भाजपा का संगठन नहीं दिला पाया चुनाव में जीत,
कांग्रेस प्रदेश प्रधान सैलजा की नेतृत्व सक्षम पर भी लगा प्रश्रचिंह,
जाट मतदाता का अब होगा इनेलो की ओर रूझान,
कांग्रेस और भाजपा के प्रत्याशियों पर भी उठने लगे सवाल

ईश्वर धामु

ऐलनाबाद उप चुनाव में जैसा की उम्मीद की जा रही थी इनेलो ने जीत हासिल की। यह सीट इनेलो के विधायक रहे अभय चौटाला के कृषि बिलों के समर्थन में आंदोलन कर रहे किसानों के समर्थन में अपना त्याग पत्र दे दिया था। परिणामतया ऐलनाबाद की विधानसभा सीट खाली हो गई थी। अभी 30 अक्तूबर को हुए उप चुनाव में अभय चौटाला इनेलो के प्रत्याशी के रूप में फिर चुनाव मैदान में उतरे। चुनाव प्रचार अभियान के पहले चरण में लगता था कि ऐलनाबाद में इनेलो, भाजपा और कांग्रेस के बीच मुकाबला होगा। परन्तु जैसे-जैसे मतदान का समय समीप आता गया तो माहौल बदलता गया। मतदान से चार दिन पहले यह स्पष्ट हो गया था कि इस बार इनेलो के अभय चौटाला और भाजपा के गोबिंद कांडा के बीच रहेगा।

इस सीधे मुकाबले में इनेलो के अभय चौटाला ने 6739 वोटों से जीत हासिल कर ली। इस जीत के साथ ही अभय चौटाला ने अपने दादा चौधरी देवीलाल और पिता ओम प्रकाश चौटाला के बाद तीन उप चुनाव जीतने का रिकार्ड बना दिया। अभय चौटाला ने यह उप चुनाव जीत कर यह साबित कर दिया कि ऐलनाबाद चौटाला परिवार के लिए अभेद्य किला है, यंहा सैंधमारी नहीं हो सकती। इतना ही नहीं कांग्रेस प्रत्याशी पवन बेनीवाल की हार के बाद तो कांग्रेस की प्रदेश प्रधान कुमारी सैलजा के अपने गृह जिले के जनाधार पर भी सवालिया निशान लग गया। अब तो यी सिद्ध हो गया कि कुमारी सैलजा अपने ही क्षेत्र में वोटों को प्रभावित करने में सक्षम नहीं है। यह तो चुनाव प्रचार के समय स्पष्ट ही हो गया था कि कांग्रेस मिल कर चुनाव नहीं लड़ रही है। जब भूपेन्द्र सिंह हुड्डा प्रचार के लिण् क्षेत्र में आते थे तो सैलजा समर्थक चुनावी जन सभाओं से दूरी बना कर रखते थे।

यही हाल कुलदीप बिश्राई का रहा। इन नेताओं ने ऐलनाबाद में चुनाव प्रचार तो किया पर न तो वोटर को और न पार्टी कार्यकर्ताओं को प्रभावित कर पाएं। इस उप चुनाव में कांग्रेस के संगठन की कमी भी महसूस की गई। एक ओर कांग्रेस का बिखरा कार्यकर्ता था, जो नेता विशेष के लिए तो काम कर रहा था परन्तु पार्टी के लिए प्रतिबद्ध नहीं था। दूसरी ओर भाजपा के मजबूत संगठन का प्रभाव चुनाव में स्पष्ट देखने का मिला। हालांकि चुनाव प्रचार अभियान में मुख्मंत्री मनोहरलाल और प्रदेश प्रधान ओम प्रकाश धनखड़ के आपसी सम्बंधों पर सवाल उठे और भाजपा प्रत्याशी को मुख्यमंत्री का प्रत्याशी बताया गया। कहीं न कहीं और किसी स्तर पर इन सवालों ने भाजपा के चुनाव को अवश्य प्रभावित किया। चुनाव में मुख्यमंत्री का गुट पूरी तन्मयता से लगा हुआ था। परन्तु भाजपा के आम कार्यकर्ता पर प्रत्याशी गोबिंद कांडा के भाई हलोपा विधायक गोपाल कांडा के बारे में उमा भारती की टिप्पणी अवश्य दिमाग में रही।

यह भी निश्चित माना जा रहा था कि अगर गोबिंद कांडा चुनाव जीत जाते तो गोपाल कांडा का मंत्री बनना तय था। अब इनेलो की जीत राजनीति को बड़ स्तर पर प्रभावित करेगी। इसका सबसे बड़ा असर जाट मतदाताओं पर होगा। यह सच है कि हरियाणा की राजनीति और हर चुनाव को जाट मतदाता पूरी तरह से प्रभावित करता है। पहले ओम प्रकाश चौटाला जाट नेता माने जाते थे। परन्तु हालात बदलने और भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के मुख्यमंत्री बनने के बाद जाट मतदाताओं का बड़ा वर्ग हुड्डा से जुड़ गया था। लेकिन 2019 के चुनाव से पहले इनेलो में हुई टूट के बाद बनी अजय चौटाला के बेटे दुष्यंत चौटाला के नेतृत्व में बनी जेजेपी में इनेलो के कई नेता तो पलायन कर ही गए, साथ में जाट वोट का एक हिस्सा युवा नेतृत्व करने वाले दुष्यंत चौटाला के साथ चला गया।

इस तरह से जाट मतदाता तीन भागों में बंट गए। इसकेा नुकसान कांग्रेस और इनेलो को हुआ। क्योकि भाजपा के साथ जुड़ा जाट मतदाता ने पाला नहीं बदला। लेकिन ओम प्रकाश चौटाला के जेल से आने के बाद राजनैतिक हालात फिर बदल गए। अब ऐलनाबाद की जीत का राजनैतिक लाभ इनेलो को सीधे रूप में मिलेगा।  निसंदेह इनेलो छोड़ कर जाने वाले नेता अब घर वापिसी कर सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो यह इनेलो के लिए किसी ऑक्सीजन से कम नहीं होगा। अब इनेलो सुप्रीमो ओम प्रकाश चौटाला फिर पार्टी को नया जनाधार देने के लिए आगे आयेंगे। वैसे भी चुनावी जीत के बाद इनेलो कार्यकर्ताओं का हौंसला बढ़ा है।

चर्चाकारों का कहना है कि हलोपा से भाजपा में आने वाले गोबिंद कांडा और भाजपा से कांग्रेस में जाने वाले पवन बेनीवाल क्या हार के बाद अपनी पार्टी के प्रति कितने वफादार और सक्रिए रह पायेंगे?

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