लोग धर्म निरपेक्ष लोगों को और समुदाय विशेष को जिम्मेदार ठहराने का प्रयास कर रहे हैं।
हैरानी की बात यह है कि अधिकांश ऐसे लोग लाॅ एन आर्डर की बात नही कर रहे।
उस समय की केंद्र सरकार और कश्मीर के राज्यपाल आदि की लाॅ एन आर्डर के विषय में जवाबदेही की बात भी होनी चाहिए।
जगमोहन अगर इसके लिए जिम्मेदार नहीं थे तो भी यह तो निर्विवाद है कि इसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की
भाजपा ने वीपी सिंह से कश्मीरियों के मुद्दे पर समर्थन वापस नहीं लिया! आडवाणी की गिरफ्तारी पर सरकार गिरा दी? आडवाणी की आत्मकथा ‘माय
कंट्री माय लाइफ’ भी पढ़ना चाहिए

अशोक कुमार कौशिक

मूवी के बारे में सोशल मीडिया पर काफ़ी प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं। ऐसा लगता है कि इतनी बड़ी घटना को उस समय की मिडिया और उस समय की सरकार ने जनता के सामने पूरा सच नही आने दिया। यह सराहनीय है कि फिल्म के जरिए इतनी बड़ी घटना को जनता के सामने लाने का प्रयास किया गया है।

कश्मीर मे हिन्दुओं पर हुए अत्याचार व नरसंहार की सच्चाई से अवगत कराने के लिए ग्रामीणों को The Kashmir Files फिल्म दिखाई। उस समय की सरकार की नाकामियों ओर हिन्दुओं पर हुए अत्याचार को दिखाने के लिए पूरा थिएटर बुक किया जा रहा है। मजेदार बात यह है कि भाजपा के लोगों द्वारा बड़ी सहायता से एक झूठ परोसा जा रहा है कि यह सब कांग्रेस की बदौलत हुआ।

श्रद्धेय अटल जी की आत्मा कराह रही थी, वो रो रहे थे। उनके समर्थन से चुनी हुई सरकार के संरक्षण में कश्मीरी पंडितो को कश्मीर से खदेड़ा जा रहा था, अत्याचार हो रहा था, उनकी इज्जत लूटी जा रही थी… अटल जी को ये प्रकरण कायराना लग रहा था, उन्होंगे अपनी ताकत का भरपूर उपयोग किया और यथा शीघ्र फिल्म निर्देशकों को ढूंढना शुरू किया।

कहानी लिखने वालों की खोज अभी शुरू ही हुई थी कि आडवाणी ने उन्हें बाबरी विध्वंस की तैयारियों में उलझा दिया। फिर आडवाणी ने रथयात्रा निकाली, लालूजी ने बिहार पहुंचते ही उसे टंगवा लिया। पूरे देश में हड़कंप मच गया। श्रद्धेय ने भारी मन से सरकार से समर्थन वापस ले लिया, वीपी सिंह की सरकार गिर गई। अटल जी इस बार सफल नहीं हो पाए।

1999 में श्रद्धेय को सरकार बनाने का मौका मिला, उन्होंने रार नहीं ठानने की बात कही थी, लेकिन उनके संगठन ने इस मुद्दे को काल के कपाल पर लिख के भविष्य के लिए छोड़ दिया। संघ ने तय किया कि कश्मीरी पंडितों का मुद्दा राम मंदिर निर्माण के बाद उठाया जाएगा, श्रद्धेय ने भी हांमी भरी। भाजपा हमेशा से भविष्य को लेकर सजग रही है, ये मुद्दा भी बाल नरेंद्र के लिए छोड़ दिया गया। फिर साढ़े चार साल बाद श्रद्धेय की सरकार में लंगड़ी फंस गई। भाजपा दस साल सत्ता से बाहर रही।

चौदह में मोदी देश के प्रधानमंत्री बनें। 2019 में पहला कार्यकाल खत्म किया, दोबारा जीत के आएं। कोर्ट ने राममंदिर पर हिंदुओं के पक्ष में फैसला सुनाया। यह मुद्दा समाप्त हुआ तब आठ साल बाद उन्हें श्रद्धेय का बलिदान याद करवाया गया, मोदी जी ने तुरंत संदेश भिजवाया, कश्मीर पर जल्द से जल्द फिल्म बनाने को कहा गया।

विवेक अग्निहोत्री ने “कश्मीर फाइल्स” नाम की फिल्म बनाई। फिल्म में भरपूर एजेंडा ठूंसा गया, सभी कश्मीरी मुसलमान आतंकवादी बताए गए, भाजपा की सरकारों को नया टूल मिल गया, अलग अलग राज्यों में इसे टैक्स फ्री किया गया। लेकिन किसी ने श्रद्धेय को इसका श्रेय नहीं दिया। ऊपर उनकी आत्मा फिर कराह रही है। कोई उन्हें फिल्म की क्रेडिट नहीं दे रहा है..!

मेरे हिसाब से उस समय की केंद्र सरकार और कश्मीर के राज्यपाल आदि की लाॅ एन आर्डर के विषय में जवाबदेही की बात भी होनी चाहिए। और अपराधियों पर कार्रवाई में कोई कमी रही हो तो उसकी बात भी होनी चाहिए।

और वहां से जिन कश्मीरी पंडितों या अन्य कुछ परिवारों को पलायन करना पड़ा था या जिनका जान माल का नुकसान हुआ है उनको न्याय दिलाने में कुछ कमी रही हो तो उसकी बात भी होनी चाहिए। शीघ्र से शीघ्र पीड़ित लोगों के लिए न्याय की मांग होनी चाहिए।

इसके अलावा एक बात यह भी है कि अधिकांश लोग इस फिल्म के बारे में जो जनता के व्यूज दिखा रहे हैं
ज्यादातर इस तरह के विचार शेयर कर रहे हैं कि इस सबके लिए धर्म निरपेक्षता की बात करने वाले लोग ही जिम्मेदार हैं।

हैरानी की बात यह है कि अधिकांश ऐसे लोग लाॅ एन आर्डर की बात नही कर रहे। पीड़ित पक्ष के लिए न्याय की मांग नही कर रहे। ज्यादातर ऐसे लोग धर्म निरपेक्ष लोगों को और समुदाय विशेष के लोगों को जिम्मेदार ठहराने का प्रयास कर रहे हैं।

कश्मीर के तत्कालीन हालात को लेकर अशोक कुमार पाण्डेय ने जम्मू कश्मीर पर दो महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं, वह हैं, ‘कश्मीरनामा’ और ‘कश्मीर और पंडित’।

कश्मीरी पंडित यानी हर अपराध की ढाल

वह लिखते है कि आप कश्मीर का क लिखिये तुरन्त कोई प लेकर आ जायेगा। मानो कश्मीर में जितना कुछ हो रहा है, होगा सब पंडितों के नाम पर जस्टिफाई किया जा सकता है। एक ही सवाल – जब पंडितों को घाटी से निकाला गया तो आप कहाँ थे!

अब मैं तो अक्सर पलट के पूछ लेता हूँ कि भाई मैं तो देवरिया में था आप कहाँ थे! वैसे जब यह हुआ तो सरकार वीपी सिंह की थी, भाजपा का भी समर्थन था उसे और जगमोहन साहब को भेजा उसी के कहने पर गया था। लेकिन थोड़ा इस पर बात कर लेनी ज़रूरी है।

1989 के हालात क्या थे? सही या ग़लत लेकिन सच यही है कि पूरी घाटी में आज़ादी का माहौल बना दिया गया था। जे के एल एफ के नेतृत्व में हुए इस आंदोलन के पीछे बहुत कुछ था। आंदोलन तो साठ के दशक में अल फतेह ने भी शुरू किया लेकिन उसका कोई ख़ास असर न हुआ था। 1990 के आन्दोलन में उभार बड़ा था। इस पागलपन में जो उन्हें भारत समर्थक लगा, उसे मार दिया गया।

दूरदर्शन के निदेशक लासा कौल मारे गए क्योंकि दूरदर्शन को भारत का भोंपू कहा गया तो मुसलमानों के धर्मगुरु मीरवाइज़ मारे गए क्योंकि वे आतंकवाद को समर्थन नहीं दे रहे थे। मक़बूल बट्ट को फांसी की सज़ा सुनाने वाले नीलकांत गंजू मारे गए तो हज़रत साहब के बाल को मिल जाने पर वेरिफाई करने वाले 84 साल के मौलाना मदूदी भी मारे गए। भाजपा के टीका लाल टिपलू मारे गए तो नेशनल कॉन्फ्रेंस के मोहम्मद यूसुफ हलवाई भी मारे गए। कश्मीरी पंडित आई बी के लोग मारे गए तो इंस्पेक्टर अली मोहम्मद वटाली भी मारे गए। सूचना विभाग में डायरेक्टर पुष्कर नाथ हांडू मारे गए तो कश्मीर यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर प्रो मुशीरुल हक़ भी मारे गए। पंडितों के माइग्रेशन का विरोध कर रहे हॄदयनाथ वांचू मारे गए तो पूर्व विधायक मीर मुस्तफा और बाद में अब्दुल गनी लोन भी मारे गए। जिन महिला नर्स सरला देवी की हत्या और बलात्कार की बात होती है उन पर भी मुखबिर होने का आरोप लगाया गया था।

तो वह पागलपन का दौर था। लेकिन क्या सारे मुसलमान ख़िलाफ़ थे पंडितों के? सारे हत्यारे थे? सोचिये 96 प्रतिशत मुसलमान अगर 4 प्रतिशत पंडितों के वाकई ख़िलाफ़ हो जाते तो बचता कोई? जाहिर है इस पागलपन में बहुत से लोग निरुद्देश्य भी मारे गए। बिट्टा कराटे जैसे लोगों ने साम्प्रदायिक नफ़रत में डूब कर निर्दोषों को भी मारा।

पलायन क्यों हुआ? ज़ाहिर है इन घटनाओं और उस माहौल में पैदा हुए डर और असुरक्षा से। जगमोहन अगर इसके लिए जिम्मेदार नहीं थे तो भी यह तो निर्विवाद है कि इसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की। बावजूद इसके लगा किसी को नहीं था कि वे वापस नहीं लौटेंगे। सबको लगा कुछ दिन में माहौल शांत होगा तो लौट आएंगे। अगर बदला जैसा कुछ होता है तो कश्मीरी मुसलमानों ने कम नहीं चुकाया है। हज़ारो बेनाम कब्रें हैं। उसी समय पचास हज़ार मुसलमानों को भगा दिया गया कश्मीर से। एक पूरा संगठन है उन परिवारों का जिनके सदस्य गिरफ्तारी के बाद लौटे नहीं। हज़ारो लोग मार दिए गए। इनमें भी सारे दोषी तो नहीं होंगे। आंदोलन भी 1999-2000 तक बिखर ही गया था। शांति उसके बावजूद कायम न हो सकी। उन हालात से भागकर आये पंडितों को तो देश की सहानुभूति मिली, मुसलमान बाहर भी आये तो शक़ की निगाह से देखे गए, मारे गए पीटे गए। वे कहाँ जाते!

ख़ैर अब भी हैं वहाँ 800 परिवार पंडितों के। श्रीनगर से गांवों तक अनेक का इंटरव्यू किया है। बहुत सी बातें हैं, सब यहां कैसे कह सकता हूँ। जल्दी ही किताब में आएगी। एक किस्सा सुन लीजिए। दक्षिण कश्मीर के एक पंडित परिवार ने बताया कि पड़ोस के गांव के एक नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता ने कहा जब तक मैं हूँ आपलोग कहीं नहीं जाएंगे। उसी दिन उसे आतंकवादियों ने मार दिया। अगली रात सारे पंडित चले गए। वह रह गए अपने बीमार चाचा के साथ।

पलायन त्रासदी थी। त्रासदी का जवाब दूसरी त्रासदी नहीं होता। आप अपना एजेंडा पूरा कर लें लेकिन जब तक कश्मीर शांत न होगा पंडित लौटेंगे नहीं। उसके बाद भी लौटेंगे, शक़ है मुझे। बस चुके हैं वे दूसरे शहरों में। ख़ैर

एक आख़िरी बात – लोग पूछते हैं पंडित आतंकवादी क्यों नहीं बने! भई 1947 में लाखों मुसलमान पाकिस्तान गए, वे आतंकवादी नहीं बने। लाखों हिन्दू भारत आये, वे भी आतंकवादी नहीं बने। गुजरात हुआ। मुसलमान आतंकवादी नहीं बने। बंदूक सत्ता के दमन के ख़िलाफ़ उठती है। पण्डितों ने सत्ता का दमन नहीं समर्थन पाया। फिर क्यों बनते वे आतंकवादी और किसकी हत्या करते!

और हाँ उनके बीच भी ऐसे लोगों का एक बड़ा हिस्सा है जो जानते हैं और समझते हैं हक़ीक़त। वे मुसलमानों से बदला नहीं कश्मीर में अमन चाहते हैं।

बाक़ी के लिए किताब “#कश्मीरऔरकश्मीरीपंडित” पढ़ सकते हैं।

श्रीनगर शहर की स्थापना तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में सम्राट अशोक के द्वारा की गई थी कल्हण ने अपनी पुस्तक “राजतरंगिणी” में इसका उल्लेख किया है।

श्रीनगर में बादामी बाग छावनी में एक ऐसा स्थान है जिसे शहर का स्थापना स्थल माना जाता है। वहां एक छोटा सा तालाब और बीच में मंदिर है तथा मंदिर में जाने के लिए एक छोटा सा पुल है। मंदिर में ग्रीस की स्थापत्य कला देखने को मिलती है और वह स्लेट का बना हुआ है।वह दरअसल एक बौद्ध मंदिर था जिसे बाद में हिंदुओं ने तोड़कर शिव मंदिर में बदल दिया गया।

आप तो जानते ही हैं सम्राट अशोक की राजधानी पाटलिपुत्र थी यानि पटना। अशोक यूँ ही महान नही था इस एक बात से आप उसके साम्राज्य की कल्पना कर सकते हैं। लेकिन यह भी सच है कि कश्मीर को सभी ने लूटा और इल्जाम केवल मुसलमानों पर डाल दिया गया।

भारतीय स्वतंत्रता के समकालीन दिग्गज राजनेता लालकृष्ण आडवाणी जी जो अपने प्रारंभिक जीवन में काफी समय तक एक विद्वान पत्रकार के रूप में भी‌ सक्रिय रहे हैं, कश्मीर और धारा 370 के संबंध में उनकी गवाही अकाट्य है।

हालांकि व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के स्नातकों के लिए इनके विचार सर्वथा‌ दुष्पाच्य‌ हैं।

कश्मीर फाइल्स के शोर-शराबे के बीच इस पूरे घटनाक्रम के सबसे बड़े किरदार लालकृष्ण आडवाणी कश्मीर के मुद्दे पर क्या सोचते हैं? अपनी आत्मकथा में उन्होंने सविस्तार लिखा है। यह तथ्य आजकल के दुष्प्रचार और मनगढ़ंत कहानी से ठीक उलट है।

धारा 370 को हटाते समय संसद में भाजपा सरकार के मंत्रियों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को इसके लिए घेरा था। लेकिन आडवाणी ने अपनी आत्मकथा ‘माय कंट्री माय लाइफ’ में लिखा है कि धारा 370 संविधान सभा में जिस दिन पास हुई तब पंडित नेहरू विदेश में थे।

आडवाणी ने इस घटनाक्रम का लंबा वर्णन किया कि किस तरह पूरी कांग्रेस पार्टी धारा 370 के खिलाफ थी। सरदार पटेल ने कांग्रेस नेताओं की बैठक बुलाई। इस बैठक में जबरदस्त हंगामा हुआ। मौलाना आजाद सहित कोई नेता कांग्रेसियों को धारा 370 पर समझा नहीं सका।

अंत में सरदार वल्लभभाई पटेल ने धारा 370 के व्यावहारिक पहलू और अंतरराष्ट्रीय जटिलताओं को समझाया।

अंततः कांग्रेस पार्टी सरदार वल्लभ भाई पटेल की इच्छा के सामने झुक गई और धारा 370 जब संविधान सभा में पेश हुई तो लगभग बिना बहस के पारित हो गई।

आडवाणी ने यह भी लिखा कि जब सरदार से पूछा गया कि उन्होंने ऐसा क्यों किया तो उन्होंने कहा कि वे नहीं चाहते थे कि कोई कहे कि नेहरू की अनुपस्थिति में उन्होंने पंडित जी का साथ नहीं दिया। बाद में सरदार के निजी सचिव वी शंकर ने धारा 370 को सरदार पटेल की उपलब्धि बताया।

इस तरह आडवाणी दो बातें साफ करते हैं।

एक धारा 370 सरदार पटेल ने पास कराई। दूसरी बात है कि पंडित नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल के रिश्ते बहुत गहरे थे , और नेहरु जी की प्रतिष्ठा और जिम्मेदारी को सरदार अपनी प्रतिष्ठा और जिम्मेदारी मानते थे।

आखिर में भक्तो से निवेदन प्रदेश में कश्मीर का सच लोगो को दिखाने के लिए पुरा थियेटर किया बुक किया जा रहा है। तीस साल बाद अचानक कश्मीरी पंडितों के लिये घड़ियाली आंसू बहाने वालों से अपील है कि वो लाखों रुपए फ़िल्म फ्री में दिखाने पर खर्च करने के बजाय जम्मू के विस्थापितों के मुहल्ले में जाएं। उनके बच्चों की पढ़ाई का खर्च, उनकी बेटियों के विवाह, बुजुर्गों के ईलाज के लिए 21 करोड़ का फंड जुटाकर देकर आएं। तब यह माना जायेगा कि हाँ कश्मीरी पंडितों से सच्ची सहानुभूति है। वरना सब समझ रहे हैं कि पहले से ही बहुत दुखी कश्मीरी पंडितों के जख्मों को राजनीतिक सुख के लिए कुरेदा जा रहा है।

जय माँ शारदा, जय खीर भवानी

error: Content is protected !!