धन का संचय करने से बेहतर औलाद को चरित्रवान बनाओ : कंवर साहेब महाराज.
समय रहते पूर्ण गुरु की शरण ले ले इंसान, तो अंत में छटपटाहट नहीं होती : कंवर साहेब जी

दिनोद धाम जयवीर फोगाट

14 फरवरी – काल के खेल में जीव को सुध नही रहती कि वो आया किस काम से था और कर क्या रहा है। जीव भूल जाता है और इस काल देश को अपना समझ कर गाफिल होता है। जब इंसान उम्र के आखिरी पड़ाव में आता है तब वो इस आवागमन के चक्कर से छुटकारा पाने के लिए छटपटाता है। अगर समय रहते इंसान पूर्ण सतगुरु की शरण ले ले तो उसकी ये छटपटाहट नही रहेगी।

उन्होंने कहा कि सामान्य इंसान के आगे चाहे कितना ही कीमती हीरा रख दो वो उसकी पहचान नही कर सकता। हीरे की परख जौहरी ही कर सकता है। सतगुरु जौहरी की भांति है इसलिए वो बार-बार चेताते हैं कि इस अनमोल हीरे जैसे जन्म को कौड़ी की भांति ना गंवा। गुरु महाराज जी ने कहा कि हम अपना आपा नही खोजते। बेटे पोते भाई कुल कुटुंब के लिए इंसान खुद का समय बर्बाद कर लेता है। जो आप से सामर्थ्यवान है उसकी शरणाई करो क्योंकि समर्थ की शरणाई में जाकर भय खत्म हो जाता है और सबसे समर्थ सतगुरु है। इंसान को अपने कल्याण का मार्ग ढूंढना चाहिए। हमारी रूह परमात्मा से ही बिछड़ कर आई थी इसका कल्याण भी परमात्मा से मिलन होने पर ही होता है।

गुरु महाराज जी ने कहा कि धन का संचय करने से बेहतर है कि अपनी औलाद को सुविचारी और चरित्रवान बनाओ क्योंकि यदि पूत सपूत है तो धन संचय की कोई आवश्यकता नही है वो अपने आप अपना गुजारा कर लेगा। और यदि पूत कपूत है तो भी धन संचय का कोई लाभ नही है क्योंकि कितना ही संचय करो कपूत उसे बर्बाद कर देगा। उन्होंने कहा कि पांच कोष हैं जो हमारे जीवन की दशा तय करते हैं। इनमें से पहला और मुख्य है अन्नमय कोष। अन्न अगर शुद्ध होगा तो ही हमारा मन शुद्ध होगा। कहावत भी है जैसा पीवे पानी वैसी ही हो वाणी। मन मय कोष से ज्ञान मय कोष बनता है। ज्ञान से विज्ञानमय कोष सुधरता है और विज्ञानमय से आंनद मय कोष ठीक होता है। संग पर आपका जीवन टिका हुआ है। गुरु महाराज जी ने कहा कि जिस घर मे सुख शांति प्रेम है तो भक्ति स्वतः सम्भव है।

उन्होंने गुरु द्रोणाचार्य और एकलव्य का वृतांत बताते हुए कहा कि मन मे लगन हो और निश्चय दृढ़ है तो कोई बाधा आपके संकल्प को पूरा करने से नही रोक सकती। शिष्य अगर पूरा है तो गुरु भी पूर्ण है। गुरु की बात पर जिसने संशय उत्प्पन कर दिया समझो उसने अपने भाग्य में कील ठोंक ली। एकलव्य ने गुरु द्रोण के द्वारा अंगूठा मांगने पर एक क्षण भी नही सोचा।

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