बंटवारे के जखम ने बड़े भाई की सोहबत ने डकैत की जगह सिपाही बना दिया मिल्खा को ।
पाकिस्तान जाने की झिझक को नेहरू की समझाइस ने किया खत्म।
मिल्खा बोल पड़े ”मैं भी खुदा का बन्दा हूँ,” अल्लाह इसे भी जीत बक्शें।
मात्र 20.7 सेकंड में दौड़ मार, पूरे विश्व में नया रिकॉर्ड बनाया।
अयूब ने दिया था मिल्खा को “उड़न सिख” नाम।
प्रताप सिंह कैरों की मध्यस्थता ने कराया सिख मिल्खा सिंह  हिंदू निर्मल कौर शादी का बंधन।

अशोक कुमार कौशिक

 पाकिस्तान चैंपियन अब्दुल खलीक। साठ का दशक था और जनवरी का सर्द महीना। पकिस्तान के उर्दू अख़बारों में हेडलाइन छपी ‘खलीक बनाम मिल्खा – पाकिस्तान बनाम इंडिया’। मिल्खा के लिए उस मुल्क में लौटना एक ट्रौमा से कम न था जिसमें अपने मां-बाप, भाई बहनों के गले कटते हुए अपनी आंख के सामने देखा था। मिल्खा का जन्म अविभाजित भारत में हुआ था, जिसे आज पाकिस्तान कहते हैं। जब साल 1947 में हिंदुस्तान की सरजमीं पर दो लाइनें खींच दी गईं। इधर हिंदुस्तान में मुसलमान मारे गए, उधर दूसरे मुल्क में सिख और हिन्दुओं के कत्लेआम किये गए।

मिल्खा का परिवार भी हिंदुस्तान आने के क्रम में ही था कि मिल्खा के मां-पिता और आठ भाई-बहनों को मौत के घाट उतार दिया, बचे मिल्खा । भागते-गिरते-गिराते बचते हुए अकेले ही भारत आ पहुंचे, दिल्ली के शरणार्थी कैंपों में रहे। कोई काम नहीं मिलता था उन दिनों, मन हुआ कि डकैत बन जाऊं । पर बड़े भाई की सोहबत ने डकैत न बनने दिया। दूसरा ऑप्शन सेना में सिपाही बन जाना था, 1951 में मिल्खा सिपाही हो गए।

शुरुआत में पाकिस्तान जाने के सवाल पर मिल्खा झिझकने लगे। तभी हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु से उनकी बात होती है, नेहरु ने मिल्खा से कहा- तुम्हारे पास इस मुल्क का प्यार और स्नेह है, हम सब तुम्हारे साथ हैं, इसलिए अतीत को भुला दो, उन्होंने दोस्ती की भावना से तुम्हें अपने यहां दौड़ के लिए निमंत्रण भेजा है। मैं चाहता हूं तुम वहां जाओ और हमारे देश का प्रतिनिधित्व करो।” नेहरु से तसल्ली मिल जाने के बाद मिल्खा पाकिस्तान जाने के लिए तैयार हो गए।

बाघा बॉर्डर पार करते ही मिल्खा की जीप पर पाकिस्तानियों ने फूल बरसाए, फूल बरसाने वाले और इस स्वागत से खुश होने वाले दोनों ही लोगों ने विभाजन में जरूर अपने खोए रहे होंगे। फिर भी आज दोनों अपना अतीत भुलाकर भविष्य के साथ न्याय बरतना चाहते थे। सड़क के दोनों पार खड़े लोग हिन्दुस्तानी खिलाड़ी को चीयर कर रहे थे, खुश हो रहे थे । ये वो दो मुल्क मिल रहे थे जिन्होंने दस साल पहले ही अपनी अपनी तलवारों को एक दूसरे के गले से नीचे उतारा होगा। मगर इस दिन का आना इस बात की गुंजाइश का भी गवाह था कि लाख नफरतों में मोहब्बत के फूल उगाए जा सकते हैं। इधर के बाग़ में नेहरु जैसा जहीन माली था उधर भी किसी का दिल हिंदुस्तान के लिए पिघला होगा। 
मिल्खा के पहुंचते ही उर्दू अख़बारों में एकबार फिर हेडलाइन बनीं खलीक बनाम मिल्खा, पाकिस्तान बनाम हिंदुस्तान ”

रेस वाले दिन लाहौर स्टेडियम में 60 हजार लोग इकट्ठे हो गए, जिनमें बीस हजार महिलाऐं थीं। रेस शुरू होने से पहले मौलवी आए, प्रार्थना की गई, मोहम्मद याद किये गए । खलीक के लिए दिल भर दुआएं माँगी गईं । मिल्खा के लिए दुआएं मांगने वाला कोई पुरोहित वहां न था, खलीक के लिए दुआएं मांगने के बाद जैसे ही मौलवी लौटने को हुए, मिल्खा बोल पड़े ”मैं भी खुदा का बन्दा हूँ।” इसे सुनने के बाद दो मुल्कों की दीवारें ढह गईं, दो धर्मों के दरवाजे एक आंगन में आकर मिल गए । मौलवी रुक गए, और मिल्खा के लिए भी दुआएं कर दीं, या अल्लाह इसे भी जीत बक्शें।

कुछ देर बाद रेस शुरू हो गई। खलीक सौ मीटर की रेस मारने वाले महान लड़ाका थे और मिल्खा थोड़ी दूर तक जाने वाले जांबाज घोड़ा थे, मुकाबला दो देशों के साथ-साथ दो वीरों का भी था। दोनों में से कोई उन्नीस बीस नहीं। दोनों बराबर, दोनों किसी युद्ध में खड़े आखिरी सेनापति जैसे। शुरुआत में ही खलीक मिल्खा से दो कदम आगे निकल गए, खलीक आगे आगे, मिल्खा पीछे पीछे, लेकिन 150 यार्ड होते-होते मिल्खा बराबरी पर आ गए, अगले ही पल खलीक पीछे छूट गए । मिल्खा ने मात्र 20.7 सेकंड में वो दौड़ मार दी। पूरे विश्व में वो नया रिकॉर्ड बना। मौलवियों की दुआएं शायद मिल्खा को लग गईं। खलीक हार गए, मिल्खा विजयी हुए।

चारों ओर साठ हजार पाकिस्तानी मायुश। पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब मिल्खा के पास पहुंचे और जीत की माला पहना दी। अयूब मिल्खा से बोले- ”Milkha you did not run, you flew”. मतलब तुम दौड़े नहीं यार, तुम तो उड़े।

पूरी दुनिया के अख़बारों में अगले दिन ये खबर छप गई. अयूब के शब्दों ने मिल्खा का नया नामकरण कर दिया, हर जगह एक ही लाइन छपी ‘Milkha you did not run, you flew” यहीं से मिल्खा का नाम पड़ा ‘फ्लाइंग सिख’

जिस पाकिस्तान ने मिल्खा से उसके मां-बाप को छीना उसी पकिस्तान ने उन्हें जी भर मोहब्बत दी। पाकिस्तान से लौटने के बाद मिल्खा के आगे दो शब्द और जुड़ गए ”फ्लाइंग सिख मिल्खा।” यही भारत मां का उड़ने वाला इकलौता बच्चा । अपना हंस लेकर कल किसी दूसरे आसमान में उड़ गया।

भारत के महान धावक मिल्खा सिंह का बीती रात निधन हो गया है। उन्होंने 91 साल की उम्र में चंडीगढ़ के पीजीआई अस्पताल में अंतिम सांस ली। पिछले एक महीने से वे कोरोना से लड़ रहे थे। चार बार एशियन गेम्स के गोल्ड मेडलिस्ट मिल्खा सिंह को मई में कोरोना पॉजिटिव पाए जाने पर अस्पताल में भर्ती कराया गया था। 

मिल्खा सिंह को 3 जून को पीजीआई में भर्ती कराया गया था। इससे पहले उनका घर पर ही इलाज चल रहा था लेकिन ऑक्सीजन लेवल कम होने पर अस्पताल ले जाया गया। हालांकि वे बुधवार को कोरोना नेगेटिव आ गए थे। इसके बाद उन्हें कोविड आईसीयू से सामान्य आईसीयू में भेज दिया गया था। लेकिन इस बीमारी के चलते हुई जटिलताओं के कारण उनकी हालत गंभीर हो गई थी। इसके तहते शुक्रवार को उनका ऑक्सीजन स्तर कम हो गया था और बुखार आया था । अस्पताल के सूत्रों ने बताया था कि उनकी हालत गंभीर हो गई थी।

 पांच दिन पहले पत्नी का निधन

इसके बाद उनके परिवार की ओर से भी बयान आया था। इसमें कहा गया था, ‘मिल्खा जी के लिये दिन थोड़ा मुश्किल रहा । लेकिन वह इससे संघर्ष कर रहे हैं.’इससे पहले उनकी पत्नी निर्मल कौर का कोविड-19 संक्रमण से जूझते हुए 13 जून को मोहाली में एक निजी अस्पताल में निधन हो गया था। कौर खुद एथलीट रही थीं । वह भारतीय महिला वॉलीबॉल टीम की कप्तान रह चुकी थीं। मिल्खा सिंह के साथ निर्मल कौर की शादी साल 1962 में हुई थी।

मिल्खा सिंह और निर्मल कौर की प्रेम कहानी भी जोरदार रही है। खेल के मैदान में ही दोनों की आंखें चार हुई और फिर प्यार की गाड़ी चल पड़ी। लेकिन निर्मल से मिलने से पहले मिल्खा का नाम कई लड़कियों के साथ जुड़ चुका था। एक दो नहीं पूरी तीन लड़कियों से अपने प्यार की हसीन दास्तान गढ़ चुके थे, हमारे फर्राटा किंग।

लेकिन वो कहते हैं न कि होता वही है जो नियति में लिखा होता है । मिल्खा सिंह का चक्कर तो चला पर उन 3 लड़कियों में से किसी के साथ उनकी शादी नहीं हो पाई। अब होती भी कैसे, उनके तार तो खेल के मैदान पर जुड़ने लिखे थे। एथलेटिक्स के राजा को वॉलीबॉल की रानी के प्यार में जो पड़ना था । और, सिर्फ प्यार में ही क्यों जनम भर के लिए एक दूजे का हाथ भी पकड़ना था।

पहली नजर में हो गई थी आंखें चार

साल 1955, जगह श्रीलंका का कोलंबो। भारत की वॉलीबॉल प्लेयर और टीम की कप्तान निर्मल कौर से मिल्खा सिंह की पहली मुलाकात इसी साल, इसी जगह पर हुई थी। दोनों एक टूर्नामेंट में हिस्सा लेने कोलंबो पहुंचे थे। एक भारतीय बिजनेसमैन ने टीम के लिए डिनर पार्टी रखी थी। इसी पार्टी में मिल्खा सिंह ने पहली बार निर्मल कौर को देखा था । और देखा क्या था, देखते ही दिल दे बैठे थे। जैसा कि उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में भी फरमाया है कि उन्होंने निर्मल को देखते ही पसंद कर लिया था। उन्होंने बताया कि हमारे बीच काफी बातें भी हुई। पास में कोई कागज नहीं था, लिहाजा मैंने निर्मल के हाथ पर ही होटल का नंबर लिख दिया था।

असली प्यार तो 1960 से शुरू हुआ

पहली मुलाकात के बाद दोनों साल 1958 में दोबारा मिले। पर प्यार की रूकी गाड़ी ने रफ्तार पकड़ी साल 1960 में जाकर, जब दोनों की मुलाकात दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में हुई। ये वो दौर पर जब मिल्खा भारतीय खेलों का एक बड़ा नाम बन चुके थे। कहते हैं दो प्यार करने वालों को कॉफी पीने का बस बहाना चाहिए होता है । यही कॉफी मिल्खा सिंह और निर्मल कौर के बीच भी बार बार मुलाकात की वजह बन गई।
प्यार की राह में ससुर जी का रोड़ा, मुख्यमंत्री से मानें

अब प्यार हो गया, इजहार हो गया। मिल्खा खिलाड़ी बड़े थे, इसलिए चर्चा भी होने लगी। लेकिन, सवाल शादी का था। अपने प्यार को एक नया नाम देने का था। ये काम आसान नहीं था। क्योंकि मिल्खा सिंह के ससुर जी मानने को जो तैयार नहीं थे। दरअसल, निर्मल हिंदू परिवार से थीं और मिल्खा सिख थे। ऐसे में मसीहा बनकर सामने आए पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों, जिन्होंने समझाबुझा कर परिवारों को राजी किया और दो प्यार करने वाले खिलाड़ियों के एक होने का रास्ता साफ किया। साल 1962 में मिल्खा सिंह और निर्मल कौर आखिरकार शादी के बंधन में बंध गए।

ओलिपिंक मेडल से चूक गए थे मिल्खा

मिल्खा सिंह ने चार बार एशियन गेम्स में गोल्ड मेडल जीता है । साथ ही वह 1958 कॉमनवेल्थ गेम्स के चैंपियन भी हैं । फिर 1960 के रोम ओलिंपिक खेलों में 400 मीटर की दौड़ में वे मामूली अंतर से पदक से चूक गए थे और चौथे स्थान पर रहे थे। वे 1956 और 1964 के ओलिंपिक खेलों में भी शामिल हुए थे। 1959 में उन्हें पद्मश्री सम्मान मिला था।

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