उमेश जोशी

 घरों को लौट गए, विजयी मुस्कान चेहरे पर लिए हुए सभी किसान। दिल्ली के बॉर्डर पूरी तरह खाली हो चुके हैं; यातायात सामान्य हो गया है। केंद्र और दो राज्यों हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सरकारों को बड़ी राहत मिली है। भले ही साल भर से गुलजार बॉर्डरों पर सन्नाटा पसरा है लेकिन वहाँ पर कई सवाल आज भी हवा में तैर रहे हैं। बॉर्डर से गुजरने वाले प्रत्येक यात्री के कंधों पर वो सवाल सवार होकर काफी दूर तक उसके साथ चलते हैं। कानों में सवाल गूंजता है- क्या सचमुच किसान तीनों कृषि कानून वापसी पर खुश होकर घरों को लौटे हैं? क्या किसान अब बीजेपी और उसकी सरकारों ने नाराज नहीं हैं? क्या 700 किसानों के बलिदान की पीड़ा किसान भुला चुके हैं? ये वो सवाल हैं जो पराली के धुएं की तरह पूरे उत्तर भारत में भी फैल चुके हैं।

सर्दी, गर्मी और बरसात का चक्र पूरा होने के बाद किसान फिर से सर्दी का कहर झेलने को तैयार थे लेकिन किसानों का मूड भाँप कर प्रधानमंत्री ने तीनों कृषि कानून वापस लेने का एलान कर दिया। संसद की औपचारिकता भी पूरी कर दी। इसके बाद किसान घरों को लौट गए। विजय श्री लिए बिना उन्हें लौटना भी नहीं था। चट्टान जैसा  इरादा लेकर आंदोलन में शामिल होने आए थे। घर की महिलाओं ने उन्हें विदा करते समय जो कहा था, उसके बाद किसानों के सामने दो ही विकल्प थे, विजय प्राप्ति तक लड़ो या मरो। आंदोलन शुरू होने के कुछ दिन बाद एक पत्रकार ने एक किसान से पूछा था- कानून वापिस नहीं हुए तो क्या आप वापिस चले जाएँगे। इस सवाल के जबाव में किसान ने कहा था कि घर की महिलाओं ने यह कह कर आंदोलन में भेजा है- कानून वापिस करवा कर ही घर वापिस आना, वरना चूड़ियाँ पहन कर आना। इतनी बड़ी बात सुनने के बाद उनके सामने ‘लड़ो या मरो’ के अलावा कोई विकल्प नहीं था।      

 अब बीजेपी के वो नेता किसानों से सारी कड़ुवाहट भुला कर आसन्न विधानसभा चुनावों में बीजेपी को समर्थन देने की अपील कर रहे हैं जो आंदोलन के दौरान उन्हें किसान ही नहीं मान रहे थे। आज के किसान उनकी नजरों में कल तक ‘कथित किसान’ थे; आतंकवादी थे। 

 पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं जिनमें उत्तर प्रदेश और पंजाब राजनीतिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण राज्य हैं। फिलहाल, उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकार है। किसान आंदोलन की तपिश पूरे उत्तर भारत में फैली होने के कारण उत्तर प्रदेश भी उससे अछूता नहीं था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन का जोर था इसलिए वहाँ बीजेपी को भारी नुकसान होने की आशंका थी। बीजेपी के लिए देश का सबसे बड़ा राज्य फिर हासिल करना बहुत जरूरी है। यदि यह राज्य बीजेपी के हाथ से निकल गया तो 2024 के लोकसभा चुनाव में समीकरण पूरी तरह बदल जाएंगे इसलिए उत्तर प्रदेश चुनाव जीतना बीजेपी के अस्तित्व के लिए जरूरी है। तीनों कानून वापसी के पीछे इस सोच से इनकार नहीं किया जा सकता।    

अकालियों की साझेदारी खत्म होने के बाद पंजाब में भी उम्मीदों पर पानी फिर गया है। बीजेपी नेताओं को लग रहा है कि अब किसानों की कोई नाराजगी नहीं है और अब उनके समर्थन से बीजेपी अपना जनाधार मजबूत कर सकेगी।   

किसान बीजेपी के साथ फिर जुड़ेंगे, इस बात में उतना ही संदेह है जितना रात के समय दिन जैसा उजाला होने में संदेह होता है। किसानों ने जो यातनाएँ झेली हैं, उन्हें किसान  असानी से नहीं भुला सकते। जिन किसानों ने जान गंवाई है उनके परिवार और परिजन इस पीड़ा को कई पीढ़ियों नहीं भुला पाएँगे। बार बार ‘आतंकवादी’ शब्द से अपमानित होने वाले किसान आसानी से कड़ुवाहट कैसे भुला पाएंगे! कहते हैं ना! तलवार का घाव भर जाता है, जबान का घाव नहीं भरता। हालांकि समय बड़ा से बड़ा घाव भर देता है लेकिन उसके लिए लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ती है, कई वर्षों। ताजा घाव हैं इसलिए किसान तो यहाँ तक कहते देखे गए हैं कि हमारे वजन के बराबर सोना भी दे दें तो भी बीजेपी को समर्थन नहीं देंगे। इन हालात में पंजाब और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में बड़ी चुनौती होगी। 

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