कृषि कानून और किसान… आंदोलन की पाठशाला बन गया 2020 का किसान आंदोलन

अभी तक आंदोलन में जा चुकी है करीब 40 जान.
मतदाता और अन्नदाता भी हैं आंदोलनकारी किसान.
आंदोलन में खूंटी पर टंगा जाति, धर्म, वर्ग संप्रदाय

फतह सिंह उजाला

आजादी से लेकर और आजादी के बाद , गणतंत्र दिवस आने तक देश में अपनी-अपनी मांगों को मनवाने के लिए अनेकानेक आंदोलन हुए हैं और इन आंदोलनों में जो कुछ भी हुआ वह किसी से भी छिपा हुआ नहीं रह सका है । इस दौरान केंद्र में विभिन्न पार्टियों की सरकार सत्तासीन हुई और आंदोलनों का सामना भी करना पड़ा । ऐसे तमाम आंदोलनों के अनुभव से सीख लेते हुए सरकार और प्रशासन ने आंदोलन से निपटने की नई-नई रणनीतियां भी बनाई ।

संभवत देश के इतिहास में कोरोना महामारी के दौरान कड़ाके की सर्दी में चल रहा किसान आंदोलन वास्तव में आंदोलन की पाठशाला बन गया है । एक अलग ही प्रकार की एकता और दृढ़ता, कृषि कानूनों को वापस लेने के मुद्दे पर विभिन्न राज्यों के अलग-अलग भाषा बोलने वाले लेकिन जमीन से जुड़े किसानों के बीच दिखाई दे रही है । ऐसी एकता संसद में केवल एक ही मुद्दे पर दिखाई देती आई है आज तक, वह है जब सांसदों के भत्ते बढ़ने हो या अन्य कोई सुविधाएं का मामला हो। तो किसी भी पार्टी सहित उन पार्टियों के सांसदों के द्वारा बिना देरी किए एक मत से ऐसे प्रस्तावों को पास कर दिया जाता है जो मतदाता का वोट लेकर सांसद चुने जाते हैं । जबकि हकीकत यह है जो भी सांसद चुना जाता है, उसे अपने संसदीय क्षेत्र में शत प्रतिशत वोट भी नहीं मिलते हैं । वहां भी हार जीत में मतदाताओं के समर्थन अर्थात वोट का ही अंतर फैसला करता है ।

अब बात करते हैं सीधे मुद्दे की , करीब एक माह से दिल्ली के चारों तरफ देश के विभिन्न राज्यों से अलग-अलग भाषा बोलने वाले और अलग-अलग प्रकार का खान पान वाले किसान कड़ाके की सर्दी में करीब 4 डिग्री सेल्सियस तापमान में खुले आसमान के नीचे धरनारत और आंदोलनरत अपनी मांगों को मनवाने के लिए मजबूती से डटे हुए हैं । इनमे बड़ी संख्या में बुजुर्ग , महिलाएं, बच्चे भी शामिल है। अखिल भारतीय संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले देश के विभिन्न किसान संगठन, संगठनों के प्रतिनिधि और किसान केवल और केवल एक ही मांग को लेकर केंद्र सरकार के सामने लंगर डाले हुए हैं कि जो कानून किसानों ने मांगा ही नहीं , वह कानून केंद्र सरकार क्यों थक रही है ? इस बीच पीएम सहित केंद्र सरकार यहित सत्तापक्ष की सरकार के सीएम, एमएलए और पार्टी पदाधिकारी भी कृषि कानून के फायदे की देश भी में पाठशाला लगा रहे हैं। कई दौर की बातचीत के बाद भी आंदोलनकारी किसान संगठन केंद्र सरकार के विभिन्न प्रकार के प्रस्तावों को पूरी तरह से खारिज भी करते आ रहे हैं ।

इस बीच सबसे गंभीर चिंतनीय और विचारणीय प्रश्न के साथ-साथ अनुकरणीय पाठ यह है कि आखिर आंदोलन किया जाता है तो किस प्रकार किया जाता है, यह इस आंदोलन से भी सीखने की जरूरत है।  करीब 1 माह के दौरान  किसान आंदोलन को लेकर अभी तक ऐसी कोई भी खबर नहीं आई है कि किसानों के द्वारा किसी प्रकार का उपदव्र , हिंसा, आगजनी, तोड़फोड़ या सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया हो । आंदोलनकारी किसान अपनी पूरी तैयारी करके घरों से रवाना हुए और दिल्ली के चारों तरफ लंगर डाल कर बैठ गए । इस दौरान सबसे दुखद बात जो सामने आ रही है वह यह है कि बिना किसी हिंसा अथवा उपद्रव के भी अहिंसात्मक आंदोलन में अन्नदाता किसान की जान जा रही है । लाख टके का सवाल यही है कि जो भी अभी तक इस आंदोलन में बेकसूर किसानों की जान चली गई या फिर जिन्होंने अपना बलिदान किसानों की पीड़ा को देख कर दे दिया, ऐसा साहस और हिम्मत क्या भविष्य में अन्य कोई कर सकेगा ? संभवत इसका जवाब नहीं नहीं है । आंदोलनकारी किसानों को जो कुछ भी कहा गया अन्नदाता ने अपने लिए कही गई उस बात को सहर्ष स्वीकार भी कर लिया ।

कुल मिलाकर किसान आंदोलन का निचोड़ और निष्कर्ष यही निकलता दिखाई दे रहा है यह किसान आंदोलन केंद्र सरकार सहित उसके सहयोगी दलों और सत्ता पक्ष के लिए भी एक ऐसी पहेली बन गया है, जिस पहेली को कृषि कानून के रूप में केंद्र सरकार के द्वारा अन्नदाता के हितकरी बताया गया। दिसंबर माह के अंतिम सप्ताह में जिस प्रकार की रणनीति को लेकर अखिल भारतीय संयुक्त किसान मोर्चा के द्वारा अपनी मांगों को मनवाने के लिए केंद्र पर दबाव बनाते हुए रणनीति के तहत काम किया गया, संभवत वह कहीं ना कहीं कारगर होती दिखाई दे रही है ।  आंदोलनकारी किसान संगठनों के प्रतिनिधियों का साफ-साफ कहना है जो कुछ भी केंद्र सरकार बात करना चाह रही है अथवा कह रही है, वह बिल्कुल साफ और स्पष्ट तौर पर किसान संगठनों के बीच में कहीं जाए। जिससे कि निर्णायक बातचीत करते समय किसी भी प्रकार का भ्रम बाकी ही ना  बचे।

किसान आंदोलन के करीब 30 दिन होते होते इतना बदलाव अवश्य आया कि किसानों ने सत्ता पक्ष और सत्ताासीन लोगों अथवा नेताओं से अपने सवालों की जवाब तलबी भी शुरु कर दी है । बहरहाल अब जो संकेत मिल रहे हैं कि अखिल भारतीय संयुक्त किसान मोर्चा और इसके घटक संगठनों के प्रतिनिधि 29 दिसंबर मंगलवार को केंद्र सरकार से बातचीत के लिए मन बना चुके हैं । तो यह भी तय है कि समस्या का समाधान बातचीत से ही निकलेगा । अंत में इतना ही कहना उचित रहेगा देशहित सहित आम आदमी के हित में आने वाला मंगलवार , मंगलकारी ही साबित हो । अन्यथा आंदोलनकारी किसान तो पहले दिन से ही कहते आ रहे हैं कि आए भी हैं अपनी मर्जी से और जाएंगे भी तो अपनी मर्जी से । वह भी तब, जब केंद्र सरकार तीनों कृषि कानून वापस ले लेगी , अथवा इन्हें रद्द कर देगी । इस किसान आंदोलन में से एक बात और साफ साफ संदेश देने में सफल रही है कि देश के अन्नदाता को बहकाना अथवा बरगलाना संभव नहीं रह गया है । यह आंदोलन आपसी भाईचारे सहित एकजुटता की नसीहत भी देने वाला साबित हुआ है , क्यो कि किसान संगठनों ने राजनीतिक दलों को पूरी तरह नकारते हुए, केवल अपने बूते ही सरकार से सीधी बात करने का फैंसला दिल्ली बार्डर पर आते समय ही कर लिया था।

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