– राहुल खराब राजनेता हो सकते हैं, लेकिन इंसान बहुत शानदार हैं, वह उम्मीद जगाते हैं।– बाप के हत्यारे को माफ करने में सोने का कलेजा चाहिए।– उपयुक्त सुरक्षा छीन लेने के बावजूद कम से कम राहुल जिंदा तो है , एक रईस परिवार में जन्म लेने के बावजूद उसके जमीर जिंदा तो हैं ।– राहुल, प्रियंका या सोनिया ने अपने जीवन मे किसी का भला न किया हो, किसी का बुरा भी न किया, किसी को डराया, धमकाया या मारा नही । अशोक कुमार कौशिक अपने एक राष्ट्रवादी दोस्त से राहुल गाँधी के बारे में बात हो रही थी। आश्चर्यजनक रूप से वे ल़ॉजिकल हैं, रेशनल हैं। आपकी बात बहुत धैर्य से सुनते हैं, अपनी असहमति को सभ्य तरीके से व्यक्त करते हैं और सहमत होते हैं तो स्वीकार भी करते हैं। वे कहने लगे कि ‘राहुल बहुत अच्छे इंसान तो हैं, लेकिन राजनीति के लिए नहीं हैं।’ मैंने पूछा, ‘क्यों?’ तो बोले, ‘राजनीति में जिस किस्म के शातिर, श्रूड और धूर्त लोगों की जरूरत है वे उसे पूरा नहीं करते हैं। मतलब जो चीज आम जिंदगी में गुण हैं, वह राजनीति में दुर्गुण है।’ मुझे लगा बात गलत भी नहीं है। लेकिन फिर तुरंत लगा कि आखिर यह किसने तय किया है कि राजनीति में धूर्त औऱ शातिर होना ही चाहिए। मैंने तुरंत प्रतिवाद किया, ‘यह सही है कि हमने राजनीति को ऐसे ही जाना है, लेकिन यह भी तो हो सकता है न कि राहुल राजनीति की तकनीक, परिभाषा, मुहावरे, भाषा और पद्धति ही बदल दे। आखिर तो बदलाव ऊपर से चलकर ही आता है।’ वे सोचते रहे, फिर बोले, ‘हाँ ये भी ठीक है, लेकिन सच कहूँ तो मुझे इस आदमी पर भरोसा नहीं है।’ फिर मैंने पूछा, ‘भरोसा मतलब?’ वे बोले, ‘ये पगला है। यदि कभी इसके प्रधानमंत्री बनने की स्थितियाँ आई तो यह भी अपनी माँ की तरह यह कह सकता है कि मुझे नहीं बनना प्रधानमंत्री।’ मुझे लगा हाँ ये भी हो सकता है। राहुल जिस कदर लापरवाह औऱ गैर महत्वाकांक्षी इंसान है उसमें ऐसा करना भी कोई बहुत बड़ी बात नहीं होगी। ऐसा नहीं है कि मैं राहुल को फॉलो करता हूँ और उनकी डाई हार्ड फैन हूँ, लेकिन उनका जो कुछ भी सार्वजनिक जीवन में आता है, उसे मैं कई एंगल से आलोचनात्मक दृष्टि से देखता हूँ और उसका विश्लेषण करता हूँ। अपने जीवन की बड़ी-बड़ी दुर्घटनाओं और लगातार मिलती असफलताओं के बावजूद राहुल जिस तरह से संतुलन और गरिमा को साधे हुए हैं, वह न सिर्फ काबिल – ए – तारीफ है बल्कि सीखने के भी लायक है। मुझे नहीं पता कि राहुल गाँधी का राजनीतिक भविष्य क्या है, यह भी नहीं पता कि यदि वे सत्ता में आ जाते हैं तो फिर उसके दबावों और मजबूरियों से कैसे निबटेंगे। हो सकता है कि वे भी बाकियों की तरह निराश ही करें, लेकिन आज राहुल उम्मीद जगाते हैं। जब से नरेंद्र मोदी सत्ता में आए हैं, तब से एक भी मौका ऐसा नहीं आया कि राहुल को अकेला छोड़ दिया गया हो। वे जो भी करते हैं मोदीजी के राडार पर रहते हैं। उस पर उनका मजबूत दुष्प्रचार तंत्र और उससे भी आगे मोदी एंड कंपनी के अंधभक्त…। यहाँ तक कि यदि राहुल अपनी नानी से मिलने भी जाते हैं तो यहाँ उनका मजाक बनाया जाता है। बताइये नानी से मिलने जाने में मजाक उड़ाने की क्या बात है? मगर यदि दुष्प्रचार करना ही लक्ष्य हो तो किसी भी चीज का हो सकता है। – राहुल गांधी को आप कुछ भी कह लें समझ लें। उनके पिता का जैसे बम से शरीर शत विक्षत हो गया था ओर दादी का जिस तरह छलनी कर दिया गया था। बन्दे ने आज तक कभी सार्वजनिक मंच से इसका जिक्र नहीं किया। कभी जनता को इमोश्नल ब्लैकमेल नहीं किया ये बात उनकी जबान तक कभी नहीं आई। अगर मोदी के साथ ऐसा हुआ होता तो हर रैली हर मंच पर अपने पिता ओर दादी कि शहादत बेचता, उसके नाम पर वोट मंगता मुझे यकीन है। राजनीति का जो वीभत्स चेहरा राहुल ने देखा है, वह किसी मध्ययुगीन कत्लेआम के बीच अकेला बच जाने जैसा है। उसकी इस श्मशानी गद्दी से नफरत लाजिम है। “सत्ता जहर है”- का उद्गोष भी लाजिम है। थोड़ी पुरानी बात है, अंग्रेजी अखबार से आई लड़की ने आलू-सोना वाले बयान को लेकर मजाक उड़ाया था। मैंने उससे कहा कि यार तुम तो पत्रकार हो, वो वीडियो टैंपर किया हुआ है। तो उसने जवाब दिया कि ये आप और मैं जानते हैं बाकी लोग थोड़ी जानते हैं। तब पता चला कि जो जानते हैं वे भी अपने दुराग्रह के चलते उसे गलत नहीं बताते हैं। पिछले कुछ सालों से मैं राहुल को ऑब्जर्व कर रहा हूँ। उसकी परिस्थितियों, दबावों, अपेक्षाओँ, असफलताओं और लगातार की जा रही उपेक्षा और उपहास के बावजूद राहुल को जिस कदर संतुलित पाता हूँ उसने गहरे तक प्रभावित किया है। वे खराब राजनेता हो सकते हैं, लेकिन इंसान बहुत शानदार हैं। जिस तरह का धैर्य, सौहार्द्र, समझ, सहनशीलता, संवेदनशीलता, मानवता उनमें देखने मिलती है वह बहुत दुर्लभ है। वे ईमानदार हैं, गलतियाँ करते हैं तो उसे खुले दिल से स्वीकार करते हैं। पारदर्शी हैं, मानवीय हैं, मानते हैं कि उन्होंने गलतियाँ की हैं और यह भी कि उससे उन्होंने सीखा भी है। वे राजनीति के वर्तमान खाँचे में इसलिए भी मिसफिट है क्योंकि राजनीति का पूरा-का-पूरा फ्रेम ही धूर्तता और शातिराना तरीकों से बनाया गया है। अपने पिता के हत्यारों को न सिर्फ माफ कर देना बल्कि यह कहना कि उनके लिए मेरे मन में कोई गुस्सा या आक्रोश नहीं है। यह कहने के लिए जिस किस्म के साहस और उदारता की जरूरत होती है, वह बिरलों में पाई जाती है। यदि नरेंद्र मोदी और राहुल में से चुनना होगा तो राहुल को ही चुनूँगा, यदि केजरीवाल औऱ राहुल में से चुनना होगा तब भी राहुल का ही चुनाव होगा। हो सकता है राहुल कभी सफल न हो, हो सकता है यदि सत्ता की राजनीति में सफल हो जाए तब हमारी अपेक्षाओं पर सफल न हो, फिर भी यह कहूँगा कि एक साफगोई, ईमानदार और उदार इंसान की गलतियाँ भी गलतियाँ ही होंगी क्योंकि नीयत गलतियाँ करने की नहीं होगी। मुझे राहुल गांधी में प्रियंका से ज्यादा संभावना दिखती है। हो सकता है वे भारतीय राजनीति की परिभाषा और मुहावरे बदलकर रख दें। – कम से कम राहुल जिंदा तो है… रईसी में पला – बढा लाडला , जिसके कपड़े विदेश से धूल कर आते थें, जिसके इत्र की एक डिब्बे की कीमत 100 मजदूरों की महीने भर की दिहाड़ी थी, मोतीलाल ने जिसकी परवरिश एक राजकुमार की तरह की। गोरों से आजादी की लड़ाई में उस राजकुमार ने सालों जेल काटे, मिट्टी पे सोया ,मच्छरों के साथ कई रातें गुजारी। वक्त की ईमान ने उसे देश का प्रधान बनाया । सड़क पे चाय बेचने वाले ने हिंदुस्तान की राजकोष को जैसे चूसा है ,चाहते तो ओ भी यही करते। मगर , ऐशोआराम से जवानी गुजारने वाले नेहरू ने अपने पुरखों की सम्पति भी जरूरतमंदो के हवाले कर दिया । नेहरू की बलिदानी ने शास्त्री की मौत के बाद उनकी बेटी इंदिरा को दिल्ली की गद्दी पे बिठाया । इंदिरा ने कभी पाकिस्तान और खालिस्तान का डर पैदा कर लोगो से वोट नही मांगे । लेकिन तो उस शख्शियत ने पाकिस्तान को बख्शा और न ही खालिस्तान समर्थको को । एक वक्त था जब पाकिस्तान का गर्दन चिर इंदिरा ने पूर्वी पाकिस्तानियों को बांग्लादेश दिया। बहादुरी की बात ये है कि उन्होंने इस प्लान क़ी खबर सिर्फ अपने पेड पत्रकार को नही दिया था । धर्मांध कायर अंगरक्षकों ने उस महामहिला की हत्या कर दीं। सहानुभूति ने उनके बेटे राजीव गांधी को देश का प्रधानमंत्री बनाया । इस वाले गांधी ने चरख़े चलाने वाले हिंदुस्तान को कंप्यूटर चलाना भी सिखाया। राजीव गांधी ने श्रीलंका के एक आंतरिक मामले में दखल दीया । वहां के राष्ट्रपति को दुबारा जिताने के लिए नही, बल्कि तमिल और सिंहलो की आपसी नरसंहार रोकने के लिये । खून के प्यासे एक तमिल संगठन के अतंकवादियो ने समझौते के डर से राजीव की जान ले ली । आप इन बातों को सत्ता और वोट लालच कह खारिज कर सकते हैं। मगर यह कैसे झुठलायेंगे, कि अपने बाप के हत्यारों को माफ करना भी वही सोने का कलेजा मांगता है। जिस दौर में यह देश, पिछली मिलेनियम- पिछली शताब्दी- पिछले दशक के, काल्पनिक अत्याचारों का वास्तविक बदला लेने की कसमें खा रहा है, नफरत के हिमालय पर चढ़ बैठा है, वहां बाप के हत्यारों को माफ कर, पिछली कड़वाहट को त्याग करने, और नई जिंदगी की ओर बढ़ने का माद्दा राहुल ने दिखाया है। नेहरू,इंदिरा और राजीव की बलिदानी ने राहुल के जमीर को लोहा बनाया । बदला, बेहद पावरफुल इमोशन होता है। इतना पॉवरफुल की आपके जजमेंट को आसानी से प्रभावित कर लेता है। इस इमोशन में लोग अपनी या दूसरों के जान, धन-सम्पत्ति-यश के नुकसान की परवाह नही करते। और तब, बदले के इमोशन को जगाने के लिए बुलेट्स से छलनी दादी और, पिता की चीथड़ीनुमा लाश से बड़ा प्रोवोकेशन क्या हो सकता है। एक अच्छे विपक्ष का भूमिका निभाने वाले एक प्रधानमंत्री के परनाती, एक प्रधानमंत्री के पोते, एक प्रधानमंत्री के बेटे राहुल को सच के साथ खड़े होते देखा है, बेसहारों का कन्धा बनते देखा है, मजबूरों के आँसू पोछते देखा है, गलत नीतियों पे बेबाक बोलते देखा है और तो और हमने इस तीन पीढ़ियों की बलिदानी की निशानी को सरकार की आंख में आंख डालकर चुनौती पेश करते हुए देखा है । कितना बढ़िया होता यदि सोनिया राहुल के कानों में बचपन से चिंगारीयां फूंकना शुरू कर देती। बाप का, दादा का, दादी का सबक बदला लेगा तेरा राहुल.. ऐसा कोई सीन पिक्चर में आ सकता था। सीन आया भी तो कौनसा “मैंने अपने पिता के हत्यारों को माफ किया” .. जबकि ये वो जगह है जहां लोग अपने कुत्ते को गरियाने वाले को माफ नहीं करते। पिछले महीने ही जयपुर के शिप्रापथ इलाके में एक अध्यापिका की हत्या कुत्ते को टोकने को लेकर हो गई थी। दादी और पिता की हत्या के बाद राहुल को बना दिया जाना था कल्लू से कालिया.. तो आज ये रँगे बिल्ले की जोड़ी अपनी सही जगह पर होती। लेकिन राहुल ना ही कल्लू बन सके ना कालिया.. उन्होंने बदले की भावना पर बनी सारी सुपरहिट फिल्मों के नायकों को बहुत बौना करके रख दिया है। राहुल ने कहा “मेरे दिल में किसी के लिए कोई नफरत नहीं है।” मुझे राहुल के इस वक्तव्य से ईर्ष्या होती है। वे भीतर से बहुत ही शुद्ध जीवन व्यतीत कर रहे हैं। बदले की भावना और कुंठा मनुष्य के भीतर बहने वाला गन्दा नाला है जिसकी सड़ान्ध उसे सुकून शांति से जीने नहीं देती। जो कि आज लगभग हर आदमी के भीतर बह रहा है। छोटी छोटी बहसों पर जान ले लेनेवाले इस दौर में , जहाँ डेमोक्रेसी ब्यूरोक्रेसी की गुलाम हो चुकी है । इसलिये, कभी कभार इस बात की भी खुशी होती है कि उपयुक्त सुरक्षा छीन लेने के बावजूद कम से कम राहुल जिंदा तो है ! एक रईस परिवार में जन्म लेने के बावजूद उसके जमीर जिंदा तो हैं । मुझे राहुल जैसा लीडर चाहिए। माता सोनिया गांधी ने राहुल गांधी को मुहल्ले की किसी हिंदी मीडियम स्कूल में 8वी तक पढ़ाया होता तो आज राहुल भारतीय राजनीति में बहुत सफ़ल नेता हो सकते थे। राहुल के 10 लफंगे दोस्त होते, जिन्हें लीड भी राहुल ही करते। लफंगों को पालने दुलारने और लताड़ने की कला सीख लेने के बाद राहुल देश को अच्छे से लीड करना सीख गए होते और इसी तरह वे छात्र राजनीति में झंडे गाड़ने का हुनर प्राप्त कर लिए होते। लेकिन माता सोनिया ने उन्हें थोड़ा सा जमीन से उगते ही नामी अंग्रेज़ी स्कूल में डाल दिया, फिर ले गई विदेशों के ख्यातिप्राप्त विश्व विद्यालयों में जहां उन्हें ना तो कंपाउंडर मिला, ना ही ललित और ना ही कोई टेनजेन्ट मिला। बहुत अच्छा मौका था सोनिया गांधी के पास अपने पुत्र को विश्वस्तर का बाहुबलि बनाने का, लेकिन उन्होंने उस मौके को खो दिया। जबकि तमाम ग्रहनक्षत्र राहुल के साथ थे। बहरहाल जिस देश पर आपको शासन करना है वो देश कंट्रोल कैसे होगा ये कला सीखना सबसे अहम है। डिग्रियां तो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास भी बहुत है। मैंने हज़ार बार देखा है, दो दो टके के लोग कैसे कैसे लफ्ज़ इस्तेमाल करते थे मनमोहन सिंह के लिए..। एक आदमी ने तो उन्हें शिखंडी कह दिया था जिसे आज सेकुलरों ने मोदी विरोध के नाम पर हीरो बना लिया है। हो सकता है उस समय सोनिया गांधी ने अपने पुत्र को ये सोचकर उच्च शिक्षा एवं संस्कार दिये हों कि चलो 20-30 साल बाद जब भारतीय राजनीति में राहुल का पदार्पण होगा तब देश के लोग मानसिक रूप से सभ्य एवं विकसित हो चुके होंगे। तब लोग अनपढ़ गंवारों और आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के बजाय पढ़े लिखों और कुंठाविहीन सरदारों को चुनने लगेंगे। लेकिन सोनिया को नहीं पता था कि 30 साल बाद भी इस मुल्क की सुई उसी जगह अटकी हुई होगी। 30 साल बाद भी वही भीड़ गलियों में तांडव कर रही होगी। सोनिया को अंदाज़ा नहीं था कि 30 साल बाद भी यहां एक आदमी दूसरे आदमी की पहचान उसके कपड़ो और धर्म से करेगा। सोनिया को नहीं पता था कि 30 साल बाद भी हमारे भीतर का दानव बूढा नहीं होगा। सोनिया ने सोचा भी नहीं होगा कि 30 साल बाद कोई फुंसी कैंसर बन जाएगी। सोनिया ने सोचा भी नहीं होगा कि 30 साल बाद वो सब बड़ी धूमधाम से बेचा जाएगा जो आज कमाया जा रहा है। अपने पड़ोसी से ज्यादा हम इस परिवार के बारे में जानते है। भारत के मौजूदा किसी भी नेता से अधिक, इनकी जिंदगियों के बारे में जानते हैं। राहुल, प्रियंका या सोनिया ने अपने जीवन मे किसी का भला किया हो, या न किया हो। किसी का बुरा भी न किया। किसी को डराया, धमकाया या मारा नही है। बल्कि मनमोहन के साथ, इनके दौर में हमने सुनहरा, इमर्जिंग भारत देखा है। उस दौर को, हमने मरीचिका का पीछा करने के लिए रौंद दिया। यह तमाशा राहुल ने देखा है। अपनी मां, बहन और खुद के लिए देश की अथाह नफरत और गालियां देखी हैं। ऐसे में इस जनता से राहुल की नफरत, जस्टिफाईड और स्वीकार्य होती। लेकिन राजनीति के क्रूर और ठंडे घात को बार बार देखने के बाद, जीवन की वही धारा चुनना, कलेजा मांगता है। तब भी उठकर, आजाद भारत के सबसे निर्मम, चालबाज, मर्ड’रस रेजीम के आंख का कांटा बनना, कलेजा मांगता है। लुंजपुंज, भ्रस्ट और धोखेबाज दरबारियों की सेना लेकर, गलत से लड़ने का जज्बा, जुझारूपन और कलेजा मांगता है। निम्नतम समर्थन, मुट्ठी भर सांसद और उपहास के बीच अपनी सोच को लेकर अडिग रहना कलेजा मांगता है। संगठन का कौशल, पैसे और सत्ता से स्वतः पैदा हो जाता हैं। चुनावी मैनेजमेंट के गुरु किराए पर मिल जाते है। विधायक भी जोड़तोड़ से मिल जाते हैं। मगर मानवीय गुण खरीदे नही जाते, वे इन्हरेंट होते हैं। लोकतन्त्र में यह गुण, टॉप लीडरशिप में होना, पहली जरूरत है। आपमें डाऊट होगा, शायद किसी देवता के अवतरण की उम्मीद होगी। मगर मुझे आज बिल्कुल क्लियर है। मुझे किसी देवता का इंतजार नही है। मुझे इंसान चाहिए, मजबूत कलेजे वाला, दिल मे गहराई रखने वाला । मुझे बदला लेने वाला लीडर नही चाहिए। मुझे माफ़ करने वाला लीडर चाहिए। आप अपने निष्कर्ष निकालने के लिए स्वतंत्र हैं। Post navigation शहीद की वीरांगना ने कहा, संदीप सिंह को मिले सेना मेडल वापस लौटा देंगी आंदोलन की सीख कि किसान से पंगा ,,,न बाबा न : योगेंद्र यादव