है अंधेरी रात पर, दीया जलाना कब मना है ?

कोरोना-प्रलय के बीच मानवता की दरकार।

मुकेश शर्मा  राजनीतिक विश्लेषक

कोरोना की दूसरी लहर आने के साथ ही अप्रैल, मई 2021 के कुछ दिनों में तो ऐसा लग रहा था कि मानों देश की मेडिकल व्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त हो गई है।हजारों लोगों ने ऑक्सीजन,सही उपचार न मिल पाने के कारण अपने प्राण त्याग दिये।लेकिन ध्यान दें,इस कोरोना काल में मेडिकल व्यवस्था के साथ कुछ और भी ध्वस्त हुआ और वह है मानवता।मानवीय मूल्य।

कोरोना काल में आत्मकेंद्रित होते जा रहे लोगों का जो संवेदनशून्य, अमानवीय चेहरा सामने आया, वह झकझोर देने वाला है।सोशल-डिस्टेंसिंग की आड़ में लोगों ने मदद के अभाव में दम तोड़ रहे अपने निकट बंधु-बांधवों, रिश्तेदारों, मित्रों,पड़ोसियों के प्रति आँखें मूँद ली और आत्मरक्षा की आड़ में अपने घरों में दुबके रहे।जो मदद वे अपने घरों में बैठे, बैठे कर सकते थे, उतनी मदद भी नहीं की।

अपने निजी हितों को लेकर पूरी तरह से जागे हुए समाज के ये वो लोग हैं, जिन्हें यदि आज कोई सरकारी परमिट, लाइसेंस, सप्लाई ऑर्डर या दूसरा कोई फायदा मिलना हो तो वे बिना ही मूवमेंट पास के छह घण्टे कार चलाकर एक राज्य से दूसरे राज्य में घुस सकते हैं।तब इनके लिए कोरोना का कोई भय नहीं है।शर्त केवल यह है कि व्यक्तिगत फायदा मिलना चाहिए।अब भला किसी की हारी,बीमारी, मृत्यु में इन्हें क्या मिलना है?स्वयं को सुरक्षित रखते हुए किसी की मदद  करनी पड़ जाए तो कोरोना-प्रकोप है,लेकिन व्यक्तिगत फायदे के लिए भागदौड़ करनी पड़ जाए तो कोई कोरोना-प्रकोप नहीं है,ये इसी समाज के कुरूप चेहरे के प्रतिनिधि हैं।

कोरोना से निपटने के लिए जिस स्तर की तैयारी की ज़रूरत थी, चुनाव में व्यस्त रहे बड़े नेता उतना ध्यान इस ओर नहीं दे पाये या जो भी कारण रहा हो।लेकिन समाज में स्वयं को सुरक्षित रखते हुए,तड़प रहे लोगों की मदद के लिए भला कौन रोक रहा था?ध्यान रहे कि इसमें सरकार की कोई भूमिका नहीं है, यह तो लोगों को ही जाँचना था कि उनका ज़मीर पूरी तरह से मर चुका है या कुछ साँसें बाकी हैं?

ध्यान रहे कि एम्बुलेंस के रेट किसी सरकार ने नहीं बढ़ाये थे,ये हम और आप ही थे कि जिन्होंने अपनी आत्मा को बेच दिया और ज़रूरतमंदों की मज़बूरी का जमकर फायदा उठाया।रेमडेसिवर इंजेक्शन, ऑक्सीजन सिलेंडर, आईसीयू बैड,ऑक्सीजन कन्सनट्रेटर,मेडिकल उपकरणों की ब्लैकमेलिंग ने तो मानवता की धज्जियाँ ही उड़ा दी, बल्कि छोटे, मोटे सौ,दो सौ रुपये वाली दवाइयां, इंजेक्शन चार,पाँच गुणा ज्यादा रेट पर बेचे।मानों मरने के बाद वे इस सारे संग्रहित धन को अपने साथ ही नरक में ले जायेंगे।मानवता के इन धब्बों ने जमकर उत्पात मचाया और मचा रहे हैं।इन गिद्धों की पहचान सुनिश्चित करके इनका सामाजिक बहिष्कार समाज ही कर सकता है, सरकार तो कानूनी कार्यवाही ही कर सकती है।

चिकित्सा जगत ने प्रायः यह मान ही लिया है कि फिलहाल तो कोरोना इंसान के साथ ही रहने वाला है और कोरोना प्रोटोकॉल का पालन अभी ज़ारी ही रहेगा।यानी आने वाले समय में एहतियात बरतते हुए, स्वयं की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए अन्ततः घरों से बाहर तो निकलना ही पड़ेगा।आप सदैव कोरोना से बचे ही रहेंगे, इसकी भी कोई गारण्टी नहीं है।लेकिन आज यदि किसी ज़रूरतमंद की मदद करने में,किसी पीड़ित को दिलासा देने में मुँह छिपाते घूम रहे लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसे सुख,दुख किसी के साथ भी हो सकते हैं।आत्मकेंद्रित लोगों को भी इसका सामना करना पड़ सकता है।तब कहाँ जाएगी मानवता?समाज का यह कुरूप वर्ग जो बीज डालकर चल रहा है, आने वाले समय में इसकी फसल उन्हें ही काटनी है। समय सदा एक जैसा नहीं रहता है।

ऑक्सीजन सिलेंडरों के लंगर लगा देने वाले, कोरोना पीड़ितों के घरों तक भोजन पहुंचाने वाले, निशुल्क चिकित्सा परामर्श देने वाले डॉक्टर, मरीजों के घरों तक दवाइयां, फल पहुंचाने वाले लोग भी इसी समाज के ही हैं।उन्हें भी तो कोरोना घेर सकता था और कुछ को कोरोना हो भी गया होगा।लेकिन फर्क केवल इतना है कि इनका ज़मीर ज़िंदा है और जिन्होंने लोगों की मज़बूरी का फायदा उठाया या अपने निकट के ज़रूरतमंदों की मदद करने के भय से घरों में छिप गए, उनकी ग़ैरत मर चुकी है।वे नाममात्र के ही जीवित हैं।

आईने में अपनी शक्ल देखते हुए लोगों को स्वयं तय करना है कि उन्हें इन दोनों में से कौन से वर्ग में शामिल रहना है।कवि हरिवंशराय बच्चन की ये पंक्तियां शायद ऐसे ही माहौल के लिए लिखी गई हैं-

पर किसी उजड़े हुए को,फिर बसाना कब मना है, है अंधेरी रात पर,दीया जलाना कब मना है?’

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