सुप्रीम कोर्ट की नसीहत, जज जब सुनवाई के दौरान कुछ कहते हैं तो उनका मकसद व्यापक सार्वजनिक हित सुनिश्चित करना होता है।
मीडिया को सुनवाई के दौरान कोर्ट की मौखिक टिप्पणियों की रिपोर्टिंग करने से नहीं रोका जा सकता।
मद्रास हाई कोर्ट ने चुनाव आयोग पर सख़्त टिप्पणियां की थीं, कहा था कि चुनाव आयोग पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के दौरान कोविड प्रॉटोकॉल का पालन करवाने में असफल रहा।
चुनाव आयोग जिस तरह मोदी सरकार का साथ चुनावों के दौरान दे रहा था, उस पर आक्षेप लगने लगे थे कि वह स्वायत्त संस्थान न होकर सरकार का सहयोगी है ।

अशोक कुमार कौशिक

 देश में कोरोना की दूसरी लहर ने जो तबाही मचाई, उसके लिए केंद्र में बैठी मोदी सरकार को जिम्मेदार माना जा ही रहा है, इसके साथ ही चुनाव आयोग पर भी उंगलियां उठ रही हैं। फरवरी अंत में जब चुनाव आयोग ने पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव की घोषणा की, तब इस टाइमिंग और प.बंगाल में आठ चरणों में चुनाव करवाने पर सवाल उठे। उस वक्त चुनाव आयोग का दावा था कि कोविड प्रोटोकॉल के साथ चुनाव संपन्न कराए जाएंगे और जनता ने उसके इस दावे पर भरोसा किया, जिसका नतीजा अब जनता ही भुगत रही है। 

देश में कोरोना मरीजों की रोजाना बढ़ती संख्या नए रिकार्ड बना रही है। अस्पताल संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं, वैक्सीन की कमी जुलाई तक बनी रहेगी, ऐसी ख़बरें आ रही हैं और इन सबके बीच हर रोज बीमार स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण अकाल मौतें हो रही हैं। जिन राज्यों में चुनाव संपन्न हुए, वहां मतदान तक तो कोरोना के मरीजों की संख्या बढ़ नहीं रही थी, लेकिन जैसे ही चुनाव ख़त्म हुए संक्रमितों का विस्फोट सा हुआ। विधानसभा चुनावों के साथ ही उत्तरप्रदेश में पंचायत चुनाव भी हुए, जिनमें कोविड प्रोटोकॉल नजर ही नहीं आया। नतीजा ये रहा कि चुनावी ड्यूटी में लगे सैकड़ों लोग कोरोना से ग्रसित हुए और कईयों की मौत हो गई।

चुनाव आयोग जिस तरह मोदी सरकार का साथ चुनावों के दौरान दे रहा था, उस पर यह आक्षेप लगने लगे थे कि वह स्वायत्त संस्थान न होकर सरकार के सहयोगी की तरह काम कर रहा है। लेकिन अब ऐसा लगने लगा है कि मोदी सरकार औऱ चुनाव आयोग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, वे भले अलग-अलग दिखें, लेकिन रहेंगे हमेशा एक ही मूल्य के। कोरोना की दूसरी लहर और उससे उपजी त्रासदी के लिए सभी मोदी सरकार को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, लेकिन सरकार ने अब तक बढ़ कर अपनी गलती नहीं मानी, बल्कि उस पर लीपा-पोती करने की तमाम कोशिशें हुईं। कुछ यही हाल चुनाव आयोग का भी है।

उदाहरण के तौर पर नन्दीग्राम में वोटिंग चल रही थी और साहब दूसरे जिले में रैली कर रहे थे। सारी मीडिया उनके लाइव भाषण दिखा रही थी और सारी आचार सहिंता की धज्जियां उड़ा रही थी। भारत का चुनाव आयोग 2014 के चुनाव से पंगु हो गया है।  इतना लाचार और बेबस चुनाव आयोग किसी ने नही देखा होगा। शेषन ने जो अभूतपूर्व काम और नाम चुनाव आयोग को दिया था वो इस संस्था की साख को कई गुना बढ़ा गया था। लेकिन अफसोस है कि यह सर्वोच्च संस्था आज एक औपचारिकता बन कर रह गई है। वो एक्जिट पोल को बंद कर सकती है लेकिन सरेआम हो रही नोटंकी पर कुछ नही कर सकती है।

वैसे साहब ने चुनाव आयोग नामक संस्था को गुजरात से ही नकारना शुरू कर दिया था पहले 2007 के विधानसभा चुनाव में मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह को जेम्स माइकल लिंगदोह बोलकर उनके धर्म को उछाल कर इटली से जोड़ा। फिर मियां मुशर्रफ बोलकर पोलराइज किया वो लगातार इस संस्था को कमजोर सिद्द करते आए है वो लगातार अपने भाषणों में चुनाव आयोग को गाहे बगाहे निशाना बनाते रहे है ।

साहब 2014 के चुनाव के दौरान बूथ से कुछ दूरी पर अपना चुनाव चिन्ह दिखा रहे थे। जैसे वो चुनाव आयोग को मुँह चिड़ा रहे हो कि मैं तो सरेआम उल्लंघन कर रहा हूँ आप रोक सको तो रोक लो। दरअसल 48 घँटे पहले चुनाव प्रचार बंद करना एक पुराना ढकोसला है। भारत के वोटर के विवेक पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। सरकारो को हमे हर बार लाइन खड़ा करने का शोक है। चाहे नोटबंदी हो या तालाबंदी या फ़ॉर वोटिंग लाइन। हर जगह आपको एक नागरिक नही लेकिन गुलाम समझा गया है।

पिछले दिनों मद्रास हाई कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए चुनाव आयोग पर सख़्त टिप्पणियां की थीं। हाई कोर्ट ने कहा था कि चुनाव आयोग पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के लिए प्रचार अभियानों के दौरान कोविड प्रॉटोकॉल का पालन करवाने में असफल रहा। हाई कोर्ट के जज ने यहां तक कहा था कि आयोग के ख़िलाफ़ हत्या का मुकदमा दर्ज किया जाना चाहिए। उन्होंने चुनाव आयोग को सबसे ज्यादा गैर-जिम्मेदार संस्था भी करार दिया था।

हाईकोर्ट की इस टिप्पणी पर देशव्यापी चर्चा हुई और कई लोग हाई कोर्ट से इत्तेफ़ाक रखते नज़र आए। लेकिन चुनाव आयोग हाई कोर्ट जज की इस टिप्पणी से आहत हुआ और उसने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। अपनी याचिका में चुनाव आयोग ने कहा कि मद्रास हाई कोर्ट ने हमें अपना पक्ष रखने का मौका दिए बिना ही यह टिप्पणी कर दी। उसने डिज़ास्टर मैनेजमेंट एक्ट के अधीन काम कर रहे जिम्मेदार अधिकारियों से भी जवाब नहीं मांगा। आयोग ने यह भी कहा कि जब चुनावी रैलियां हो रही थीं तब कोरोना की हालत उतनी भयावह नहीं थी।
आयोग के इन तर्कों से समझा जा सकता है कि उसने स्थितियों को समझने में कितनी लापरवाही की। सरकार ने भले कोरोना से जीतने का दावा कर लिया हो, हक़ीक़त तो यही थी कि देश से कोरोना ख़त्म ही नहीं हुआ था। और जब चुनावी रैलियों में बिना मास्क लगाए नेता उतर रहे थे, भीड़ की भीड़ इकठ्ठी कर रहे थे, तब भी आयोग ने उस पर तुरंत कोई सख़्ती नहीं दिखाई। जब प.बंगाल में चुनाव चरणों को समेटने की अपील कुछ दलों ने की, तब भी आयोग ने कोई फ़ैसला नहीं लिया। और जो जैसा चल रहा है, चलने दिया। अगर इसके बाद भी चुनाव आयोग अपनी जिम्मेदारी स्वीकार नहीं करता, तो इसे क्या कहा जाए।

चुनाव आयोग को अदालत की टिप्पणी पर मीडिया कवरेज से भी ऐतराज था। चुनाव आयोग को शायद यह उम्मीद रही होगी कि सुप्रीम कोर्ट मद्रास हाई कोर्ट की कड़ी टिप्पणी पर ऐतराज जताएगा या उसके ख़िलाफ़ कुछ कहेगा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट से भी आयोग को नसीहत ही मिली। चुनाव आयोग की याचिका पर सुनवाई के दौरान देश की सर्वोच्च अदालत ने आयोग से कहा कि वो मद्रास हाई कोर्ट की टिप्पणी को आदेश मानने की जगह एक जज का बयान माने और उसे उचित भावना से समझने की कोशिश करे।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जज जब सुनवाई के दौरान कुछ कहते हैं तो उनका मकसद व्यापक सार्वजनिक हित सुनिश्चित करना होता है। इसके साथ ही जस्टिस चन्द्रचूड़ ने यह कहा कि मीडिया को सुनवाई के दौरान कोर्ट की मौखिक टिप्पणियों की रिपोर्टिंग करने से नहीं रोका जा सकता। ये टिप्पणियां न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा हैं और जनता के हित में हैं।  इसकी भी इतनी ही अहमियत है, जितनी कोर्ट के औपचारिक आदेश की। कोर्ट की मंशा ऐसी नहीं होती है कि किसी संस्था को नुकसान पहुंचाया जाए, सभी संस्थान मजबूत हों तो लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अच्छा है।

चुनाव आयोग की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट क्या फ़ैसला सुनाता है, यह तो बाद में पता चलेगा, लेकिन फ़िलहाल उसने जो नसीहत दी है, उसे चुनाव आयोग के साथ सरकार को भी सुनना और समझना चाहिए।

भारत बदल रहा है लेकिन चुनाव आयोग नही बदल रहा है। अमेरिका में 2 महीने से मतदान चला तो हमे क्यो लाइन में लगना चाहिए? इसलिए अब समय आ गया है कि चुनाव आयोग को भी पुराने नियम बदलना होगाा। उन्हें भारत की जनता को विवेक शून्य समझना बंद करना होगा। सोशल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के दौर में भारत मे आचार सहिंता का कोई मतलब नही रह गया है।


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