यह नारा लगाना छोड़ दीजिए कि मोदी है तो मुमकिन है ।

अशोक कुमार कौशिक 

लोकतंत्र यह कह कर आया था कि यह जनता का , जनता द्वारा और जनता के लिये शासन है। परन्तु लोकतंत्र का विकास यह बताता है कि यह एक ऐसे वर्ग की बनायी व्यवस्था थी जो धनी हो रहा था पर सत्ता से वंचित था। नवोदित व्यवसायी , उद्योगपति , वकील , एकाउँटेंट , शिक्षक , डॉक्टर वगैरह दुनिया में प्रिंटिंग के विकास के बाद एक – दूसरे के विचारों को पढ़ कर जानने लगे । 

बहुतों के मन में बेचैनी थी कि कुछ लोग राजा और सामंत ही सत्ता का आनन्द ले रहे थे बिना कुछ करे । फ्रांस में तो समाज के बाक़ायदा तीन हिस्से थे – फ़र्स्ट एस्टेट में चर्च के बिशप , सैकंड एस्टेट में राजा के सामंत और दरबारी तथा थर्ड में बाकी सब – मज़दूर , किसान , व्यापारी और उद्योगपति वगैरह । मजे की बात थी की थर्ड एस्टेट में 98% लोग थे वे ही सरकार को टैक्स देते थे पर सत्ता में उनकी कोई भागीदारी नहीं थी। प्रिंटिंग चालू होने के बाद से विचारों का प्रसार बढ़ गया था। चर्च व सामन्तों / कुलीनों को ही सभी विशेषाधिकार क्यों , ये प्रश्न उठने लगा था । 

मॉन्टेस्कू,वाल्तेयर और रूसो जैसे विचारकों ने नवोदित मध्यम वर्ग के मन में सत्ता में साझेदारी की लालसा पैदा की । किंग लुई  XVI  जैसे फ़्रांसीसी सम्राटों की मूर्खता के कारण जनता त्रस्त थी और इस नवोदित मध्यवर्ग को विद्रोह भड़काने में कामयाबी मिली । 

दुनिया में पहली बार लोकतंत्र की माँग को लेकर विद्रोह हुआ फ्रांस में 1789 की जुलाई में। विद्रोह कामयाब हुआ। लोकतंत्र की स्थापना हुई पर वोट देने का अधिकार मिला केवल 15 प्रतिशत लोगों को। केवल पुरूष जो साल में तीन दिन के वेतन के बराबर टैक्स दे रहे थे , वे ही वोटर थे दुनिया के पहली क्रांति के बाद के चुनाव में । 

आज लगभग शत प्रतिशत व्यस्कों को वोट करने का अधिकार है पर सत्ता में भागीदारी 15 प्रतिशत से भी कम लोगों को है । फिर एक बार पूँजीवाद के कन्धों पर चढ़कर नया कुलीन वर्ग सत्ता पर क़ाबिज़ है। 

यही नवोदित मध्य वर्ग राष्ट्र की परिकल्पना का पोषक था क्योंकि इसे अपनी आय बढ़ाने के लिये बड़े से बड़े भौगोलिक क्षेत्र में सत्ता का स्थायित्त्व , एक समान क़ानून , सुरक्षा ( अपनी पूँजी की सुरक्षा के लिये ) चाहिये थी । वो उसे पूँजीवादी सोच , राष्ट्रवाद व लोकतांत्रिक नाटक से मिल रही थी । 

मज़दूर – किसान ही शारीरिक श्रम कर रहे थे पहले भी और बाद में भी और आज भी कर रहे हैं । सत्ताधीशों की शक्ल बदल रही है । निरंकुश राजा , औपनिवेशिक सरकारें , चुनी हुई सरकारें और मल्टीनेशनल कंपनियाँ । मज़दूर और किसान ही शरीर खपा रहे हैं और मुश्किल से दो वक्त की रोटी खा रहे हैं ।

मई, मजदूर और मोदी 

तारीख़ 16, मई का महीना और 2014 का साल था। पूरा भारत मोदी मोदी के नारों से गूंज रहा था मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने 30 साल बाद अभूतपूर्व विजय हासिल की थी अहमदाबाद में शाम को विजयसभा में मोदी ने ऎसा कुछ कहा कि भारत का पूरा मजदूर वर्ग ने उनको अपना मसीहा मान लिया मोदीं ने बोला में तो मजदूर नम्बर 1 हूँ । मजदूरों के समान अथक परिश्रम करूँगा और अपनी ज़िंदगी को उनके लिए खपा दूँगा।

भारत के होने वाले प्रधानमंत्री के मुख से इस प्रकार के वाक्य किसी भी गरीब मजदूर के चिलचिलाती गर्मी में भी रोंगटे खड़े करने के लिए पर्याप्त थे। यही बात उन्होंने संसद भवन के सेंट्रल हाल में भी दोहराई। अब भारत का मजदूर यह मानने लगा था कि वाकई 70 साल बाद उनका सोचने वाली कोई सरकार दिल्ली में आई है। उनको अपना नया मसीहा मिल चुका था। पर क्या इन 7 सालो में वाकई इस तथाकथित मसीहा ने उनके लिए कुछ चमत्कार किया है ?

मोदी ने घोर पूंजीवाद का जो फर्जी समाजवाद का मॉडल गुजरात मे चलाया था वैसा ही मॉडल वो 2014 से पूरे भारत मे लागू करने का प्रयास कर रहे थे। आते ही उन्होंने विवादित भूमि सुधार कानून पास कराने का प्रयास किया जो विपक्ष, किसानों भूमिहीन मजदूरों के विरोध के कारण वापिस लेना पड़ता है। मोदी मनमोहन की मनरेगा को भी हटाने के फूल मुड़ में थे।

मोदी के मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने इस 2019 जुलाई में लोकसभा में कहा था कि नरेंद्र मोदी सरकार लंबे समय से “महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना” को जारी रखने के पक्ष में नहीं थी। मोदी मनरेगा को कितने अनमने मन से चला रहे है उसका सबसे बड़ा उदाहरण मनरेगा में न्यूनतम मजदूरी को 4 साल तक नहीं बढ़ाना है। जबकि नोबल पुरस्कार प्राप्त अभिजीत बेनर्जी और रघुराम राजन सरकार को 1 साल से यह करने का बोल रहे थे ताकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में मजबूती आये और और गाँव मे डिमांड पैदा हो जाये।

कल रघुराम राजन ने सरकार को मजदूरों के खाते में 65 हजार करोड़ डालने की बात कही है। पर सरकार के सलाहकार का दिमाग देखिए वो 35 दिनों तक मजदूरों को बंधक बना कर रखते है लेकिन जब अर्थव्यवस्था का इंजन पुनः शुरू करने का समय आता है तब उन्हें घर भेज देते है। अगर यही निर्णय लाकडाउन लगाने से पहले कर लिया जाता तो उन 250 निर्दोष मजदूरों की जान बच जाती जिन्हें लगातार पैदल चलाकर भूख से मरने के लिए मजबूर कर दिया गया।

मोदी भक्त कहते है लाकडाउन के पहले भारत के लाखों प्रवासी मजदूरों को घर लाना मुमकिन नही था । मजदूरों की बाढ़ पर काबू करना मुमकिन नही था, इतने मजदूरों का स्क्रीनिग मुमकिन नही था ट्रेन चलाना मुमकिन नही था है,मजदूरों को रोजगार देना मुमकिन नही है। मजदूरों को वापिस घर से लाना मुश्किल है,फिर आपके  साहब सत्ता लेकर क्यों बैठे हैं? जब आपके लिए हर कार्य करना मुमकिन नही है तो यह नारा लगाना छोड़ दीजिए कि मोदी है तो मुमकिन है ।

वो ताजमहल बनाता है बुर्ज सजाता है पर अपना आशियाना नही बना पाता है, धनपशुओं के लिए वो दीन है मजदूर आज भी गमगीन है तुम्हारी बगिया जिससे रँगीन है उस माली के हालत आज भी संगीन है
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