डा.सुरेश वशिष्ठ आधी रात, ठूँठ हुए वृक्षों पर लटके अफगानी प्रेत जाग उठते हैं। भयावह उस मंजर की यादें उन्हें रुलाने लगती हैं। ड़र से कांपते हुये तीन प्रेत नगर के रास्ते पर दौड़ने लगते हैं। अपनों की तलाश में भटकते फिरते हैं। आपस में बातचीत भी करते हैं। उन तीन प्रेतों में औरत के एक प्रेत ने, युवक के प्रेत से पूछा–“तुम किसकी तलाश कर रहे हो?” “यहाँ बीच रास्ते में उन्होंने मेरे बूढे अब्बू को पकड़ा था। गन की बट मारते हुए वे खेल पसारने लगे। खिल-खिलकर हँसते भी जा रहे थे। अब्बू की चींखें निकलती रही। वे कभी गिर पड़ते, कभी लुढ़कने लगते। उठने की कोशिश भी करते रहे। वे हँसते रहे और मारते रहे। फिर तड़पा-तड़पाकर कत्ल कर दिया।” दर्द से भरी हूक के साथ वह बिलख पड़ा। तीसरा प्रेत बोल पड़ा–“उसे मेरे सामने मारा गया था। पहले पैर काटे, फिर हाथ काटे और फिर हलाल करते रहे। उफन-उफन कर खून बाहर आता गया। तुम्हारे अब्बू की देह तड़पती रही और वे खून से नहाते रहे…हँसते रहे। फिर बाद में उन्होंने मुझे मारा था। मेरा खून भी दूर तक बह चला था।” इस बार औरत का प्रेत भी रोने से खुद को रोक नहीं पाया। Post navigation गुरुग्राम में खुले में जुम्मा की नमाज को लेकर हुआ जबरदस्त विरोध ‘देखो रूठा ना करो, बात मित्रों की सुनो……’