाव पैदा हुए हैं। व्यक्ति जिस धर्म, जाति और देशकाल में पैदा होता है, उन मान्यताओं का गहरा प्रभाव उसके अंदर छप जाता है। उन मान्यताओं को ही व्यक्ति अपना धर्म समझ लेता है। अपनी-अपनी मान्यताओं को श्रेष्ठ समझकर उन्हें दूसरों पर थोपने का प्रयत्न करने लगता है। यहीं से धर्म, अधर्म का रूप लेने लगता है। इसलिए गीता में अध्याय 4 के श्लोक 7 में इसका वर्णन है – यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ जब धर्म की ग्लानि होती है, तब स्वयं परमात्मा का दिव्य अवतरण होता है। इसका वास्तविक अर्थ है कि जब मानव, आत्मा के स्वधर्म को भूल देह के अनेक धर्मों में फंस जाता है। प्रकृति के पांच तत्वों के प्रभाव में आकर काम, क्रोध, लोभ, मोह और अंहकार के वश हो जाता है, तब परमात्मा आकर उसे उसकी सत्य पहचान देते हैं। गीता ज्ञान से ही वास्तव में आदि सनातन देवी देवता धर्म की स्थापना हुई थी। सनातन धर्म वास्तव में आत्मनिष्ठ धर्म था। लेकिन समयानुसार दैहिक स्वरूप की प्रधानता होती गई और मानव अनेक धर्मों में बंटता चला गया। आज अगर हम सभी गीता के उस आध्यात्मिक मर्म को समझ लें। और उसके संदेश को जीवन में अपना लें तो विश्व में एकता स्थापन हो जायेगी।

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