काँग्रेस आलाकमान हरियाणा में अपने अध्यक्षों का सम्मान क्यों नहीं बचा पाया?

उमेश जोशी

आठ साल दो महीने बीत गए और हरियाणा में काँग्रेस की प्रदेश कार्यकारिणी का गठन नहीं हो पाया। कितनी हास्यास्पद स्थिति है कि लंबे समय तक जो पार्टी अपना संगठन नहीं बना पाई उस पार्टी के नेता सत्ता का ख्वाब देख रहे हैं। बिना संगठन 2019 में विधान सभा चुनाव लड़ा गया और पार्टी को मुँह की खानी पड़ी। बीजेपी की एंटी इंकमबेंसी का लाभ भी नहीं ले सकी। नतीजतन, कुर्सी से दूर रह गई।   

काँग्रेस में प्रदेश कार्यकारिणी फूल चंद मुलाना के समय तक थी। मुलाना का कार्यकाल 14 फरवरी 2014 को अशोक तंवर के प्रदेश अध्यक्ष बनने के साथ ही खत्म हो गया था। अशोक तंवर करीब पाँच साल साढ़े सात महीने (कुल 2059 दिन) प्रदेश अध्यक्ष रहे और एड़ी से चोटी का प्रयास करने के बावजूद प्रदेश कार्यकारिणी का गठन नहीं कर पाए। एक बार तो अशोक तंवर प्रदेश कार्यकारिणी के नामों पर आलाकमान की स्वीकृति लेने में कामयाब हो गए थे लेकिन एक नेता ने अगले ही दिन वो सूची रद्द करवा दी। वो नेता कोई और नहीं, हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा थे। उन्हें अशोक तंवर रास नहीं आए।

अशोक तंवर अपने 2059 दिन के कार्यकाल में एक दिन भी स्वतंत्र होकर काम नहीं कर पाए। फूल चंद मुलाना के साथ भूपिंदर सिंह हुड्डा के समीकरण इसलिए अनुकूल थे कि हुड्डा संगठन में जो चाहते थे वो करवा लेते थे। अशोक तंवर उनके इशारों पर काम करने को राजी नहीं थे इसलिए दोनों के बीच 36 का आंकड़ा रहा। अंततः अशोक तंवर ने हरियाणा प्रदेश काँग्रेस कमेटी की कमान 6 अक्टूबर 2019 को कुमारी सैलजा को सौंप दी और बेआबरू होकर पार्टी कूचे से निकल गए। पिछले कुछ वर्षों से यह पद अनुसूचित जाति के नेताओं के पास रहा है। सत्ता संतुलन की दृष्टि से आलाकमान ने ऐसा फैसला किया होगा।

मुख्यमंत्री की कुर्सी जाट समुदाय के पास रही है इसलिए हरियाणा प्रदेश काँग्रेस कमेटी का अध्यक्ष पद अनुसूचित जाति को दे दिया गया। इसी रणनीति के तहत यह पद कुमारी सैलजा को दिया गया था। कुमारी सैलजा भी कुछ नहीं कर पा रही हैं। करीब ढाई साल हो गए, कार्यकारिणी का गठन नहीं कर पाईं। लगभग आठ महीने पहले आलाकमान के पास सूची भेजी थी जिसे आज तक मंजूरी नहीं मिली है। मंजूरी मिले भी कैसे? हरियाणा में काँग्रेसियों का एक गुट जब तक कार्यकारिणी के नामों पर सहमत नहीं होगा तब तक आलाकमान उसे मंजूरी नहीं देगा। उस गुट के मुखिया भूपिंदर सिंह हुड्डा हैं।  वे पिछले आठ साल से कार्यकारिणी के गठन में फच्चर इसलिए फंसा रहे हैं कि सूची में उनके मनपसंद लोग नहीं होते।

हालात संकेत दे रहे हैं कि भूपिंदर सिंह हुड्डा का मनपसंद प्रदेश अध्यक्ष बनेगा तभी प्रदेश कार्यकारिणी बन सकेगी, भले ही और आठ साल लग जाएं। हुड्डा को अपने इशारों पर काम करने वाला मुलाना जैसा प्रदेश अध्यक्ष चाहिए।

पिछले दिनों चर्चा जोरों पर थी कि भूपिंदर सिंह हुड्डा के सुपुत्र सांसद दीपेन्द्र हुड्डा को हरियाणा प्रदेश काँग्रेस कमेटी की कमान सौंपी जा सकती है। हुड्डा ने ही यह चाल चली होगी। इस बीच, प्रदेश अध्यक्ष कुमारी सैलजा ने अपने इस्तीफे की पेशकश की है। कुमारी सैलजा की सूची मंजूरी ना करना, यह साबित करता है कि वे सिर्फ कागजों पर अध्यक्ष हैं; उनके पास कोई अधिकार नहीं हैं। शायद इसी बात से आहत होकर इस्तीफे की पेशकश की है। कुमारी सैलजा ने अपना सम्मान बचाने के लिए भी यह चाल चली है। यदि आलाकमान ने हुड्डा के दबाव में उन्हें हटा दिया तो वे यह कह कर सम्मान बचा लेंगी कि वो खुद ही पद पर नहीं रहना चाहती थीं। यदि आलाकमान हुड्डा के इशारे पर काम करता रहा तो कुमारी सैलजा पर भी अशोक तंवर की  अपना कार्यकाल पूरा कर विदा हो जाएंगी और उन पर भी निष्क्रिय अध्यक्ष का लेबल लग जाएगा।   

पार्टी अध्यक्षों की अनदेखी करने की आलाकमान की पहले क्या मजबूरी थी, यह बताना भी बहुत मुश्किल नहीं है। सभी जानते हैं कि भूपिंदर सिंह हुड्डा मुख्यमंत्री संगठन की कुर्सी खुद के अपने कब्जे में रखना चाहते हैं। उनके दबाव के कारण आला कमान अपने अध्यक्षों को सम्मान नहीं दे पाता। वह जानता है कि हुड्डा ने काँग्रेस छोड़ दी तो पार्टी कई वर्ष नहीं पनप पाएगी।

 पंजाब के प्रयोग के बाद आलाकमान फूंक फूंक कर कदम रख रहा है। पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाने के बाद पार्टी की भारी फजीहत हुई है। यदि वहाँ पार्टी जीत जाती तो वैसा ही प्रयोग हरियाणा में भी दोहराया जा सकता था। लेकिन, अब हुड्डा को हटाने के बारे में आलाकमान सोच भी नहीं सकता, उल्टे उसके इशारों पर काम करने को बाध्य है। 

हुड्डा चाहते हैं कि अगला विधान सभा चुनाव उनके बेटे दीपेन्द्र हुड्डा के नेतृत्व में लड़ा जाए। यदि पार्टी को कामयाबी मिलती है तो दीपेन्द्र हुड्डा की मुख्यमंत्री पद की दावेदारी होगी। जी-23 गुट में हुडा शामिल होने का यही अर्थ लगाया जा रहा है कि वे नाराजगी जाहिर कर अपनी बात मनवाना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि विधान सभा चुनाव में कड़ी मेहनत कर पार्टी को कामयाबी दिलाएँ और वाह वाही किसी और को मिले।     

आलाकमान को यह डर नहीं होता कि कुमारी सैलजा को हटाने से दलित वर्ग में नाराजगी होगी तो बहुत पहले हुड्डा के बेटे को कमान सौंप दी गई होती। इतना तो हर काँग्रेसी समझ गया कि आलाकमान ने हुड्डा के पास पार्टी को गिरवी रख दिया है और अपने अध्यक्षों का सम्मान नहीं नहीं बचा पा रहा है। 

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