लघुकथा…..दास्तान-1990

डॉ.सुरेश वशिष्ठ, गुरुग्राम

आलिम की मौत पर मातम पसर गया। लोगों को टीवी पर रोते-बिलखते देखा तो राजीव मुक्कू की आँखों से भी आँसू निकल आए। जेहन में पत्नी की यादें उमड़ने-घुमड़ने लगी। पत्नी सुनीति ने आलिम को बेटे की तरह सहेजा था। आलिम से वह बहुत स्नेह रखती थी। उसे गोद खिलाया था और पुत्र की तरह समझा था। सुनीति की यादें उसे कचोटने लगी।

कश्मीर से विस्थापित होकर दिल्ली लौट आये। महीने बीते, फिर बरस बीत गए। यादें पीछा नहीं छोड़ रही थी। आलिम की मौत को टीवी पर देखा तो जेहन खुलता चला गया। पुत्र की तरह प्रेम करने वाली सुनीति के साथ, दरिंदगी की कौन-सी सीमा-रेखा उसने पार की थी, वह सब भी रह-रहकर उसे याद आने लगा था।

उस दिन, हजारों-लाखों कश्मीरी हिंदुओं को कैम्पों में शरण लेनी पड़ी। अपना घर-बार, सगे-संबंधी सब छूट गये थे। बिखरे और छितरे पड़े मानव अंग, दरिंदगी की दास्तान चित्रकथा की तरह सुनाते नजर पड़ रहे थे। आज जिस हैवान को शहीद बोला जा रहा है, जिसकी मौत पर मातम मनाया जा रहा है, उसी आलिम ने सुनीति की देह को टुकड़े-टुकड़े काट डाला था। जिसने उसे पुत्र समझा और दुलार किया। जिसे पैदा हुए बारह बर्ष भी पूरे नहीं हुये थे, उसी आलिम ने बेरहमी से दुश्कर्म किया और उसे कत्ल कर दिया था।

सब छोड़-छाड़कर राजीव मुक्कू और उसके परिवार को उस रोज भागना पड़ा था। कश्मीर को जो रास्ता जम्मू से जोड़ता है, वही बीच रास्ते में इसी शैतान ने सुनीति को घेर लिया। जवाहर टनल का यह रास्ता उस दिन सरहद हो गया था। हिन्दू कश्मीर से जान बचाकर टनल के रास्ते जम्मू भाग रहे थे। राजीव और उसका परिवार भी गिरता-पड़ता कैंप तक पहुँच तो गया लेकिन सुनीति सरहद पार न कर सकी। कटी देह के कुछ अंग वही छूट गये। राजीव ने सपने में भी नहीं सोचा था कि जिसपर भरोसा किया, वही दरिंदगी भी करेगा।

ऐसी विकट परिस्थितियों में जम्मू से दिल्ली पहुँचा उसका परिवार बस तो गया, वृद्ध माता-पिता, छोटी एक बहन और उसके दो प्यारे-प्यारे बच्चे, बचकर निकल तो आए लेकिन सुनीति नहीं आ सकी।

आज टीवी पर आलिम के मारे जाने की खबर सुनी तो चुप-चुप आँखों से आँसू बह चले। बिसरी बातें ताजा होने लगी और उसकी दरिंदगी परत-दर-परत खुलती चली गई। दिल को सुकून मिलने लगा। सालों बाद, चिनार के उस वृक्ष के निकट जाने को दिल मचल उठा।…और अगली सुबह किसी से बिना कुछ बोले-कहे राजीव घर से निकल पड़ा। उम्र बढ़ चली थी और पत्नी के दर्द ने खोखला कर ड़ाला था। उसने ट्रेन पकड़ी और जम्मू पहुँच गया।

जवाहर टनल के पास, दरख्त के नीचे, सुनीति जहाँ विश्राम को तनिक रुकी ही थी। आलिम साथ था। बारह की उम्र थी और सुनीति को फूफी कहा करता था। उस रोज भी उसने वही कहा था–‘फूफी, कैम्प तक सुरक्षित छोड़कर आउँगा।’ वह गया भी लेकिन चिनार के तले घुमड़ी एक लहर उसमें लहरा उठी। हवस का नशा नस-नस में भरने लगा और भीतर का शैतान जाग उठा। उसने उसे घेर लिया। पहले दुश्कर्म किया और फिर कत्ल ! भीतर के उस दरिन्दे ने माँ समान फूफी को काट डाला था।

चिनार सामने था। राजीव की आँखें लाल झरते पत्तों को देखे जा रही थी। उसे बहुत कुछ बदला-सा लग रहा था। तभी चिनार के लाल झरते पत्तों के साथ सुनीति की रूह भी झर पड़ी। उसने राजीव को देखा और देह से लिपट गई। पल-भर राजीव मुक्कू प्रफुल्ल चहक उठा और जब हँसा तो हँसता ही चला गया।

घरवालों के बहुत ढूँढने पर भी लावारिस लाश के दर्शन तक नसीब नहीं हुये। राह चलते लोगों को यह अंदाजा जरूर हुआ– उस रोज के बाद चिनार के उस वृक्ष से, तड़पन और चींखों की आवाजें सुनाई पड़ना रुक गया था।

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