भारत सारथी/ऋषि प्रकाश कौशिक

गुरुग्राम। साल भर से ज्यादा किसान आन्दोलन को पूरी तरह नज़रअंदाज़ करने के बाद केंद्र सरकार के मुखिया सुबह-सुबह 9 बजे अचानक छोटे पर्दे पर प्रकट हुए और तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का एलान करते हुए कहा कि वो “अपने प्रयासों के बावजूद कुछ किसानों को समझा नहीं पाए” और किसानों से माफ़ी माँगी। सरकार की परेशानी दरअसल ये नहीं थी कि वो किसानों को तीन कृषि कानून समझा नहीं पाई बल्कि, सरकार की परेशानी ये थी कि कोरोना की आड़ में अध्यादेश के माध्यम से सरकार पिछले दरवाजे से जिन 3 कानूनों को चुपचाप लेकर आयी, उन्हें किसान समझ गया। एक साल से ज्यादा चले आन्दोलन के दौरान किसान धरनों पर एक-एक कर करीब 700 किसानों के शव धरनास्थलों से गाँवों में पहुँच गए। सरकारी प्रताड़ना, अपमान के कड़वे घूँट पीने के बावजूद अन्नदाता शान्ति और संयम से आन्दोलन करते रहे। किसानों के बारे में सरकार का आकलन गलत निकला और उनके आन्दोलन को कुचलने का सरकार का सारा प्रयास विफल रहा। एक साल बाद सरकार ये तो समझ गयी कि किसान उल्टा हटने वाला वर्ग नहीं है।

जहां तक पीएम मोदी की बात है वो 12 साल तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे, करीब साढ़े 7 साल से देश के प्रधान मंत्री हैं, इन साढ़े 19 साल के शासनकाल में वो किसी जनांदोलन के सामने नहीं झुके। ये पहला ऐसा आंदोलन था, जिसके सामने न केवल वो झुके बल्कि माफी भी मांगी। लेकिन, सरकार की अक्ल जरा देर से ठिकाने आई और इसका खामियाजा एक साल तक किसानों को भुगतना पड़ा। सरकार की जिद के चलते करीब 700 निर्दोष किसानों को अपनी जान गंवानी पड़ी। सरकार और सरकार में बैठे लोग एक साल तक यही कहते रहे कि ये केवल 2 प्रदेशों का आन्दोलन है और बाकी प्रदेशों के किसान इन कानूनों से खुश हैं। लेकिन, सरकार का ये दावा भी फुस्स हो गया क्योंकि करीब एक महीना बीतने के बाद भी देश के किसी किसान संगठन ने ये नहीं कहा कि हमारे फायदे के इन तीनों कानूनों को वापस क्यों लिया गया।

हरियाणा के संदर्भ में इस आंदोलन के नफे-नुकसान को देखा जाए तो प्रदेश सरकार समेत 15 में से 14 सांसद किसानों के विरोध में एक तरफ खड़े थे और अकेले सांसद दीपेन्द्र हुड्डा सड़क से लेकर संसद तक किसानों के पक्ष में मजबूती से लड़ाई लड़ रहे थे। वहीँ सत्ताधारी दल के 14 सांसद तीनों कृषि क़ानून के पक्ष में खड़े थे। दीपेंद्र हुड्डा ने संसद में तो सरकार से जमकर लोहा लिया ही, हरियाणा समेत दिल्ली की सीमाओं पर लगे किसान धरनों पर लगातार जाकर किसानों का समर्थन भी किया। इसके अलावा, उन्होंने धरनों पर बैठे किसानों के लिये पानी, शौचालय, साफ सफाई जैसी मूलभूत आवश्यकताओं को उपलब्ध कराने का हर प्रयास किया और काफी हद तक उनकी बुनियादी समस्याओं का समाधान कराया। इतना ही नहीं, कांग्रेस विधायक दल के द्वारा किसान आन्दोलन के दौरान जान की कुर्बानी देने वाले किसानों के परिवारों को 2-2 लाख रुपये की मदद देने का काम भी दीपेंद्र हुड्डा की पहल पर हुआ। हरियाणा के अलावा किसी भी प्रदेश में अपनी निजी कमाई से उन किसान परिवारों की मदद के लिए कोई खड़ा नहीं हुआ, जिनका सबकुछ लुट चुका था, जिन किसानों के घर में कमाने वाला कोई नहीं बचा।

किसानों ने भी साबित कर दिया कि वो कृतघ्न नहीं कृतज्ञ वर्ग है। जिस दिन आंदोलन खत्म हुआ और किसान अपने घरों की ओर लौटने की तैयारी कर रहे थे। हरियाणा में एक कार्यक्रम में जा रहे सांसद दीपेंद्र हुड्डा को किसानों ने रोका और पूरे स्नेह के साथ मान-सम्मान का प्रतीक पगड़ी, पटका पहनाकर स्वागत किया और अपने साथ लंगर लेने का भी आग्रह किया। किसानों ने उन पर फूल भी बरसाए और संसद में किसानों की मजबूत पैरवी करने के लिए आभार भी व्यक्त किया। इस किसान आन्दोलन में जहाँ राजनीतिक दलों के नेताओं की घुसने की हिम्मत नहीं हो रही थी, वहीँ दीपेंद्र हुड्डा हरियाणा के अकेले ऐसे सांसद थे जो लगातार विभिन्न धरनों पर पहुँचते रहे।

किसान आन्दोलन स्थगित होने के बाद हरियाणा में सबसे हास्यास्पद स्थिति तो उन लोगों की हो चुकी है जो किसानों के खिलाफ लट्ठ उठाने, किसानों के सिर फोड़ने, आँखें निकालने की बात करते थे। अब उनकी समझ में ये नहीं आ रहा है कि वो रद्द हो चुके कानूनों का समर्थन करें या वापस लेने के फैसले का समर्थन करें। सांप के मुंह में छछूंदर वाला मुहावरा आज उन लोगों पर फिट बैठ रहा है। दिल्ली से सटी सीमाओं वाले राज्यों ने किसानों पर जुल्म ढाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इनमें नंबर-1 का खिताब हरियाणा की खट्टर सरकार ने अपने नाम किया। लेकिन इसके बावजूद किसानों ने शान्ति का रास्ता नहीं छोड़ा क्योंकि उनको पता था कि शान्ति उनके आन्दोलन की जीत का सबसे बड़ा हथियार है। किसानों को टुकड़े-टुकड़े गैंग, पाकिस्तानी, देशद्रोही, गद्दार, विदेश से फंडेड, आंदोलनजीवी, मवाली और न जाने क्या-क्या कहा गया। किसानों को प्रताड़ित और अपमानित कर शांति के रास्ते से भटकाने, उकसाने और आंदोलन तोड़ने का भी हर प्रयास हुआ। मीडिया के ज़रिए किसानों पर हमला हुआ, पुलिस के ज़रिए हमला किया गया। अपनी बात कहने दिल्ली आ रहे किसानों के रास्ते में मोटी-मोटी नुकीली कीलें गाड़ दी गईं, कंटीली तारें लगा दी गईं, आंसू गैस के गोले, कड़ाके की सर्दी में ठंडे पानी की बौछारें मारी गई। लखीमपुर में किसानों को साजिश रच कर दिन-दहाड़े गाड़ियों से रौंद दिया गया। यहाँ भी प्रियंका गाँधी के साथ किसानों के आंसू पोंछने जा रहे सांसद दीपेन्द्र हुड्डा के साथ पुलिस ने न केवल धक्का-मुक्की की बल्कि 3 दिन तक उनको बिना किसी अपराध के हिरासत में कैद कर लिया। सरकार एक साल तक किसानों को ताकत के बल पर दबाने की कोशिश करती रही लेकिन किसान दबे नहीं।

किसान आन्दोलन को नफे नुक़सान के अलावा देश विदेश में अलग-अलग नज़रिये से भी देखा गया। इस आंदोलन में जहाँ किसानों की ज़बरदस्त एकजुटता सामने आई वहीँ किसानों का धैर्य, त्याग, तपस्या, जुझारूपन, सूझ-बूझ, सहनशीलता, प्रेम, बलिदान, मानवता आदि सब कुछ नज़र आया। किसानों ने शांति और अहिंसा के हथियार से आज़ादी के बाद की संभवतः सबसे लम्बी लड़ाई लड़ी व पूरे सम्मान के साथ जीत हासिल की। किसान आंदोलन ने देश में लोकतंत्र की ताकत को फिर से जिन्दा कर दिया। किसानों ने अपनों को जरूर खोया लेकिन बता दिया कि किसान को इस देश की मिट्टी की तासीर पता है। सरकार भी समझ गई कि किसान आंदोलन ने उसकी मिट्टी को दरका दिया है जिसका एक साल का लेखा-जोखा आने वाले समय में उसे बहुत महंगा पड़ेगा।

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