पत्रकार कि कलम का रुकना या बाँझ हो जाना,उसकी मौत से कम नहीं

माफ़ी मांगना पत्रकार के लिए किसी आत्म-हत्या से कम नहीं
पवन कुमार

रेवाड़ी,25 जनवरी I यह सच है कि देश का लोकतंत्र चार स्तम्भो पर टिका हुआ है,या इसको दूसरे शब्दों में हम कह सकते है कि लोकतंत्र चार पी पर टिका हुआ है I पब्लिक, प्रशासन, पॉलिटिक्स और प्रेस I जब यह चारों पी भ्रष्ट हो जाये तो शब्द बनता है भ्रष्टाचार I प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, जिसका काम होता है कि सच को पब्लिक के सामने लाये,चाहे यह काम उसके लिए कितना भी जोखिम भरा क्यों ना हो I

जिस प्रकार बाँझ स्त्री किसी बच्चे को जन्म नहीं दे सकती,उसी प्रकार सच को छुपाकर चाटुकारिता और स्वार्थ की नीव पर रखी पत्रकारिता कभी समाज का भला नहीं कर सकती I सामाजिक परिवर्तन या सामाजिक क्रांति लाने के लिए कलम का पैना होना बहुत जरुरी है अन्यथा समाज के साथ देश का पतन होना लगभग तय है I हमने माना कि अंग्रेजों के आने से पहले पत्रकार दरबारी हुआ करते थे,जो राजा ने कहा, वो ही लिखा जाया करता था और इतिहास हमेशा जितने वालों का ही बनता I अगर पत्रकारिता में दम ना होता तो वीर सावरकर की लेखनी अनेक क्रांतिकारी पैदा नहीं हो पाते,भगत सिंह लेनिन से प्रभावित नहीं होते और मुंशी प्रेमचंद सामाजिक मुद्दों को ना उठा पाते, कलम में ताक़त ना होती तो डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर सामाजिक व समानता के हक़ कि बात नहीं कर पाते I यह भी सच है कि अगर हमेशा सच लिखेगे तो निश्चित रूप से सच कि कड़वाहट कहीं ना कहीं, किसी ना किसी के लिए परेशानी तो खड़ी करेगी ही और परेशानी का परिणाम यह कि वह पत्रकार या लेखक खिलाफ लिखने वालों के आँखों की किरकरी तो बनेगा और उस किरकरी को निकालने के लिए खिलाफत करने वाला दबाव बनाने के लिए हर प्रयास करेगा I

यह अब उस पत्रकार पर निर्भर है कि वह हालातों से समझौता कर लेता या फिर उन भ्रष्ट व्यक्ति यों के सामने घुटने टेक देता है I मैं तो यह मानता हूं कि अगर पत्रकार सच्चा है तो उसे अपनी बात पर टीके रहना चाहिए हैं और लाख परेशानी के बावजूद अपने घुटने नहीं टेकने चाहिए क्यों कि घुटने टेकना आत्म-हत्या करने से कम नहीं I

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