गीता मनीषी स्वामी ज्ञानानन्द महाराज एवं
डॉ. मारकन्डे आहूजा, कुलपति गुरूग्राम विश्वविद्यालय, गुरूग्राम

विश्व कल्याण एवं मानव मात्र के स्वयं के व्यक्तित्व विकास के लिए श्रीमद्भगवद्गीता का दिव्य ज्ञान एक अमूल्य निधि है। यह सम्पूर्ण वेदों का सार है। यह भिन्न-भिन्न उद्भावना एवं आध्यात्मिक प्रवृति वाले प्राणियों के लिए शुभ, मंगलदायक एवं कल्याणकारी है। केवल सात सौ श्लोकों की लघुकाय गीता को कामधेनु तथा कल्पवृक्ष की उपमा दी गई है।

गीता की लोकप्रियता का एक मात्र कारण मानव जीवन की सभी समस्याओंं का समाधान प्रदान करना है। जीवन की नश्वरता और उसको साथज़्क बनाने का सिद्धान्त, निष्काम कर्म और अनासक्त होकर कर्म करना सब कुछ इसमें निहित है। श्रीमद्भगवद्गीता द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, विशुद्धाद्वैत इत्यादि किसी भी वाद को अथवा सम्प्रदाय को या सिद्धान्त को नहीं मानती बल्कि गीता का प्रमुख लक्ष्य तो यह है कि मानव चाहे किसी वाद, सिद्धान्त, मत, विचार, देश का हो, मानव कल्याण ही मात्र गीता का लक्ष्य है। गीता का सन्देश स्वयं भगवान कृष्ण के मुखारविन्द से दिया गया है। मोहग्रस्त अर्जुन अर्थात् विश्व के प्रत्येक मानव को यह सन्देश दिया है जो आधुनिक युग में भी पूर्ण रूप से सार्थक है। गीता का महत्व सार्वभौमिक एवं सावज़्कालिक है। पिछले लगभग तीन वर्षों से गीता मनीषी स्वामी ज्ञानानन्द जी महाराज से प्रश्नों एवं जिज्ञासाओं का क्रम निरन्तर चल रहा है। इस लेख में कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो आज की पीढी पूछना चाहती है-

प्रश्न.: गीता जैसा प्रकाशमय ग्रन्थ एक अंधे आदमी की जिज्ञासा ‘धृतराष्ट्र उवाचÓ से क्यों शुरू होता है?

उत्तर: सच्चाई यह है कि इस जगत में सभी धामिज़्क ग्रन्थ व्यथज़् हो जायें यदि आदमी अन्धा न हो। अंधा आदमी वो देखना चाहता है जो उसे दिखाई नहीं देता। बहरा आदमी भी वो सुनना चाहता है, उसे सुनाई नहीं देता सारी इन्द्रियाँ भी खो जायें तो भी मन के भीतर छिपी हुई वृत्तियों का कोई विनाश नहीं होता। पहली बात स्मरण रखें कि धृतराष्ट्र अंधे है, लेकिन युद्ध के मैदान में क्या हो रहा है, मीलों दूर बैठा उनका मन यह जानने को उत्सुक है, आतुर है और पीडि़त है। दूसरी बात स्मरण रखें कि अंधे धृतराष्ट्र के सौ पुत्र हैं लेकिन अंधे व्यक्तित्व की संतति आँख वाली नहीं हो सकती, भले ही आँखें ऊपर से दिखाई पड़ती हो। अंधे व्यक्ति से जो जन्म पाता है-शायद अधिकतर लोग ‘कामÓ के अंधेपन में ही जन्म लेते हैं-उसकी  भले ही ऊपर की आँख हो, भीतर की आँख पानी कठिन है। तीसरी बात स्मरण रखें धृतराष्ट्र से जन्में सभी पुत्र सब तरह से अंधा व्यवहार कर रहे थे। नेत्र विशेषज्ञ के रूप में आँख के अंधों का इलाज करते-करते समझ में आया कि इस दुनिया में आँख से अंधे कम और आँख होते हुए भी जो अंधे है वह अधिक है-यही भेद जीवन के लिये आवश्यक है।

प्रश्न-: हम कहते हैं इन्द्रियों को वश में करो। यहाँ तो इन्द्री है ही नहीं। धृतराष्ट्र आँखों से अंधे हैं तो क्या आँख के न होने से वासना नहीं मिटती, कामना नहीं मिटती?

उत्तर: आँखों से कामना नहीं उठती, वासना नहीं उठती। कामना, वासना उठती है मन से। आँखें फूट भी जायें, फोड़ भी डाली जाये तो भी वासना का कोई अंत नहीं।

प्रश्न-:”धमज़्क्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवÓÓ यानि धर्म के उस क्षेत्र में युद्ध की इच्छा से इक_े हुए। कैसी विडम्बना है? क्षेत्र धर्म का और इतना प्रलयकारी युद्ध? यदि धमज़् के क्षेत्र में भी लडऩा पड़े तो अधर्म के क्षेत्रों में क्या होता होगा?

उत्तर: मेरा मानना है कि धर्म का क्षेत्र शायद पृथ्वी पर अब तक बन नहीं पाया। क्योंकि धर्मक्षेत्र बनेगा तो युद्ध की सम्भावना समाप्त हो जानी चाहिये। युद्ध की सम्भावना बनी ही है तो धमज़्क्षेत्र भी युद्धरत हो जाता है ऐसे में अधमज़् की क्या निन्दा करें और क्या दोष दें? ऐसा तो हजारों साल पहले जब हम मानते है भले लोग थे पृथ्वी पर और भगवान् कृष्ण जैसा अद्भुत, अद्वितीय, सर्वकला-सम्पूर्ण व्यक्तित्व भी था तब भी इस पृथ्वी पर कुरुक्षेत्र के धर्मक्षेत्र में लोग युद्ध के लिये इक_े हुये थे। विचारणीय यह है कि जो गहरे में मनुष्य की युद्ध पिपासा है, यह गहरे में मनुष्य के जो पशु छिपा है, यह गहरे में जो विनाश की आकांक्षा है, वह धमज़्क्षेत्र में होने से छूट नहीं जाती । वह वहाँ भी युद्ध की तैयारियाँ कर लेता है। दूसरा विचारणीय बिन्दु यह भी है कि जब धमज़् की आड़ मिल जाये लडऩे को तो लडऩा और भी खतरनाक हो जाता है क्योंकि तब लडऩा न्याययुक्त प्रतीत होने लगता है।

प्रश्न.: युद्धभूमि पर दुर्योधन था, युधिष्ठिर था, भीष्म पितामह और द्रोणाचायज़् भी थे और भी पराक्रमी योद्धा थे, उनके भी स्वजन थे परन्तु स्वजनों, गुरुजनों और मित्रों को देखकर विषाद केवल अर्जुन को ही क्यों हुआ, औरों को नहीं हुआ?

उत्तर.: निश्चय ही महाभारत के युद्ध में अनेक पराक्रमी योद्धा थे, उनके भी स्वजन युद्ध में आमने-सामने थे, उनके भी चित्त हिंसा से भरे थे, उनके भी चित्त ममत्व से भरे थे। उन्हें विषाद नहीं हुआ; कारण है हिंसा भी अंधी हो सकती है, विचारहीन हो सकती है, ममत्व भी अंधा हो सकता है, विचारहीन हो सकता है। हिंसा और ममत्व भी विचार वाले हो सकते हैं, आंख वाले हो सकते हैं। जहां एक ओर कोई प्रतिज्ञा पूर्ण कर रहा है, कोई मित्रता निभा रहा है, कोई बदले की दुर्भावना लिए है, कोई नमक का ऋण चुका रहा है  वहीं अर्जुन विचार कर पा रहा है, सोच पा रहा है, देख पा रहा है। याद रखें सबसे बड़े प्रश्न वे नहीं हैं जो जगत् के सम्बन्ध में हम पूछते हैं, सबसे बड़े प्रश्न हैं, जो हमारे मन के द्वंद्व से जन्मते है; लेकिन अपने ही मन के द्वंद्व देखने के लिए विचार चाहिए, चिन्तन चाहिए, मनन चाहिए जो अर्जुन के पास है। अजुज़्न मनुष्य की चेतना है, इसलिए अद्भुत है, गीता भी इसलिए अद्भुत है कि वह मनुष्य की बहुत आंतरिक मनोस्थिति का आधार है। मनुष्य की आंतरिक मनोस्थिति अर्जुन के साथ कृष्ण का संघर्ष है; वह अर्जुन के लिए है, दुर्योधन के लिए नहीं। अर्जुन पशु होना नहीं चाहता और स्थिति पशु होने की है; परमात्मा होने का उसे पता नहीं। इसलिए प्रश्न उठा रहा है, इसलिए जिज्ञासा जगा रहा है। याद रखें जिसके जीवन में भी प्रश्न हैं, जिसके जीवन में भी जिज्ञासा है, उसके जीवन में धर्म आ सकता है। जो बीज टूटेगा अंकुरित होने को वह चिन्ता में पड़ेगा। दुर्योधन बीज में बंद जैसा व्यक्ति है, निश्चिंत है। अर्जुन अंकुरित है, अंकुर चिन्तित है, अंकुर बेचैन है, अंकुर आतुर है यही आतुरता उसे विषाद में डालती है और कृष्ण इसी विषाद को योग बनायेंगे गीता के माध्यम से।

प्रश्न.: अद्भुत सत्य हैं दुनिया के अनेक-अनेक ग्रन्थों में फिर भी गीता विशिष्ट क्यों है?

उत्तर.: इसका कारण यह है कि गीता धर्मशास्त्र कम मनस शास्त्र ज्यादा है। उसमें कोरे स्टेटमेंट्स नहीं है कि आत्मा है, ईश्वर है । उसमें कोई दार्शनिक तर्क या वक्तव्य नहीं है।  गीता मानव-जाति का पहला मनोविज्ञान है, इसलिए यह अमूल्य है ।

यदि माना जाए तो श्रीकृष्ण मनोविज्ञान के पिता थे। वे पहले व्यक्ति हैं जो संतापग्रस्त मन, दुविधाग्रस्त मन, टूटे हुए  मन, खण्ड-खण्ड मन को अखण्ड और इंटीग्रेट करते हैं। ये भी कह सकते हैं कि वे न केवल मनोविश्लेषण करते हैं अपितु मनोसंश्लेषण भी करते हैं।  और यही गीता और भगवान् कृष्ण की विशिष्टता है।

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