संघ , भाजपा का ऐसा “आक्सीमीटर” , जिसके कार्यकर्ता कंधे पर झोला टाँग कर लोगों से बात कर के हर प्रदेश में अपनी सरकार का “आक्सीजन” लेबल पता करते रहते हैं।
योगी का भाजपा के पास कोई विकल्प नहीं।
यदि अखिलेश यादव ने बहुत सोच समझ कर पासा फेंका तो वह फिर से मुख्यमंत्री बन सकते हैं।

अशोक कुमार कौशिक 

अमेरिका , आस्ट्रेलिया और फ्रांस की शार्ले आब्दो समेत विश्व की तमाम प्रतिष्ठित पत्रिकाओं ने कोरोना को लेकर भारत में हुए मिस्मैनेजमेन्ट की जिन तस्वीरों के साथ प्रधानमंत्री मोदी की आलोचना की वह लगभग सब उत्तर प्रदेश की ही थीं।

और मोदी की प्राथमिकता है कि देश और देशवासी भले बर्बाद हो जाएँ , उनकी छवि को नुकसान नहीं पहुँचना चाहिए। मगर यह सच है कि ना सिर्फ विदेशी बल्कि देश की तमाम पत्रिकाओं और समाचार पत्रों ने कोविड काल में मोदी से हुई गलतियों को लेकर उन पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष निशाना साधा है और इससे मोदी की छवि पर चोट पहुँची है।

नमें “आउटलुक” , “दैनिक भास्कर” , “इंडिया टुडे”, “द टेलीग्राफ” के अतिरिक्त छोटे शहरों से प्रसारित होने वाले असंख्य समाचार पत्र हैं। सबके सब के निशाने पर “उत्तर प्रदेश” के अस्पताल , शमशानघाट और बहुत हद तक सरकार के दमनकारी फैसले भी रहे हैं।

संघ , भाजपा का ऐसा “आक्सीमीटर” है , जिसके कार्यकर्ता कंधे पर झोला टाँग कर या पहचान छुपाकर लोगों से बात कर के भाजपा , मोदी और हर प्रदेश में अपनी सरकार का “आक्सीजन” लेबल पता करते रहते हैं। संघ के इन्हीं स्वयंसेवकों ने इस बार योगी और उनकी सरकार का आक्सीजन लेबल 60 बता दिया है , अर्थात खतरे के निशान पर पहुँच गया है।

यही कारण है कि पिछली 24 मई को संघ ने अपनी आक्सीमीटर रिपोर्ट के साथ भाजपा नेताओं के साथ बैठक कर उत्तर प्रदेश में आक्सीजन लेबल सुधारने पर मंथन किया। इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, बीजेपी अध्यक्ष जे पी नड्डा , संघ के नंबर दो हैसियत वाले सरकार्यवाह दत्तात्रेय हसबोले और उत्तर प्रदेश के संगठन मंत्री सुनील बंसल मौजूद थे।

ध्यान दीजिए कि इस बैठक में ना तो योगी  थे ना प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह , अर्थात यह मीटिंग ऐसी थी जिसमें प्रदेश की इकाई और सरकार का कोई पक्ष नहीं था , मतलब संघ और केन्द्रीय नेतृत्व की चर्चा मात्र। इसी से पिछले 3 दिनों से यह चर्चा हवा में तैर रही कि उत्तर प्रदेश में होने वाले 6 महीने बाद की चुनावी सरगरमी के पहले कुछ उलटफेर होगा। मुझे यह कोरी बकवास से अधिक कुछ नहीं लगता।

इसके दो कारण हैं , एक तो भाजपा के पास मुख्यमंत्री योगी के स्तर का उत्तर प्रदेश में कोई चेहरा नहीं और ना उनके जितना किसी के पास जनाधार है। यह सत्य है कि उत्तर प्रदेश का भगवा वोटर मोदी की अपेक्षा अब योगी योगी अधिक करने लगा है और योगी की मर्ज़ी के बिना कोई फैसला लेना खुद भाजपा के लिए ही घातक हो जाएगा।

मेरा आकलन है कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ , भाजपा समर्थकों में नरेन्द्र मोदी से बड़ा चेहरा हैं तो वह अपनी कट्टर हिन्दुत्व की राजनीति के कारण ही जो मोदी केवल चुनाव में दिखाते हैं जबकि योगी सदैव उसी मोड में रहते हैं। हाँ , संगठन में थोड़ा बहुत बदलाव हो सकता है , सरकार में भी कुछ फेरबदल हो सकता है , नरेन्द्र मोदी के खासमखास पुर्व नौकरशाह अरविंद शर्मा को कुछ ज़िम्मेदारी दी जा सकती है पर योगी का भाजपा के पास कोई विकल्प नहीं।

उत्तर प्रदेश में अक्टूबर 2021 अर्थात 5 महीने बाद से ही चुनावी बिसात बिछनी शुरू हो जाएगी क्युँकि मार्च-2022 में नयी विधानसभा का गठन होना है।योगी सरकार के प्रति उसके परंपरागत भगवा वोटर्स के अतिरिक्त अन्य वोटर्स में नाराज़गी तो है , जिनमें ओबीसी में तो बहुत बड़ी संख्या में है और बहुत हद तक दलित और ब्राम्हणों में भी है।

सबसे पहले आपको 2017 की भाजपा की प्रचंड जीत का सूत्र समझना होगा , और वह थे पहला तो भाजपा के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्या को लगभग अघोषित रूप से मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करना जिससे बसपा सपा के कोर वोटर्स मौर्या और कुशवाहा का भाजपा के पक्ष में वोट करना और दूसरे थे सभी बड़ी पार्टियों के लगभग 250 मुसलमान उम्मीदवार।

जिन जिन सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार थे , दलित और ओबीसी समेत तमाम बहुसंख्यकों का ध्रुवीकरण भाजपा और संघ करा ले गयी। यही मूल कारण थे भाजपा के 2017 में 325 सीट जीतने के।

अब आज की स्थीति ऐसी है कि ब्राम्हण और ओबीसी ठगा महसूस कर रहा है , ओबीसी तो केशव प्रसाद मौर्या को मुख्यमंत्री ना बनाने के समय से ही ठगा महसूस कर रहा है और ब्राम्हण भी सरकार की जातिवादी ठसक से त्रस्त है , उदार बनिया भी परेशान है।

यदि अखिलेश यादव ने बहुत सोच समझ कर पासा फेंका और भाजपा और संघ को ध्रुविकरण से रोक लिया तो उत्तर प्रदेश के वह फिर से मुख्यमंत्री बनते दिख सकते हैं।

इसके लिए उनको अघोषित रूप से मायावती और काँग्रेस को साधना होगा और उनके नेताओं के बयान और टिकट वितरण में अघोषित सामंजस्य बिठाना होगा। अयोध्या के मंदिर निर्माण को समर्थन और घोषणापत्र में शामिल करना होगा क्युँकि अब उस पर विवाद की कोई अहमियत नहीं। कृषि के लिए बिजली मुफ्त और घरेलू बिजली पानी के लिए केजरीवाल नुस्खे की घोषणा करना चाहिए।

प्रत्याशी चयन में काँग्रेस और मायावती ब्राम्हण तथा दलित चेहरे को वरीयता दे और समाजवादी पार्टी ओबीसी चेहरों को वरियता दे , मुसलमानों को कम से कम टिकट दे तो 2022 में भाजपा की हार को कोई नहीं रोक सकता।

फिर आप कहेंगे कि “अब्दुल” को क्या मिला ? बेहतर उत्तर आप खुद जानते हैं , अब्दुल को फिलहाल विधायक नहीं कमाने और पढ़ाने की आज़ादी और पहचान बनाए रखने की स्वतंत्रता चाहिए। बाकी वह खुद कर लेगा।

अखिलेश की हैसियत-

ये जो 224 सीटें आयी थी ये अखिलेश की हैसियत थी, पार्टी जिसे गुंडों की पार्टी भी कहते थे। विपक्षी लोग 5 साल में  एक आरोप नहीं लगा पाये। 18 लाख लैपटॉप बिना भेदभाव बाँट दिए। पुरे उत्तरप्रदेश में अखिलेश  पर एक भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लग पाया । चीनी, दूध, आलू, डेरी अदि में उत्तर प्रदेश को पहला स्थान दिलाना , निवेश में उत्तर प्रदेश का पूरे देश में दूसरे नंबर पर आना , देश में उत्तरप्रदेश का दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनना, विपक्षी दलों के पास इनके जैसा कोई बेदाग़ चेहरा नहीं था।  प्रधानमंत्री और गृहमंत्री भी जिसके विकास की तारीफ़ करें, लाखो विधवाएं उन्हें दुआ देती है विधवा पेंशन के लिए ये उन्ही की हैसियत है। 

पर अखिलेश जैसा दूसरा कोई विकल्प नहीं पूरा प्रदेश और जनता ये बात कहती है कि अखिलेश जैसा विकास किसी ने नहीं कराया, अखिलेश उस शखस का नाम है जिसके किए गए काम के फीते आज तक योगी की सरकार काट रही है । 

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