परिश्रम की पराकाष्ठा करके हमने भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वो हैसियत हासिल कर ली है, जो पाकिस्तान की हुआ करती थी।
पकड़े जाने पर पपलुओं को पहचानने से इनकार करना संघ की पुरानी परंपरा 
बोया पेड़ बबूल का आम कहां से खाए…

अशोक कुमार कौशिक

 मैं वैसे तो किसी भी पार्टी का कार्यकर्ता नही हूँ लेकिन जो हुआ उसका विरोध करता हूं । नूपुर मिश्रा भारत मे रहती है  उसने धर्म के पैगम्बर के बारे में गलत बोला जो कि सच मे गलत है, लेकिन क्या इसकी सजा पूरे भारत के  व्यापारियों को मिलनी चाहिये जिनके प्रोडक्ट अरब देशों में बिकते है ?

अब बात यहाँ पर सिर्फ इस्लाम धर्म की नही है क्योंकि सऊदी अरब के निजी मामलों पर जब हम दखल नहीं देते है तो वो हमारे देश  के निजी मामलों में दखल क्यों ?  इस हिसाब से अगर कभी भी आतंकवादी हमला होता है तो हम सऊदी अरब को बॉयकॉट करना शुरू कर दे ? शायद सऊदी अरब को घमंड है कि वो तेल के कुएं से तेल भारत मे देने से मना कर देगा तो भारत वासी पागल हो जायेंगे। तो उसकी ये सोच गलत है क्योंकि  2030 तक भारत में इलेक्ट्रीसिटी वाहन होने उसके बाद सऊदी अरब  का क्या होगा? वैसे सऊदी अरब का साम्राज्य जल्द खुद ही अंत की ओर बढ़ रहा है।

एक वाकया 1994 का है। सिंगापुर की यात्रा पर गये  पी.वी.नरसिंहराव वहाँ के पीएम के साथ साझा प्रेस काँफ्रेंस कर रहे थे। जिन लोगों की पैदाइश या यादाश्त 2014 के बाद की है, उनके लिए बता देना आवश्यक है, प्रेस काँफ्रेंस सामान्य परंपरा रही है, जो बताती है कि लोकतंत्र जिंदा है।

तो प्रेस काँफ्रेंस चल रही थी और दुनिया भर के पत्रकार सवाल पूछ रहे थे। अचानक एक आदमी उठा और उसने अपना परिचय दिया- मैं सिंगापुर की पाकिस्तानी एंबेसी का फर्स्ट सेक्रेटरी हूँ और मेरा सवाल कश्मीर पर है।नरसिंहराव ने पूरा सवाल ध्यान से सुना और जवाब दिया- आप जो कुछ कह रहे हैं, वह तथ्यात्मक रूप से गलत है लेकिन इससे ज्यादा बड़ी बात ये है कि अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की अपने तौर-तरीके और मर्यादा है। सरकार के स्तर पर पाकिस्तान से हमारी बातचीत होती रहती है। मुझे समझ में नहीं आया कि आप इस तरह कहाँ से टपक पड़े?

हॉल में जोरदार ठहाका लगा और सिंगापुर के पीएम ने कहा- नेक्स्ट क्वेश्चन प्लीज एंड रिबेंबर आई डोंट वांट एनी पाकिस्तानी। पाकिस्तानी मीडिया ने उस राजनायिक को नेशनल हीरो बनाया लेकिन सड़क छाप हरकत के लिए पूरी दुनिया में पाकिस्तान की थू-थू हुई थी।

यह सब सुनकर जिन्हें बहुत आनंद आ रहा है, उन्हें यह जानकर और भी आनंद आएगा कि परिश्रम की पराकाष्ठा करके  हमने भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वो हैसियत हासिल कर ली है, जो पाकिस्तान की हुआ करती थी।

सुब्रमहण्यम स्वामी की उटपटांग बयानबाजी के बाद मालदीव ने भारतीय राजदूत को तलब किया था, यह घटना बहुत से लोगों को याद होगी। मालदीव वही देश है, जहाँ हुए तख्ता-पलट को भारत ने छह घंटे के भीतर खत्म किया था। अब आप मालदीव जाकर देखिये सड़क से वहाँ की संसद तक हर जगह भारत विरोधी बातें सुनने को मिलेंगी।

नेपाल लगातार आँखें दिखा रहा है। बांग्लादेश यह ज्ञान दे रहा है कि लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता का सम्मान किस तरह किया जाता है। ये बात हुई पड़ोसी देशों की, अब आते हैं, पूरी दुनिया पर क्योंकि डंका और ज़ोर से बज रहा है।

खाड़ी के देशों के साथ भारत के शुरू से अत्यंत मैत्रीपूर्ण संंबंध रहे हैं। इस देश करोड़ों परिवार गल्फ से आनेवाले पैसे पर निर्भर हैं। इन देशों से कभी भारत विरोधी आवाज़ सुनने को नहीं मिली है।

बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के बाद जब पूरे दक्षिण एशिया में दंगे हो रहे थे, तब खाड़ी देशों ने वहाँ रहने वाले लाखों भारतीयों की जान-माल की हिफाज़त की थी और कहीं से भी एक घटना तक सुनने को नहीं मिली थी। आज इन्हीं खाड़ी देशों में भारत सरकार की थू-थू हो रही है। ईरान और कतर जैसे देश ने राजदूत को तलब किया है।  कई और जगहों से विरोध प्रदर्शनों की ख़बरे हैं। आखिर ये सब क्यों हो रहा है?

ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान यह मानता है कि एक के बाद एक करके चुनाव जीतते चले जाना ही असली काम है और इसके अलावा कुछ और करने की ज़रूरत नहीं है। सांप्रादायिक उग्रता को प्रसार से समाज का ध्रुवीकरण होगा तो चुनाव में फायदा होगा लेकिन देश का क्या होगा?

बीजेपी की सरकारें पहले भी आई थीं। अटल बिहारी वाजपेयी कहा करते थे। विदेश नीति और अर्थनीति पर इस देश हमेशा से एकजुट रहा है। वाजपेयी ये क्यों कहते थे? वे जानते थे कि अंतराष्ट्रीय स्तर पर भारत का जो एक स्वतंत्र व्यक्तित्व है, उसे बनाने में पुरखे राजनेताओं ने अथक श्रम लगाया है। जिम्मेदार सरकारें जानती हैं एक सभ्य और लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत की छवि और अगर धूमिल होती है तो इसका असर अर्थव्यवस्था और दुनिया हर कोने में रहने वाले करोड़ों अप्रवासी भारतीयों पर पड़ेगा। लेकिन क्या इन बातों की कोई चिंता है?

बीजेपी के नये-नवेले पोस्टर ब्वाय तेजस्वी सूर्या ने कुछ साल पहले इस्लामिक देशों की महिलाओं के यौन जीवन से संबंधित एक बेहद अभद्र टिप्पणी की थी। इसे लेकर ज़बरदस्त नाराज़गी देखने को मिली थी।

पैगंबर मुहम्मद के बारे में बीजेपी की प्रवक्ताओं की ताजा बयानबाजी का नतीजा यह है कि भारत के पीएम की तस्वीर को खाड़ी देशों में जूतों का हार पहनाया जा रहा है। यह भी सत्तर साल में पहली बार हुआ है। ठीक है कि बीजेपी ने दोनों प्रवक्ताओं को निकाल दिया लेकिन पकड़े जाने पर पपलुओं को पहचानने से इनकार करना तो संघ की पुरानी परंपरा है। क्या बीजेपी और सरकार की नीति में कोई आमूल बदलाव आएगा?

वैसे भाजपा ने नूपुर शर्मा और नवीन जिंदल को पार्टी से निलंबित कर दिया है। इन दोनों ने पैगम्बर मोहम्मद साहेब का अपमान करने वाले बयान दिए थे। इनके बयानों का खंडन भी जारी कराया गया है।

खबर है कि इस टिप्पणी के बाद अरब देशों में भाजपा प्रवक्ता के बयान को लेकर तीखी प्रतिक्रिया हुई। भारतीय कंपनियों का बहिष्कार शुरू हो गया। वहां काम कर रहे भारतीयों पर नौकरी छोड़ने का दबाव बनाया जाने लगा था। सऊदी अरब, पाकिस्तान समेत कई देशों के लोगों ने विश्व व्यापी ट्विटर ट्रेंड चलाया। खाड़ी देशों में कूड़ाघरों पर मोदी के पोस्टर लगा कर उन पर जूते छापे गए। 

इसके बाद बीजेपी ने अपने दो प्रवक्ताओं की टिप्पणी का खंडन किया और कहा कि वह सभी धर्मों आदर करती है और किसी भी धार्मिक महापुरुष के किसी अपमान का पुरजोर निंदा करती है।

अब दुनियां के तमाम मुद्दे ग्लोबल शक्ल अख्तियार कर चुके हैं। कोई एक घर या कोई एक देश अकेला अपने में अस्तित्व नहीं बचा सकता और ना ही आर्थिक चुनौतियों का सामना कर सकता है। वैश्विक सहकार की सदैव जरूरत होती है।

मुझे नहीं याद है कि किसी देश ने कभी भारत को इतने कड़े शब्दों में फटकार लगाई हो और उसके बाद भारत पसीज भी गया हो। दुनियां भांप रही है कि नूपुर और जिंदल तो एक मोहरे हैं, यह मानसिकता व्यापक रूप ले रही है। 

इस संबंध में उठाए गए कदम और दिया गया स्पष्टीकरण किसी खास सौजन्य के प्रतीक नहीं हैं अपितु भय का परिणाम हैं। पहले के समय भी बेलगाम बयान आते रहे हैं। लेकिन देश में ही उसकी भर्त्सना होने लगती थी। शासन तंत्र की  निगाह टेढ़ी हो जाती थी, अमला चौकन्ना हो जाता था और और मीडिया ऐसी बातों को डस्टबिन में‌ दफन कर देती थी। फिर बाहरी हस्तक्षेप और अपने देश का सिर झुकने का मौका ही नहीं आता था। अब तो विष वर्षा के महायज्ञ में परोक्ष या अपरोक्ष सभी की आहुति साफ समझ में आती है।‌ कोई रोके नहीं— कोई टोके नहीं।

यह मामला पैगंबर की शान के साथ गुस्ताखी का था इसलिए हलकी‌‌ गोली से ही बुखार उतर गया। लेकिन अपने देश में ही गांधी और नेहरू को जो दैनिक वन्दना की तरह गाली दी जाती है, उसके खिलाफ कौन चेतावनी देगा? काश कोई हमारे राष्ट्र-नायकों को भी रोजाना हलाक होने से बचा लेता।

जैसे भारत से बाहर हमेशा गांधी और नेहरू लाज बचाते हैं, वैसे ही लोकतंत्र और सेकुलरिजम लाज बचाएगा। भारत जिन आधुनिकतम मूल्यों की बुनियाद पर खड़ा हुआ है, वह बुनियाद गांधी, नेहरू और अंबेडकर जैसे विश्वपुरुषों ने रखी थी।
बोया पेड़ बबूल का आम कहां से खाए…

सालों से राष्ट्रवाद को धर्म से जोड़कर, जो जहर फैलाया जा रहा है, वह अपना असर दिखाने लगा है इसमें प्रवक्ताओं का क्या दोष ? सवाल यह नहीं है कि नूपुर ने कोई नई या गलत बात कह दी। सवाल यह है कि इस अनपढ़ फौज को, इस तरह बेमतलब के मुद्दे उठाने का माद्दा कहां से मिलता है। लीलाधारी की सरकार खुद तो नौकरियां दे नहीं पा रही, उल्टे साहब के साहबजादों की फौज जिस तरह जहर फैला रही, उसके चलते  खाड़ी देशों में भी नौकरी, व्यापार के रास्ते भी बंद हो रहे है । आपके फर्जी_राष्ट्रवाद के चक्कर में अरब देशों में न जाने कितनों की नौकरियां और करोड़ों का व्यापार खतरे में आ गया है।

साहेब अभी भी समय है बेलगाम गोदी मीडिया, आईटी सेल, मूर्ख प्रवक्ताओं नेताओं की बदजुबानी पर लगाम लगाइए, नहीं तो रोज बोया जा रहा जहर एक दिन देश के लिए नासूर बन जाएगा।

 हिंदू मुसलमान करके बहुत चुनाव जीत लिए, बेशक आगे भी जीत जाएंगे । लेकिन अब तो 8 साल हो गए आपके पास अपने कामों की फेहरिस्त है उनके दम पर चुनाव जीतिए, ना कि देश के सामाजिक ताने-बाने की कीमत पर।

आठ साल में यह बात पूरी तरह और बारंबार साबित हो गई है कि गवर्नेंस के नाम पर महाशून्य है। कुछ आता-जाता नहीं है। अगर आता होता तो कॉरपोरेट मीडिया उन मुद्दों पर बात करता, रात-दिन हिंदू मुसलमान नहीं करता। बीजेपी जिस दिन सांप्रादायिकता का रास्ता छोड़ेगी उसी दिन समाप्त हो जाएगी। राजनीतिक फायदे के लिए वह किसी भी हद तक जाएगी। कश्मीरी पंडितों से लेकर दुनिया भर में रहने वाले भारतीयों का इस्तेमाल करेगी और नतीजा जो होगा उसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है। दलदल में अभी सिर्फ पाँव धँसे हैं, निकलने का कोई रास्ता नहीं है और पूरे शरीर का धँसना अवश्यंभावी है।
आखिरकार साम्प्रदायिकता का चोला उतार कर सेक्युलरिज़म के पर्दे के पीछे दुबकना पड़ेगा।

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