दिनोद धाम जयवीर फोगाट   

 05 अक्तूबर, सन्तमत में सेवा पर जोर इसीलिए दिया जाता है क्योंकि सन्तमत सहज व सरल भक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। भक्ति दया और प्रेम के बिना सम्भव नहीं है और दया प्रेम केवल सेवा से उपजते हैं। सब एक बूंद से पैदा हुए हैं तो फिर भेदभाव क्यों। ये भेदभाव भी सेवा से ही खत्म होता है। यह सत्संग वचन परमसंत सतगुरु कंवर साहेब जी महाराज ने अपने गुरु परमसंत ताराचंद जी महाराज के 97वें अवतरण दिवस पर होने वाले सत्संग की पूर्व संध्या पर सेवाकार्यो के लिए जुटे सेवादारों को फरमाए। उन्होंने उपस्थित सेवादारों से कहा कि आप इस सत्संग के संचालन के लिए पिछले कई दिनों से सेवा में जुटे हुए हो तो क्या आपके मन मे कोई गन्दा मन्दा ख्याल आया। ये सेवा का प्रताप है कि आप का मन केवल परमात्मा में ही टिका रहता है। हुजूर महाराज जी ने कहा कि तन की पवित्रता सेवा से मन की सुमिरन से और धन की पवित्रता दान से होती है। उन्होंने कहा कि माना कि तन और धन से सेवा हर कोई नहीं कर सकता लेकिन मन तो सबके पास है तो मन की सेवा जो प्रभु के सिमरन से होती है हम वो तो कर सकते हैं। गुरु महाराज जी ने कहा कि मन में उतपन्न ख्यालो में बड़ी ताकत होती है।ये इतने बड़े बड़े आश्रम उस बात का द्योतक हैं कि ये कुल मालिक अवतार परमसंत ताराचंद जी के मन के ख्यालो के कारण ही बन पाए हैं। 

  हुजूर कंवर साहेब जी महाराज ने कहा कि वर्तमान में जीना सीखो आपको कोई दुख और कष्ट नहीं होगा। वर्तमान सुखी होगा तभी भविष्य सुखी होगा। वर्तमान बिगाड़ कर हम अपने अगत में सिर्फ कांटे ही बोते हैं। जिसके पारिवारिक और सामाजिक जीवन मे अशांति है वो कैसे ध्यान भजन और बन्दगी करेंगे। पहले अपना आपा सुधारो तभी औरों के लिए भलाई कर पाओगे। दूसरा अगर आपके साथ बुरा करता है तो भी आप उसके साथ अच्छा करो क्योंकि यदि वो आपके लिए कांटे बोता है तो पहले वो कांटे उसी को मिलेंगे। उन्होंने कहा कि जिस बात के लिए सन्त मना करें वो कभी ना करो। फकीरी रास्ता इतना आसान नहीं है।फकीरी का तो अजीब सा ही आलम है। जिसने फकीरी को पा लिया वो तो सबसे बड़ा बादशाह होता है।                   

उन्होंने फरमाया कि जिस परमपुरुष का हम अवतरण दिवस मनाने जुटे हैं उन्होंने असली फकीरी पाई थी। परमसंत ताराचंद जी महाराज ने खुद अनेकों कष्ट झेले लेकिन दुनिया को रूहानी दौलत से मालामाल कर गए। गुरु महाराज जी ने सेवादारों को सेवा का महत्व समझाते हुए कहा कि जो सेवा करना जान गया वो भक्ति भी करना जान जाता है। उन्होंने कहा कि आपको किसी और के गीत गाने की आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि आपके लिए सबसे बड़े आदर्श तो इसी धरा पर जन्में ताराचंद जी महाराज का जीवन है। अपने सेवा भाव से उन्होंने इतना बड़ा अध्यात्म का केंद्र बना दिया जहां दुनिया अपने कर्म सुधारती है। अपना जीवन सुधारने का सबसे बड़ा मन्त्र आपके पास ही है। सेवा आपके मन को पवित्र करती है और पवित्र मन ही आपके सुख का मंत्र है। हुजूर महाराज जी ने कहा कि जिस प्रकार हम घर मे दूध को मथ कर मखन निकालते हैं वैसे ही सन्त सतगुरु भी अपने जीवन को मथ कर आपके लिए भक्ति का अमृत निकालते हैं। ये अमृत आप सन्तो के वचन की पालना करके पा सकते हो। जो मरजीवे हैं वे ही इस माखन को पाते है। उन्होंने कहा कि क्यों किसी की चाकरी करते हो। जब परमात्मा सब का मालिक है तो वो किसी को भूखा नहीं मरने देगा। उन्होंने कहा कि ना अजगर किसी की चाकरी करता है ना पक्षी किसी निंदा चुगली में अपना समय बिताते हैं फिर भी उनके दाना चुगे का प्रबंध परमात्मा करता है। उन्होंने कहा कि इंसानी जीवन मिला है तो भर्मो की नींद त्यागो। मन में तलब तड़फ पैदा करो, हरि के जन बनो। फिर देखो आप जीवन के रसो का भोग छोड़ कर कैसे परमात्मा के रस का आनन्द लोगे।

  हुजूर महाराज जी ने कहा कि आगे की चिंता मत करो। हम जो कुछ कर सकते हैं वो अभी इसी जीवन में कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि पहले परमात्मा के नाम के जाप की आदत डालो। एक दिन यही जाप अजपा बन जायेगा और अजपा अगले दर्जे पर पहुंच कर तीनो अवस्थाओं में अनहद जाप में परिवर्तित हो जाएगा। उन्होंने कहा कि अभ्यास करते करते एक दिन ये अनहद जाप आपके जीवन का अभिन्न हिस्सा बन जायेगा। उन्होंने फरमाया कि जाप भी इस त्रिगुणात्मक संसार में तीन तरह का ही होता है। सन्तमत इसीलिए सार्थक मत है कि सन्तो ने भक्ति को गृहस्थी के साथ ही सुझाया। उन्होंने कहा कि अति किसी कार्य में मत करो क्योंकि अति हर चीज की घातक है। अति की ना वर्षा अच्छी ना धूप। अति का बोलना भी अच्छा नहीं और चुप रहना भी। इसी प्रकार घर में यदि धन अति का हो जाता है तो वो भी तकलीफ देता है। जिस प्रकार नाव में पानी बढ़ने पर हम उसे दोनो हाथों से उलीचते हैं वैसे ही घर में धन बढ़ जाये तो उसे भी दोनो हाथों से उलीचना चाहिए।                           

उन्होंने कहा कि नाम जपो, काम करो और आराम करो। उन्होंने कहा कि बड़े बुजुर्ग भी कहते हैं कि सौ काम छोड़ कर नहाना चाहिए, हजार काम छोड़ कर खाना चाहिये और करोड़ काम छोड़ कर परमात्मा का नाम लेना चाहिए। उन्होंने इस अवसर पर नए शब्द संग्रह का विमोचन किया। उल्लेखनीय है कि कल राघास्वामी सत्संग दिनोद की संगत आश्रम के अधिष्ठाता ताराचंद जी का 97वां जन्मदिवस मनाएगी। इस अवसर पर रक्तदान शिविर और मुफ्त वैक्सीनशन कैम्प भी लगाया जाएगा।

स्वतः सन्त थे परमसंत ताराचंद जी महाराज : संक्षिप्त जीवन परिचय

किसने सोचा था कि हरियाणा प्रांत के जिला भिवानी के गांव दिनोद की ऊसर मरुभूमि में अध्यात्म का ऐसा बीज पनपेगा कि कालांतर में विशाल वटवृक्ष के रूप में कल्पतरु की भांति काल व माया की उष्णता से त्राहि-त्रहि रहे जीवों को ना सिर्फ रूहानी छाया देगा अपितु उनके हर भाव व हर आकांक्षा को भी तृप्त करेगा।                                   

दिनोद गांव में 16 अगस्त 1925 देसी कैलेंडर के अनुसार आसौज मास की अमावस्या को कुल मालिक ने चौ मूलाराम मलहान के घर माता चावली देवी की कोख से देह धारी। आलौकिक बालक का नाम ताराचंद रखा गया जो कालांतर में इस जगत में परमसंत ताराचंद जी महाराज के रूप में विख्यात हुआ।     

राधास्वामी आश्रम दिनोद की संगत उनको बड़े महाराज जी के आदर भाव से भी पुकारती है। बड़े महाराज जी का जीवन कष्टों से अछूता नहीं रहा बल्कि यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उन्होंने पूरा जीवन अपने से पूर्व और समकक्ष सन्त महात्माओं से ज्यादा ही कष्ट सहे। कष्टों का यह सिलसिला उनके होश सम्भालने से पूर्व ही तभी से प्रारम्भ हो गया था जब उनके सर से मां का साया उठ गया था। दादी की गोद मिली लेकिन ये आँचल भी ज्यादा समय नहीं रहा और बचपनावस्था में ही दादी भी उन्हें जीवन के प्रारंभिक कष्टों के झंझावत में अकेला छोड़ गई। इसके पश्चात् तो उनके जीवन में सामाजिक अपमानों और तिरस्कारों की मानो झड़ी लग गई, जिन्होंने उनके जीवन को दुश्कर तो बनाया लेकिन उनके आलोक को डिगा नहीं पाए। आग में तप कर ही कुंदन सोना बनता है फिर कुल मालिक अवतार ताराचंद जी तो वो आलौकिक हीरा थे जिसकी चमक अभी पूरे विश्व में फैलनी थी। पांच वर्ष की अल्पायु में ही भक्ति की हिलोर उठने लगी थी। भक्त प्रह्लाद और धुव्र की भांति आप भी आसपास के इलाके में भगत के नाम से जाने जाने लगे। अबोध अवस्था में ही उन्होंने अपने गांव व आसपास के साधु संतों का संग करना शुरू कर दिया।

 हरियाणा प्रांत के गांव जुई में रहने वाले सन्त राम सिंह अरमान से 1946 में नाम की दीक्षा देकर सुरत-शब्द के योग से आप सन्तमत की भक्ति करने लगे। अरमान साहब ने नाम दान देने का और सत्संग करने का हुक्म सुनाया तो दिनोद की गांव से धाम में परिवर्तन की यात्रा भी प्रारम्भ हो गई। राधास्वामी मत की सुगंध फैलने लगी। जब फूल खिलता है तो उस पर दूर-2 से आकर भंवरे मंडराने लग जाते हैं। अतः दूर-2 से भारी संख्या में स्त्री-पुरुषों ने उनका आशीर्वाद व शुभ वचन प्राप्त करने के लिए उनके पास एकत्र होना शुरू कर दिया। इसके बाद गिने दिनों में देश के विभिन्न भागों में ही नहीं वरन् अमेरीका, कनाड़ा और ब्रिटेन आदि देशों में भी सत्संग फैल गया। 

हुजूर ताराचंद जी महाराज ने अपने जीवन काल में विदेशों की 20 यात्राएं कीं। उनकी अनमोल वाणी ‘अनुभव प्रकाश’ नामक पुस्तक में प्रकाशित है। यह पुस्तक उनकी आध्यात्मिक अवस्था का परिचय कराती है। उन्होंने इस पुस्तक में ‘कंवल भेद’ नामक शीर्षक के अन्तर्गत मानव सरंचना के सभी आन्तरिक मण्डलों का वर्णन किया है। ऐसा वर्णन पहले  केवल दो सन्तों कबीर साहब और उनके बाद में स्वामी जी महाराज की बाणियों के अन्तर्गत ही मिलता है। उनकी शिक्षाओं का सार है कि जीव का कल्याण उसके अपने शरीर व घर परिवार से ही आरम्भ होता है। उन्होंने सहज भक्ति पर ही बल दिया। वे इंसान को भक्ति से पहले सामाजिक पाठ पढ़ाते थे। वे मात पिता की सेवा को सबसे बड़ी सेवा बताते थे।  प्रेरणादायी सत व्यक्तित्व के धनी परम सन्त ताराचन्द जी महाराज ने अपने जीवन में उच्च कोटि के नियम निर्धारित कर रखे थे। आप सच्चे अर्थो में कर्मयोगी परम पुरुष थे। कुल मालिक के इस अवतार ने 3 जनवरी 1997 को अपनी दौलत अपने परम गुरुमुख शिष्य परम सन्त हुजूर कंवर साहेब जी महाराज को सौंप कर अपने निज धाम की राह ली। संसार उनके दिखाए रास्ते पर उत्तरोत्तर चलकर अपने जगत-अगत को सुखमय बनाता रहेगा।

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