नींद से जाग

अजीब लगता है ये शहर। इसके बाशिन्दे और इसके आसमान पर छाए बुलन्द सितारे ! सभी घृणित बिन्दु लगते हैं। आभास होता है कि रास्ता भटक गया हूँ और अपने ही भीतर अनजबी और लुंज हुआ– रास्ते का पत्थर हो गया हूँ। हर कोई ठोकर मारकर निकल जाता है।…और ‘उफ’ करने की हिमाकत भी करने के काबिल मैं नहीं। डर लगता है इस माहौल से, अजनबी इन लोगों से–और इस सम्पूर्ण परिवेश से।        

यह वही परिवेश है, जहाँ खडा रहकर मैं बड़ा हुआ। वही ये लोग हैं, जिनके साथ मेरा बालपन बीता, रंगीन स्वप्न लिये, जवानी की धमक के साथ–यहाँ तक आया। आज  अनजाने और अपरिचित लग रहे हैं। दीवान, संतरी और राजा के तमाम दरबारी– डाकू प्रतीत हो रहे हैं।…या यूँ कहूँ कि  डाकू ही हैं, और उन सबों ने हमें–लुंज, प्रेत और  अपाहिज बनाया है। दरबार भी सतरंगा है। लुभावने तरकश में विभिन्न रंगों के तीर हैं। उन तीरों का निशाना और घातक प्रहार एक ही दिशा में अग्रसर है।

सभ्य भाषा में निर्णय बदलते हैं। एक ही रंग और ढंग दिखलाई पडता है। लगता है– सबके सब गिरगिट हो गए हैैं। गिरगिट हमारा राजा, गिरगिट हमारा मंत्री। पूर्ण परिवेश ही गिरगिटमय। गिरगिट राज–जिन्दाबाद कहूँ या मुर्दाबाद, मैं नहीं जानता।

मेरे भीतर मुझे अपनी आवाज सुनाई देती है। मेरे कान उसे सुनते हैं। यह भी तमन्ना है कि औरों के कान भी इस आवाज को सुनें। कोई और भी समझे और पहचान करे–इस गिरगिटमय परिवेश की ! ताकि जाग सकें वो, जो सोचना जानते हैं और सोचना आज अपराध बन गया है।       

 सरकारें किसी की भी होंं…उन्हें विचारवान से डर लगता है। सरकारें हों ऐसी कि उठा सकें– मुझ लुंज को अपने ही पैरों पर, ताकि स्थापित हो एक सभ्य ढंग ! स्थायित्व हो और संस्कृति का वह अंश जो लुप्तप्राय हुुआ, निरन्तर प्रवाहित हो सके। कह सके कि हमें गिरगिट नहीं, मानुष चाहिए। मानुुष यानी मनुष्य ! क्योंकि नियति है गिरगिट की–रंग बदलना। इसीलिए–लुंज एक अपाहिज ने आवाज दी–

अन्धे शहर में     

 रास्ता माँगने की जिद मत करो।       सड़कों पर चीखते,        गलियों में आवारा भौंकते कुत्तों की तरह,      अपनी दुम हिला लो,      

ओ आदमी ! तुम सूँघकर विचार लो        कहीं भीतर, और बदबूदार बूचड़खाने में       गर्दन कटी मुर्गियों को,       हड्डियाँ गुदे बच्चों को,       खाली पेट हाथ फैलाए बूढ़ों को       बचपन बेचती किशोरियों को        …और जवानी उघाड़, नंगी युवतियों को–  ‘सोजे वतन’ के ताप से मुक्त करो।       

 दो उनके हाथों में तलवार         नाखूनों में तेज धार और हाथों में खंजर !         कहो कि बदल डाले यह सब।          दुम हिलाते कुत्तों की उखाड़े दुम         और सभ्य भाषा से निचोड़ ले रसयुक्त शब्द !         नगर को रहने दो नगर          और लोगों को जीने का दो अधिकार।          होगा तभी यह–                 एकजुट चमकाओ तलवार !                सभ्यजन बनो असभ्य, ताकि                स्थापित हो सके–एक सही ढंग                 संस्कृति और स्वस्थ जन।               ओ रहमो-करम पर जीते आदमी–                तू उठ ! संगीत सजा, धुन बजा, गीत गा !               ओ मनुष्य ! नींद से जाग..!

और एक दिन, उस गिरगिटराज में अंधे भिखारी ने लाठी बाँटनी शुरू की। काने, लूले, लँगड़े और नामर्द–सभी ने लाठियाँ चटखानी सीख लीं। धुन बनी, गीत गाये, तराने गूँजे और पूरा नगर चीखने लगा। कोलाहल बढ़ने लगा। बदलने लगा ढंग।…महसूस हुआ कि राजा गिरगिट अपने असली रंग और शक्ल में आने लगा है।     

 एक चीखा–‘रक्तपात होगा जबर।’    

  नामर्द बोला–‘खून की नदियाँ बहेंगी।’    

  वेश्या की तर्नूमी गूँजी–‘अंधों की आँखें देखें रंग बदलना गिरगिट का। गिरगिट राज नहीं चलेगा, नहीं चलेगा।’…और काफिले बनते चले गए। अंधा भिखारी देखने लगा। उसने देखा–नगर मुखिया के सिंहासन पर वाकई गिरगिट विराजमान है।      

 गिरगिट–जो बार-बार रंग बदलता है। ढंग और चमक बदलता है। उसके विरोध में लोग इक्ट्ठे होने लगे।…और एक दिन नगर की कायापलट हो गई। चमके खंजर, नंगी तलवारें काटने लगीं। खून बहने लगा। शान्त बयार पलटी और अंधे की आँखों से नूर बरसने लगा।…और लोगों ने उस दूरगामी आँखों वाले भिखारी को, नगर प्रमुख के सिंहासन पर बैठा दिया।

error: Content is protected !!