गाय को मां कहते हैं लेकिन याद एक ही दिन आती.
गाय के प्रति यह कैसा है हमार अपना ही श्रद्धा भाव

फतह सिंह उजाला

एक   तरफ तो गाय को मां कहते हैं अर्थात गौ माता । लेकिन क्या वास्तव में गाय को हम मां मानते हैं या मानते आ रहे हैं या फिर आज के दौर में मां के लिए भी स्वार्थी हो चुके हैं ? बात सही, सच्ची और कड़वी भी है । आखिर हो भी क्यों नहीं , वर्ष में एक बार दीपावली पर्व के बाद गोपाष्टमी पर्व आता है और इसी गोपाष्टमी पर्व के मौके पर ही गौ मां की याद सताती है । समय तेजी से बदल गया , अब गोपाष्टमी भी एक फेस्टिवल तक सीमित होकर रह गया है । गोपाष्टमी के मौके पर ही एक दिन गौ माता की अपने स्वार्थ की याद आती है। आज के भौतिकवादी युग में जब अपनी जननी अथवा जन्म देने वाली मां को लोग बुढ़ापे में वृद्ध आश्रम में छोड़ने में भी नहीं झिझकते और संकोच करते हैं तो फिर बेजुबान गोमाता की बिसात ही क्या है ?

अपरिहार्य कारणों से अज्ञातवास को प्रस्थान कर चुके महामंडलेश्वर ज्योति गिरी के शिष्य महंत बिट्ठल गिरी जोकि महंत लक्ष्मण गिरि गौशाला बुचावास के संचालक हैं , उनका कहना है कि श्रद्धा का आसरा नहीं और गाय से प्रेम नहीं, उस व्यक्ति को पूजा जप, तक, यज्ञ फल प्राप्त भी नहीं । महंत विट्ठल गिरी बुचावास गौशाला में करीब 200 अपंग, जख्मी, तेजाब से झुलसी, लाचार बेबस गायों की सेवा टहल कर रहे हैं । महाकाल संस्थान के सानिध्य में बोहड़ाकला के महाकाल मंदिर परिसर में और गांव हेड़ाहेड़ी में भी अपंग और लाचार बेबस गोधन का आश्रय स्थल अर्थात गौशाला स्थित है । इनके अलावा अन्य संस्थाओं के द्वारा भी घायल ,लाचार, बेबस , अपंग गोधन की सेवा के लिए गौशाला सक्रिय है ।

महंत विट्ठल गिरी के मुताबिक जब गाय को मां कह ही दिया तो फिर गौमाता से अलग कैसे रहा जा सकता है । हमारे जैसे साधु-सन्यासी के लिए इस पृथ्वी और ब्रह्मांड में केवल और केवल गाय ही मां है । गौ माता की सेवा करके जो आत्मिक संतोष प्राप्त हो रहा है उसे हीर,े जवाहरात, सोने , चांदी हीरे , माणिक से भी खरीद कर प्राप्त नहीं किया जा सकता । वास्तव में महंत लक्ष्मण गिरी गौशाला में अंधे , जख्मी ,झुलसे ,दुर्घटनाग्रस्त ही गायं अथवा गोधन को रखा जाता है और इन्हीं की सेवा बीते कई वर्षों से की जा रही है । तीनों उपरोक्त गौशालाओं में शायद ही ऐसी कोई गाय हो जो दूध देने में सक्षम हो। हां यह बात अलग है कि जिस गाय के नीचे बछड़ा अथवा बछिया है वह अपना दूध अपने ही बछड़े अथवा बछिया को पिला रही है ।

सवाल यह है कि जब गोपाष्टमी आती है , उस समय ही गाय रूपी मां की याद क्यों सताती है ? क्या हम इतने स्वार्थी हो चुके हैं कि एक तरफ तो गाय को मां कहते हैं और दूसरी तरफ इसी मां को वर्ष में एक बार ही याद किया जाता है । आज भी ऐसी कितनी, अनेक अनगिनत गाय और गोधन है जो किं आवारा सड़कों पर घूमते हुए कूड़े करकट के ढेर में मुंह मारते हुए अपना पेट भरने को मजबूर है ।

ऋषि-मुनियों ने भी कहा और वेद शास्त्रों में भी वर्णित है की गाय में 33 करोड़ देवी देवता ही नहीं संपूर्ण ब्रह्मांड समाहित है । गाय एक जीव अथवा प्राणी नहीं है, वास्तव में गाय सनातन संस्कृति  का आधार है । गाय के रोम-रोम में इतने गुण हैं कि इनकी व्याख्या करना संभव ही नहीं । नियमित रूप से 40 दिन गाय के शरीर पर मुंह से पूंछ हाथ फेरा जाए तो इसके बाद शरीर के तमाम रोगों से छुटकारा भी मिल सकता है । वास्तव में गाय को आज के भौतिकवादी युग में उपभोग की चीज मान लिया गया है , जबकि वास्तव में यह उपयोग के लिए ही है । विट्ठल गिरी , महंत लक्ष्मण गिरी गौशाला में अपंग, बेबस , लाचार , अंधे गोधन की सेवा करना ही अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित किए हुए हैं । बिठ्ठल गिरी के मुताबिक यदि सही मायने में सनातन और हिंदुत्व को भविष्य के लिए  बचा के रखना है तो इसे केवल और केवल गाय के संरक्षण की बदौलत ही बचा के रखा जा सकता है। ऐसे हीं गोपाष्टमी तभी सार्थक है जब प्रतिदिन निस्वार्थ भाव से गाय की सेवा कर गाय का संरक्षण किया जाए।

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