…आरजू की आरजू होने लगी

देश गजब परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। एक समय सरकारों और लोकतंत्र के इन चारों खंबों विधानपालिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया ने खुद को मजबूत करने के लिए शिददत से काम किया। बाद में हालात कुछ ऐसे बनते चलते गए कि सरकारों और इन खंबों ने खुद को भुरभरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब जबकि हम अपने देश के गणतंत्र में तबदील होने का जश्न मनाने वाले वाले हैं तो लोकतंत्र के एक तथाकथित चौथे खंबे यानी मीडिया के बदहाल होने पर सरसरी सी-हल्की सी नजर डाल लेते हैं। जिसकी सरकार-उसका अखबार, का दौर यंू तो हमारे यहां कई बरसों पहले-दशकों पहले ही शुरू हो गया था,लेकिन अब जैसी हालात हो गई है वैसी न पहले सुनी गई थी और न ही देखी गई थी। अखबारों के अलावा इलैक्ट्रानिक मीडिया वाले भी केंद्र और प्रदेश सरकारों के सामने लगभग दंडवत हो रक्खे हैं। बहती गंगा में हाथ धोने के लिए सोशल मीडिया पर भी कुकरमुत्तों की बाढ सी आई हुई है। इनमें से ज्यादातर में अपने सरकारी आकाओं को खुश करने की होड़ सी लगी हुई है।

अब के दौर में पत्रकारों को तटस्थ नहीं माना जाता हैं। वे या तो सरकार के खिलाफ हैं या साथ है। मंदी के इस दौर में ज्यादातर सरकार से मुनाफा बटोरने के फेर में है। विज्ञापनों की खनक से इनकी आंखें हरदम चुंधियाई रहती हैं। कोई इक्दा दुक्का अखबार-न्यूज चैनल होंगे जो अब भी सरकारों से सवाल पूछने की हिमाकत करते हैं। एक समय पत्रकारों का काम सत्ता से सवाल पूछना ही था। सरकारों के घोटालों को सरेआम करना ही था। दुर्भाग्य से अब पत्रकारों ने सरकारों की बजाय कमजोर विपक्ष पर सवाल पूछने का क्रांतिकारी काम पकड़ लिया है। इन के पास ले देकर एक राहुल गांधी हैं, जिनकी तुलना वे हमेशा 56 इंच्ची से करते से करते रहते हैं। ये तो सर्वविदित तथ्य है कि अगर राहुल गांधी में दम होता तो कांग्रेस की यंू खस्ताहालत कभी न होती। वे चर्चा लायक है ही नहीं। लेकिन राहुल पर बार बार फोकस कर के ये लोग 56 इंच्ची को 65 इंच्ची तबदील करने में खुद को झौंके रहते हैं। जिस दिन विपक्ष को कोई ढंग का चेहरा हासिल हो गया वो रविंद्रनाथ टैगोर का मुलम्मा चढाने की कोशिश करने वालों को तीन तक भी नहीं गिनने देगा।

अब मीडिया में कोई नहीं पूछता कि साहेब आप ने अच्छे दिनों को वादा किया था उसका क्या हुआ? आप बढती मंहगाई पर चुप क्यूं हैं? पैट्रोल-डीजल-गैस की आसमान छूती कीमतों पर आप मौन क्यंू हैं? अरबों-खरबों खर्च करके पत्थर की मूर्तियां स्थापित करने के इस युग में कोई सरकार से ये नहीं पूछता कि कांग्रेस सरकार में जो लोग गरीब थे वो आज आपके राज में और ज्यादा गरीब क्यूं हो गए? उनकी रोजी रोटी आपके राज में क्यंू छिन्न गई? अब की बार ट्रंप सरकार के नारे का क्या हुआ? सब हालात सबके सामने हैं। सो ज्यादा लंबी न हांकते हुए इतना ही कहा जा सकता है..

रंज की जब गुफ्तगू होने लगी
आप से तुम,तुम से तू होने लगी
मेरी रूस्वाई की नौबत आ गई
उनकी शोहरत कू-ब-कू (गली गली में ) होने लगी
नाउम्मीदी बढ गई है इस कदर
आरजू की आरजू होने लगी
है तेरी तस्वीर कितनी बेहिजाब
हर किसी के रूबरू होने लगी

पांच परसेंट कमीशन

मुख्यमंत्री मनोहरलाल पिछले दिनों हरियाणा में काम करने वाले ठेकेदारों के साथ चंडीगढ में एक मीटिंग कर रहे थे। रिवाज के मुताबिक कई बड़े अधिकारीगण भी इस मीटिंग में सज धज कर मौजूद थे। मीटिंग में मुख्यमंत्री ने अपनी सरकार में पग पग पर पारदर्शिता के प्रदर्शन के लिए किए जा रहे विराट कामों से उनको अवगत करवाया जिसकी जानकारी ठेकेदार पहले से अपने दिलो दिमाग में समेटे हुए थे। भरी मीटिंग में अचानक से एक ठेकेदार उठा और कहने लगा कि उनके विभाग के एक मंत्री पांच परसेंट कमीशन लिए बिना कोई काम नहीं करते। उन ठेकेदार को तत्काल ये समझाया गया कि जो जानकारी पहले से ही सार्वजनिक दायरे में हो उसे यंू गोपनीय बना कर पेश नहीं किया करते। अगर कोई नई और गोपनीय बात है तो वो अलग से-अकेले में इजहार- ए- ख्याल कर सकते हैं।

सरकारी समारोह

बड़े पदों पर बैठे लोगों को स्वाभाविक तौर पर ये अधिकार हासिल हो जाता है कि वो कुछ भी करें-कहें उनको थोक के भाव कद्रदान मिल ही जाते हैं। हरियाणा की सीनियर आईएएस अधिकारी धीरा खंडेलवाल के दो काव्य संग्रह के विमोचन के मौके पर साहित्य के अनुरागी लोग अपने अपने तरीके से ज्ञान दे रहे थे। ऐसे में मुख्यमंत्री मनोहरलाल ने कहा कि उनकी स्थिति विकट हो गर्ई है। इन ज्ञानियों के बीच वो कहीं न कहीं खुद को फंसा हुआ महसूस कर रहे हैं। फिर भी वो इस में से रास्ता बना कर बाहर निकलने की कोशिश करेंगे। बैठे बैठे ही उन्होंने एक काव्य रचना का सृजन कर श्रोताओं को प्रस्तुत कर दिया। मंत्रमुग्ध कर दिया। जैसा कि ऐसे अवसरों पर अक्सर होता है कि इस नायाब कार्य के लिए सीएम की खूब हौसला अफजाई की गई। वाह जनाब वाह जनाब की गई। लगे हाथ उनसे ये भी गुजारिश कर ली गई कि भविष्य में जब कभी ऐसे समारोह हों तो वो अपना ये पराक्रम दिखाते रहें। लेखन में भविष्य में भी यंू ही हाथ आजमाते रहें।

समारोह में मुख्यंत्री के मुख्य प्रधान सचिव दीपेंद्र ढेसी भी थे। ढेसी ने अपने नपे तुले और सधे हुए अंदाज में धीरा को बधाई दी। उनकी हौसला अफजाई की। ढेसी को देख करअंग्रजों के जमाने के आसीएस अफसरों की याद आ जाती हैं। वो एक एक शब्द नाप तौल कर बोलते हैं। ऐसा लगता है कि उनके दिल पर हमेशा ही दिमाग हावी रहता है। वो जब बोलते हैं तो ऐसा सा अहसास होता है कि वो टाउन एंड कंट्री प्लानिंग विभाग की कोई बहोत ए संवेदनशील फाइल क्लीयर कर रहे हैं। मुख्य सचिव विजयवर्धन ने अपनी मखमली आवाज में धीरा की कविताओं और सूफियाना शायरी का तड़का लगाया। एक सूफी संत के हवाले से कह दिया कि भले ही आप सुल्तान बन जाओ, लेकिन अंदर से फकीर जैसे बने रहिए। हरेरा की गुड़गामा पीठ के अपने आईएएस बैचमेट चेयरमैन और धीरा खंडेलवाल के पति डाक्टर केके खंडेलवाल की खूबियों का इजहार करते हुए उन्होंने कहा कि रसिक तबियत के खंडेलवाल रेगिस्तान में भी फूल खिलाने-कश्मीर बनाने में सक्षम हैं। जहां जाते हैं वहां रग जमा देते हैं। जिस आफिस में बैठते हैं उसको इतना चकाचक बना देते हैं कि उसके भाग्य जगा देते हैं।

पंजाब विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष डाक्टर गुरमीत ने धीरा खंडेलवाल के एक पुराने काव्य संग्रह के टाइटल मुखर मौन का हवाला देते हुए चुटकी ली कि ये तो डाक्टर खंडेलवाल बेहतर बता सकते हैं कि घर में धीरा जी कितनी मुखर हैं या मौन हैं? धीरा की हौसला अफजाई के लिए उनके आईएएस बैचमेटस संजीव कौशल,पीके दास और आलोक निगम हमेशा की तरह इस समारोह में भी उपस्थिति थे। भारत सरकार में सचिव रह चुके रिटायर्ड आईएएस अधिकारी युद्धवीर मलिक अपनी लेखिका बीवी सुचेत मलिक के साथ खास तौर पर इस समारोह में हाजिर हुए। कुल मिला कर ये समारोह ऐसा था जिसमें साहित्य के प्रेमियों की रूह को वो खुराक मिल गई जिसकी आस में वो इस तरह के आयोजनों में जाया करते हैं। राजधानी के अलावा प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में होने वाले साहित्यिक आयोजनों में भी मुख्यमंत्री अगर जाने का वक्त निकाल सकें तो इस से साहित्यकारों की और हौसला अफाजाई होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।

ट्रैक्टर परेड

ऐसा दावा जा रहा है कि गणतंत्र दिवस के मौके पर लाखों किसान दिल्ली के आसपास ट्रैक्टर परेड निकाल सकते हैं। ये किसान किसी को राजगददी पर कब्जा करने नहीं आए। वे तो तीन तथाकथित कृषि सुधार काननों के जरिए अपना सुधार करने के सरकारी कार्यक्रम से किनारा करवाने और सरकार से ये कहने आए हैं कि हम पर रहम करो। हमें माफ करो। मौजूदा समस्या प्रकृति प्रदत्त नहीं,मानव रचित है। यह समझने की आवश्यकता है कि जिस समस्या का समाधान नजर न आए वो शायद समस्या नहीं वो एक सच्चाई है। ऐसे में सरकार को इन कानूनों को विनम्रतापूर्वक वापस लेने पर गौर करना चाहिए। इस से जनता में सरकार की आस्था कम नहीं,बल्कि बढेगी ही। हालात कुछ ऐसे हो चले हैं कि..

आंख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा
वक्त का क्या है गुजरता है गुजर जाएगा
इतना मानूस न हो खल्वत-ए-गम से अपनी
तू कभी खुद को भी देखेगा तो डर जाएगा
डूबते डूबते किश्ती को उछाला दे दंू
मैं नहीं कोई तो साहिल पर उतर जाएगा

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