उमेश जोशी

ऐलनाबाद उपचुनाव के लिए गोविंद कांडा को मैदान में उतारना बीजेपी का हताशा भरा प्रयोग है। बीजेपी जब गहन हताशा में होती है तब वह तरह-तरह के प्रयोग करती है। इस बार भी बीजेपी ने यह प्रयोग ही किया है जो पूर्णतः पार्टी की हताशा और निराशा जाहिर करता है।

गोविंद कांडा रानियां से दो बार चुनाव हार चुके हैं। वे दोनों बार अपने भाई गोपाल कांडा की हरियाणा लोकहित पार्टी से चुनाव लड़े थे। दो बिर धूल चाट चुके व्यक्ति को चुनाव मैदान में उतारना यह साबित करता है कि बीजेपी चुनाव जीतने के लिए नहीं, सिर्फ औपचारिकता निभाने के लिए चुनाव लड़ना चाहती है। बीजेपी उपचुनाव में अपना कोई उम्मीदवार नहीं उतारती तो पार्टी तो कड़ी आलोचना झेलनी पड़ती। पार्टी की  फजीहत होती है। अपनी लाज बचाने के बीजेपी लिए चुनाव लड़ना जरूरी था। इसी मजबूरी के कारण बीजेपी ऐसे उम्मीदवार को ढूँढ कर लाई है जो हार आसानी से पचा सके। इस खाँचे में गोविंद कांडा सबसे अधिक फिट हो रहे थे वे दो बार पहले हार चुके थे इसलिए उन्हें तीसरी हार पचाने में कोई दिक्कत नहीं होगी।

गोविंद कांडा की उम्मीदवारी ने कई राजनीतिक सवाल खड़े किए हैं। अहम् सवाल तो यह है कि बीजेपी के पास अपना कोई उम्मीदवार ही नहीं था। उसे हरियाणा लोकहित पार्टी से उम्मीदवार लेना पड़ा। इसे क्या समझा जाए, यही ना कि बीजेपी बाँझ हो गई है। पिछले सात साल से सत्ता में रहने के बावजूद अपना कोई दमदार नेता पैदा नहीं कर पाई।    

गोविंद कांडा ने अपना नामांकन भरने के सिर्फ चार दिन पहले बीजेपी का दामन थामा है। वह हरियाणा लोकहित पार्टी छोड़ कर आए हैं। यह वही पार्टी है जिसके सुप्रीमो गोविंद कांडा के अपने भाई गोपाल कांडा हैं। इसका सीधा सा अर्थ यह हुआ कि  गोविंद कांडा अपने भाई का साथ छोड़ सकते हैं तो वह बीजेपी के साथ कितने लॉयल रहें, इसका अंदाजा लगाने में किसी को भी कोई दिक्कत नहीं होगी। ऐसे अवसरवादी नेताओं के सहारे बीजेपी की विजय की उम्मीद खोखली दिख रही है।   

गोविंद कांडा को मैदान में उतारने के पीछे बीजेपी की शायद यह रणनीति भी रही होगी कि गोविंद कांडा से पूरा पैसा खर्च करवाएंगे और चुनाव मैदान छोड़ कर भागने के दाग से भी बच जाएंगे, यानी हल्दी लगे ना फिटकरी और रंग चोखा; पैसा किसी का लगेगा और साख बीजेपी की बचेगी। गोविंद कांडा विधायक बनने के लिए 2014 तड़प रहे हैं इसलिए वे बीजेपी के इस हताशा भरे प्रयोग पर सहमत हो गए। बीजेपी के चतुर खिलाड़ियों ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया होगा। वे जानते हैं कि मौजूदा हालात में बीजेपी के लिए चुनाव जीतना नामुमकिन है।  किसानों के लगातार बढ़ते विरोध के बीच चुनाव जीतने की कल्पना करना ही बेमानी है।

बीजेपी ने गोविंद कांडा को उम्मीदवार बनाकर जाट और गैर जाट का कार्ड खेलने का भी प्रयास किया है। बीजेपी गणित यह कहता है कि गैर जाटों के वोट गोविंद कांडा को अवश्य मिलेंगे और उनके बूते गोविंद कांडा अपनी सीट निकाल सकते हैं। बीजेपी के रणनीतिकार यह भूल गए की रानियां में भी जाट और गैर जाट का समीकरण काम कर रहा था फिर भी गोविंद कांडा चुनाव नहीं जीत पाए। यदि बीजेपी यह मान रही है के इस बार बीजेपी और जेजेपी के साथ जुड़े गैर जाट मतदाता गोविंद कांडा की तरफ आने से पलड़ा भारी होगा तो यह बीजेपी की भारी भूल है। पहली बात तो यह है कि जेजेपी के साथ गैर जाट वोट थे ही नहीं, सिर्फ जाट वोट थे। जाट वोटर जेजेपी से निराश होकर कांग्रेस के साथ चले गया है या वापस अपनी मूल पार्टी इनेलो से जुड़ गया है। बीजेपी का जाट वोट गोविंद कांडा को विजय दिलाने के लिए पर्याप्त नहीं है। लिहाजा, ऐलनाबाद में रानियां का नतीजा ही दोहराया जाएगा यानी गोविंद कांडा की नैया गैर जाटों के सहारे पार नहीं हो पाएगी। 

गोविंद कांडा ने जब नामांकन भरा तब कोई खास जनसमूह नहीं था। बीजेपी चुनाव जीतने की मंशा से पर्चा भरती तो कार्यकर्ताओं का बड़ा हुजूम दिखाई देना चाहिए था। तिरंगा यात्रा में भीड़ जुटाई जा सकती है तो ऐसे अवसर पर भीड़ क्यों नहीं थी। कोई भी उपचुनाव सत्तारुढ़ पार्टी के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न होता है लेकिन बीजेपी का प्रतिष्ठा बचाने जैसा तामझाम पर्चा भरने के दौरान नहीं दिखाई दिया। आज के फीके शो से भी साबित हो रहा था कि बीजेपी चुनाव लड़ने की सिर्फ औपचारिकता निभा रही है।

पर्चा भरने के समय पार्टी अध्यक्ष ओम प्रकाश धनकड़, पार्टी के पूर्व अध्यक्ष सुभाष बराला सहित सुभाष बराला और जेजेपी प्रदेश अध्यक्ष निशान सिंह मौजूद थे।  बीजेपी ने सुभाष बराला और जेजेपी में निशांत सिंह को अपना चुनाव प्रभारी नियुक्त किया है। 

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