डॉ. मारकन्डेय आहूजा……कुलपति गुरुग्राम विश्वविद्यलाय जब विद्यालय और महाविद्यालय शिक्षा का केंद्र नहीं थे, जब जन-सामान्य को गुरुकुलों में औपचारिक शिक्षा सहज रूप से उपलब्ध नहीं थी, तब क्या ज्ञान भी नहीं था? क्या ज्ञान पुस्तकों और औपचारिक शिक्षा से ही मिल सकता है? इसका उत्तर भारत के लोकमानस के बीच रहने से सरलता से मिल जाता है। हमारे देश के सामान्य ग्राम्य जीवन में बिना किसी औपचारिक शिक्षा के ज्ञान के अद्भुत प्रसंग प्रतिक्षण उपस्थित रहते हैं। यह वह ज्ञान है जिससे मनुष्य सभ्यताओं का विकास हुआ है और यह सीधे प्रकृति जन्य अनुभवों से प्राप्त होता है । आज भी आपको गांव में आकाश को देखकर आंधी, बारिश या कोहरे का ठीक ठीक अनुमान देने वाले गैर डिग्रीधारक मौसम विज्ञानी मिल जाएंगे, इस ग्राम्य जीवन में धरती की मिट्टी से भूजल की स्थिति बताने वाले भूगर्भशास्त्री भी मिलेंगे जिन्होने कभी औपचारिक शिक्षा नहीं ली। खेती-किसानी के बारे में डिग्रीधारी कृषि विज्ञानियों से अधिक ज्ञान सामान्य किसान को होना हमारे लिए किसी आश्चयज़् की बात नहीं है। इसी प्रकार धर्म, दर्शन और अध्यात्म के सच्चे साधक कबीर और रामकृष्ण परमहंस जैसे देसी दार्शनिकों की भी खोज कठिन नहीं है। भारत के लोकजीवन में ही इस अनुभूति परक ज्ञान का स्त्रोत छिपा है। दिन-प्रतिदिन के संवाद में, बैठकी के किस्सों में, त्यौहारों की कहानियों में, व्रत कथाओं में और परंपराओं में ज्ञान के अनगिनत सूत्र मिलते हैं। गोवर्धन-पर्व को मनाने की कहानी भी लोकजीवन का ऐसा एक प्रसंग है जिसमें प्राणी मात्र के कल्याण के अनेक सिद्धांत मिलते हैं। विज्ञान और तकनीक के भरोसे भौतिक प्रगति के लिए मनुष्य की बेतहाशा दौड़ उसको बार-बार प्रकृति की ओर लौटने के सबक देती है । अब विश्व के प्रमुख देश मिलकर प्रकृति के साथ सामंजस्य बेहतर करने के लिए संकल्प ले रहे हैं। भारतीय लोकजीवन में प्रकृति के साहचर्य का सिद्धांत सदैव रहा है और गोवर्धन पर्व जैसे त्यौहार हर वर्ष इसको स्मरण भी कराते हैं। वैश्वीकरण की उपलब्धियों पर इठलाती दुनिया को कोरोना की विभीषिका ने स्थानीय सहयोग आधारित आत्म निर्भरता के महत्व से भी अवगत करवाया, किंतु गोवर्धन प्रसंग के माध्यम से श्रीकृष्ण तो यह संदेश सदा से देते रहे हैं। आधुनिकता की नई समझ ने स्त्री-पुरुष को एक दूसरे की प्रतिस्पर्धा में खड़ा करने में कोई कसर नहीं उठा रखी है लेकिन गोवर्धन पर्व जैसी कहानियां परस्पर अंतर्निर्भरता की भारतीय दृष्टि का स्मरण कराती हैं। भारतीय लोकजीवन में प्रकृति के महत्व को स्थापित करने वाली अनगिनत कहानियां हैं लेकिन गोवर्धन पर्व को मनाने के पीछे की कहानी अद्भुत है। गोकुल निवासियों का प्रमुख कार्य गौपालन था और इस कार्य के लिए उनकी काफी निर्भरता वर्षा पर थी। पर्याप्त वर्षा से उनके खेत-खलिहान, वन एवं मैदान हरे भरे रहते थे और पशुओं को पर्याप्त चारा मिलता था। इसीलिए गोपी-गोपियां वर्षा के देवता इंद्र को प्रसन्न रखने के लिए प्रतिवर्ष पूजा करते थे, लेकिन श्रीकृष्ण ने उनको समझाया कि वर्षा का होना तो गोवर्धन पर्वत के कारण संभव होता है तो उनको गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए। भोले ब्रजवासियों ने गोवर्धन की पूजा करना प्रारंभ किया तो देवराज इंद्र ने अपना महत्व दर्शाने के लिए भारी बारिश शुरु कर दी और घबराए गौपालकों, गायों और गौवंश को इस बारिश से बचाने के लिए श्रीकृष्ण ने अपनी छोटी उंगली पर गोवर्धन पर्वत को उठाकर छतरी की तरह तान दिया। सभी ब्रजवासियों ने पर्वत के नीचे शरण ली और लगातार सात दिन बारिश करने के बाद इंद्र को भी सत्य का अहसास हुआ और उन्होने श्रीकृष्ण एवं समस्त गौपालकों से क्षमा मांगी। इसी प्रसंग से गोवर्धन पूजा की परंपरा प्रारंभ मानी जाती है। इस प्रसंग के माध्यम से इंद्र को नीचा दिखाने का या सबक सिखाने का उद्देश्य नहीं था, क्योंकि ईश्वर के पूर्णावतार श्रीकृष्ण के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं था। इस घटना के माध्यम से श्रीकृष्ण ने एक नहीं अनेक संदेश ब्रजवासियों को दिए जो कालांतर में समस्त भारतवासियों के लिए जीवन-दशज़्न के रूप में मान्य हुए । गोवधज़्न पवज़्त की पूजा करने और उसके संरक्षण में ही सबके जीवन का आधार होने का संदेश देकर भगवान ने प्रकृति के साहचयज़् का सिद्धांत सहजता से स्थापित किया । पवज़्त का वषाज़् से संबंध, वषाज़् से वनस्पति का संबंध तथा वनस्पति से गौपालन या पशुपालन से संबंध तथा इससे मनुष्यों के कल्याण का संबंध इस प्रकरण से सरलता से सबकी समझ में सम्मिलित हो गया। औपचारिक शिक्षा जगत से जुड़े होने के दशकों के अनुभव से मैं यह कह सकता हूं कि किसी भी शिक्षा पद्धति में इस प्रकार से ज्ञान के सम्प्रेषण की क्षमता नहीं है। इसी प्रकरण में भगवान ने लगातार सात दिन तक पर्वत को उठाने में राधा एवं अन्य गोपियों की सहायता लेकर ग्रामवासियों को अत्यंत साधारण तरीके से स्त्री की शक्ति एवं सामथ्र्य का महत्व भी समझाया। उन्होने समझाया कि भगवान का अवतार होकर भी कोई भी पुरुष, स्त्री की शक्ति के बिना पूर्ण सामथ्र्य को प्राप्त नहीं कर सकता। इस गोवर्धन पर्व की प्रकृति के साथ सामंजस्य की सीख अन्नकूट के प्रसाद की चर्चा के बिना पूर्ण नहीं हो सकती । हम सब इस पर्व में अन्नकूट का प्रसाद ग्रहण कर पूजा सम्पन्न करते हैं। रेफ्रिजरेटर और माइक्रोवेव के अत्यधिक उपयोग के वतज़्मान युग में हम नित-निरंतर स्वास्थ्य की नई-नई समस्याओं से जूझ रहे हैं ऐसे में अन्नकूट प्रसाद से जुड़ा प्रकृति साहचयज़् का संदेश बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। इस प्रसाद को तैयार करने में मौसम की सभी सब्जियों तथा अन्न का उपयोग किया जाता है। यह संदेश है कि अपने भोजन में हम जितना मौसम के अनुकूल आहार को उपयोग करते हैं उतना ही स्वास्थ्य के लिए हितकर होता है। गोवर्धन पर्व से जुड़ी अंतिम बात जो कोरोना काल में हमारे देश के लिए एक अभियान बन चुकी है, वह है आत्मनिर्भरता। भगवान श्रीकृष्ण भोले ग्रामवासियों को इस प्रसंग के माध्यम से संदेश देते हैं कि आपकी आस-पास ही प्रकृति के रूप में आपके देवता उपस्थित हैं अन्यान्य साधनों पर विश्वास करने के स्थान पर अपने इन साधनों पर भरोसा कीजिए और स्वयं को समर्थ बनाइए ताकि आपको विपत्ति के समय में किसी अन्य की कृपा की प्रतीक्षा या प्रार्थना नहीं करनी पड़े। भारतीय समाज और संस्कृति में रची बसी परंपराएं हर युग में प्रासंगिक रही हैं। ब्रज प्रदेश में प्रकृति के प्रतीक पर्वत गिरिराज महाराज के जयकारे में छिपा संदेश हो या गोवर्धन परिक्रमा की परंपरा हो सदैव मानव कल्याण का उद्देश्य इनमें निहित है। आधुनिक जीवन शैली में स्वस्थ बने रहने के लिए पैदल चलने के महत्व को हम सब समझ चुके हैं और गोवर्धन परिक्रमा भी इसी महत्व को स्थापित करने वाली परंपरा है। प्रकृति विरुद्ध विकास वर्तमान युग की सबसे बड़ी चुनौती है। विभिन्न रिपोट्र्स बताती हैं कि गोवर्धन पर्वत का दायरा भी सिकुड़ रहा है, गोवर्धन पर्व की परंपरा एवं आस्था हमें यह दायित्व सौंपती है कि इसका संरक्षण होना चाहिए। हाल ही में दुनिया के शीषज़् नेताओं ने वनों की कटाई बंद करने का संकल्प लिया है, आशा की जा सकती है कि भारत का ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया का जनमानस अपने प्रत्येक गिरिराज की रक्षा का संकल्प लेगा और विश्व को सुरक्षित करने की दिशा में अपना महत्वपूर्ण योगदान देगा। भारत के लोक जीवन में गोवर्धन की कहानी जिस प्रकार रची बसी है उसी के अनुरूप यदि हम अपना जीवन संधान कर पाएं तो निश्चित ही एक सुखी, स्वस्थ एवं समृद्ध संसार निर्मित कर सकते हैं । अक्सर गीता मनीषी स्वामी ज्ञानानन्द जी को गुनगुनाते हुए सुना-तेरी सात कोस की परिक्रमा और चकलेश्वर विश्राम, तेरे माथे मुकुट विराज रहो, श्री गोवर्धन महाराज, प्रकृति वन्दन, संस्कृति वन्दन स्वास्थ्य वन्दन के इस अद्भुत, अनूठे एवं अद्वितीय मिश्रण के पर्व को हम आने वाली पीढिय़ों के लिए संजोए रखने और प्रकृति पर विजय नहीं प्रकृति के साहचर्य की भारतीय परम्परा को बनाए रखने और विश्व को प्राकृतिक आपदाओं से बचाने में अपना सहयोग जारी रखेंगे और सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया के कल्याणकारी मन्त्र का उद्घोष एवं क्रियान्वन करते रहेंगे। Post navigation विधायक ने पार्क का जार्णोद्धार, मूर्ति स्थापना कर बांटा अन्नकूट का प्रसाद सङको पर नमाज पढने वाले जाऐ पाकिस्तान : संयुक्त हिन्दू संघर्ष समिति