डा.सुरेश वशिष्ठ

मधुवंती कब दिल में उतर गई पता ही नहीं चला। अधरों पर मुस्कान लिए टेढ़ी नजरों से निहारती हुई कब दिल में बैठ गई और कब प्रीत अंकुरण बलवन्त हुआ, समझ ही नहीं आया?मैंने एक रोज उससे पूछा–‘‘मन्द मुस्कुराते और आँखों में निहारते समय क्या कुछ सोचती रहती हो ?”      

  धीरे से उसने कहा–‘‘कुछ नहीं।”      

 ‘‘नहीं। बतलाव तो?’’    

   मेरी आँखों में तीर नजरों से डूबते हुए वह मुझसे बोली– ‘‘आपसे मिलने की चाह बनी रहती है। बतियाने को जी मचलता है। जिस रोज आपसे मुलाकात नहीं होती, उस दिन बेचैनी रहती है। ऐसा महसूस होता है जैसे आपके बगैर रह नहीं पाऊँगी?’’     

 ‘‘अच्छा ! तब तो तुम्हें मुझसे प्यार हो गया है।’’     

 ‘‘धत्।’’ वही चिर-परिचित गहरी मुस्कान उसके अधरों पर फैल गई और नजरें तिरछी कर वह मुझे घूरने लगी। धीरे-धीरे मुस्कान हँसी में बदलने लगी। नित्यप्रति ऐसी बातचीत हमारे मध्य होने लगीं थी।      

 दोनों के अन्तर्मन खुलने लगे और प्रीत हो गई।      

 समय आगे चला। एक-दूजे के बगैर रहना तकलीफ देह होने लगा। समर्पण भाव भी बढ़ने लगा था। एकान्त में हम मिलते, चिमटते और चुहलबाजी करते। चूमते–मानो अतृप्त भाव शान्ति को तलाश रहे हो? मिलन की चाह बढ़ती रही और हम चलते रहे।   

  दोनों के दिलों में अनुभूत स्वप्न चलने लगे थे।     

एक अंतराल के बाद अनर्गल बहस शुरू हो गई। आक्रोश भी दस्तक देने लगा। तकरार बनी और दोषारोपण होने लगे। मन की उलझनें और उलझती चली जा रही थी।तब–धीरे-धीरे उलझनों की गाँठें अच्छे से उलझने लगी।    

 आखिर एक दिन मैंने उससे पूछ ही लिया–‘‘आगे का क्या इरादा है?’’ 

  उसका रंग-ढंग बदला, मुझे यह आभास हुआ। उसके व्यवहार में भी परिवर्तन हुआ था। मैंने सहज इसे महसूस किया। मुँह फेर लेने पर वह खुश दिखलाई देती औरमेरे सामने, चुप-चुप और अहंकारी ! ध्यान-आकर्षण भी कम होने लगा था।    

  फिर दोष ढूँढ़े जाने लगे। बातचीत में व्यंग्य प्रकट होने लगा। अन्दर कोई बेचैनी दिल में हलचल बढ़ाने लगी थी। बातों में चुभन का आभास भी प्रतीत होने लगा। शंकित मन उलाहनों से भरने लगा।     

ऐसा भी कुछ था जिसे छुपाया जा रहा था लेकिन स्पष्ट नहीं हो रहा था। आँखों में डूबने की लालसा मिटने लगी थी। इसी सोच और बहस में दम घुटने लगा। अन्दर कहीं घाव बने और उनमें पीप का अहसास हुआ। गलतियाँ उसकी तरफ से होती थी, लेकिन वह उसे मानने को तैयार ही नहीं थी।

 समझाने पर भी किसी जिद्द से हटने को राजी ही नहीं थी। झुँझलाहट बढ़ने लगी। प्रतीत हुआ–उसके जहन में तीव्रआक्रोश की अग्नि ने प्रीत को खाक कर दिया है।!! प्रीत गई तो देह भी खोखली हुई। उसके साथ रहने पर हमेशा कूढ़ सी होने लगती। मनुहार समाप्त हुआ और समय के साथ-साथ तकरार बढ़ती रही और दिल रोता रहा। कई बार लगता था कि सब समझते हुए भी,  ऐसा व्यवहार वह करती थी।शायद दूर हटने का यह एक आसान तरीका था।    

 आखिर क्लेष में रहते हुए–स्वस्थ एक पुरुष की काया से प्राण उड़ गए। रोना-धोना मचा, अफसोस हुआ और कुछ दिनों के अन्तराल के बाद उसकी तरफ से वही दिनचर्या पुनः चलने लगी।      

 पुरुष की निष्प्राण देह को जब कन्धों पर ले जाया जाना था, उस दिन किसी हमदर्द ने उसे खबर दी, बेमन उसने सुना,तिरस्कृत एहसास में थोड़ी देर विचार किया और फिर मन की उलझन को कपड़ों पर पड़ी रेत की तरह झाड़कर वह अपने कार्य में व्यस्त हो गई।    

  कुछ समय के बाद उसके होठों पर वही मुस्कान पुनः दिखलाई पड़ने लगी।

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