छापकटैया पुस्तक के माध्यम से प्रो. राजेंद्र बड़गूजर ने हर प्रकार के साहित्यिक चोरों की पोल खोल कर रख दी है. इन्होंने ऐसे लोगों के गोरखधंधों की पोल खोलकर सीधे-साधे लेखकों, कवियों की आवाज़ को ताकत दी है. जो किसी न किसी डरवश या मंच के अभाव में अपनी रचना को भी अपनी नहीं कह पा रहे थे. जो अपनी रागिनियों या अन्य साहित्य पर दूसरों की छाप लगते हुए देखकर महाशय दयाचंद मायना की तरह खून के आंसू पीकर रह जाते होंगे.

— डॉo सत्यवान सौरभ,
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,
आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,

किसी भी किस्म का साहित्य एक बौद्धिक सम्पदा होता है. अन्य अधिकारों की तरह साहित्य पर भी उसके मूल लेखक का बौद्धिक सम्पदा अधिकार होता है. जिसके तहत वो अपने अधिकारों की मांग के उत्तर में उसके द्वारा रचित साहित्य को कोई चोरी करता है या छाप काटता है तो उस पर कानूनी कार्रवाई कर सकता है. आज के दौर में जब डिजिटिल मीडिया या सोशल मीडिया की भीड़ है तो साहित्यिक चोरी के मामले बहुत ज्यादा हो गए है. साथ ही उनकी पकड़ भी आसान हो गई है क्योंकि हमारी रचना को गूगल एक प्रहरी की तरह तुरंत सामने ले आएगा.

बीते समय में हमारे पास ऐसे साधन नहीं थे जिससे पता चल सके कि किस कवि की रचना को कौन अपने नाम से छाप रहा है? या उसकी छाप काटकर कौन गायक उसे अपने नाम के साथ लोगों को परोस रहा है? और कौन किसी की मेहनत का फल खुद चोरी-छुपे भोग रहा है. इसके पीछे दो कारण रहे होंगे. पहला सोशल मीडिया के अभाव में हमें पता नहीं चल पाता था और दूसरा इस विषय पर चर्चा करने वाले साहसी लेखकों की कमी रही होगी (शायद ऐसा जातिगत और सामाजिक स्तर के भेदभाव की वजह से रहा होगा.)

मगर इस विषय को अब बड़े ही जोर-शोर और सम्पूर्ण तथ्यों के साथ कोरोना काल का सदुपयोग करते हुए उठाया गया है महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी, बिहार के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो. राजेंद्र बड़गूजर के द्वारा. डॉ बड़गूजर हरियाणा के सोनीपत जिले के मलिकपुर गाँव से है. इनके पिता चौ. ताराचंद एक सामान्य किसान थे और ये लोकसाहित्य के सम्पादन प्रति अपने झुकाव का श्रेय अपने पिता को ही देते हैं. प्रो. राजेंद्र बड़गूजर पिछले 15 वर्षों से हरियाणवी लोक साहित्य को सम्पादित कर रहे हैं. ये अब तक हरियाणवी लोक साहित्य पर 24 पुस्तकें लिख चुके हैं.

हरियाणवी लोक साहित्य में गुमनामी के कगार पर पहुँच चुके सांगियो, लोककवियो और भजनियो को साहित्य की मुख्यधारा में लेकर आना इनका मिशन है. इस दौरान इन्होने हरियाणवी लोक साहित्य पर ‘छापकटैया’ शीर्षक से तीन सौ आठ पृष्ठों की पुस्तक को तथ्यों सहित प्रकाशित करवाया है. पुस्तक में आज तक की देश-विदेशों और खासकर हरियाणा की टॉप रागनी ‘पानी आली पानी प्या दे’ के लेखक दयाचंद मायना का जिक्र करते हुए बताया है कि कैसे चोर-प्रवृति के लेखकों, कवियों, सम्पादकों, गायकों ने उनकी मौलिक रचनाओं को अपना बनाकर वाह-वाही लूटी.

छापकटैया पुस्तक के माध्यम से प्रो. राजेंद्र बड़गूजर ने हर प्रकार के साहित्यिक चोरों की पोल खोल कर रख दी है. इन्होने ऐसे लोगो के गोरखधंधों की पोल खोलकर सीधे-साधे लेखकों, कवियों की आवाज़ को ताकत दी है जो किसी न किसी डरवश या मंच के अभाव में अपनी रचना को भी अपनी नहीं कह पा रहे थे. जो अपनी रागनियों या अन्य साहित्य पर दूसरों की छाप लगते हुए देखकर महाशय दयाचंद मायना की तरह खून के आंसू पीकर रह जाते होंगे.

मूल कवि की छाप हटाकर उसे अपने नाम से प्रचारित-प्रसारित या गायन करने वाला छापकटैया होता है. जो दूसरी बार आदर का भागीदार कभी नहीं बन सकता. ऐसे लोगों को एक बार पैसा या वाहवाही मिलने के बाद जीवन में दुत्कार ही दुत्कार मिलती है. इसलिए किसी भी व्यक्ति को ऐसे कर्म से बचना चाहिए. अगर किसी को किसी की रचना इतनी ही भा गई तो मूल कवि या लेखक के नाम के साथ उसे गाने या प्रकाशित-प्रचारित करने में क्या दिक्क्त है? अगर फिर भी कोई ऐसा करता है तो स्वाभाविक है उसकी प्रवृति ठीक नहीं है. संयोगवश किसी रचना के शब्द मिल सकते है या ज्यादा से ज्यादा एक पंक्ति मगर पूरी रचना का मेल तो हेर-फेर या चोरी ही कहा जाएगा.

ऐसी बौद्धिक सम्पति की रक्षा के लिए मूल लेखक को पहल करनी होगी. उसकी कोई भी रचना ऑथेंटिक तरीके से ही सर्कुलेशन में आये. आजकल तो सब रिकार्डेड है, इंटरनेट पर समय अवधी भी जुटाई जा सकती है कि कौन सी रचना कब कहाँ प्रकाशित हुई. लेकिन पुराने रचनाकारों की रचनाओं की दिक्क्त है. उनकी रचनाओं को सहेजने में सद्गुणी संपादक और शोधार्थी अहम भूमिका अदा कर सकते हैं अगर वो सही को सही और सच को सच कह दे बस. मूल कवि या रचयिता की छाप काटने वाले छापकटैया लोगों को सकारात्मक चेतावनी देकर उनके हृदय को झकझोरा जा सकता है. अगर फिर भी बात नहीं बनती तो आजकल बौद्धिक सम्पदा कानून का इस्तेमाल किया जा सकता है.

राय धनपतसिंह निंदाना ग्रंथावली, सोरणराम नैणा हरियाणवी रचनावली, महाशय गुणपाल कासंडा हरियाणवी ग्रंथावली, महाशय दयाचंद मायना: देश-प्रेम एवं समाज सुधार की रागणियाँ, अमरसिंह छाछिया की रागणियाँ, सतबीर पाई : सम्पूर्ण रागणियाँ, कृष्णचंद्र रोहणा ग्रंथावली, महाशय छज्जूलाल सिलाणा ग्रंथावली, फौजी प्रेमसिंह कृत किस्सा भीमराव अंबेडकर और अन्य रागणियाँ, करतारसिंह कैत की रागणियाँ, देईचंद ग्रंथावली, महाशय दयाचंद मायना ग्रंथावली, महाशय छज्जूलाल सिलाना: देश-प्रेम एवं समाज सुधार की रागणियाँ, मास्टर दयाचंद आज़ाद सिंघाना ग्रंथावली, सांग-सम्राट चंद्रलाल बादी ग्रंथावली, संत कृष्णदास ग्रंथावली, सेवाराम बखेता ग्रंथावली, मुंशीराम जांडली ग्रंथावली आदि पुस्तकों का सम्पादन कर चुके प्रो. राजेंद्र बड़गूजर के पास दर्जनों दुर्लभ पंडुलिपियाँ हैं जो आने वाले समय में हरियाणवी लोकसाहित्य को और समृद्ध करेंगी.

प्रो. राजेंद्र बड़गूजर मूलत: कवि हैं. इनके तीन कविता संग्रह – ‘भीड़ी गलियाँ तंग मकान’, ‘मनु का पाप’ तथा ‘कुछ मत कह देना!’ दो कहानी संग्रह – ‘कसक’ तथा ‘हमारी जमीन हम बोएंगे’ प्रकाशित हो चुके हैं. इसके अलावा छह आलोचनात्मक पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं. इनके सहित्य पर कु.वि. कुरुक्षेत्र, हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, मेरठ विश्वविद्यालय, पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ जैसे ख्याति प्राप्त विश्वविद्यालयों में एम.फिल. तथा पीएच.डी. के शोधकार्य संपन्न हो चुके हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन का प्रो-. बड़गूजर की कविताओं के विषय में कहना है ‘राजेन्द्र बड़गूजर दलित आंदोलन की तस्वीर पेश कर रहे हैं। ये कविताएं आने वाली पीढ़ियों को जरूर प्रेरित करेंगी, ऐसा मेरा विश्वास है। मैं कवि की रचनाशीलता की सक्रियता और निरंतरता की कामना करता हूँ। ‘मोहनदास नैमिशराय ने भी इनकी कविताओं की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है, “इन कविताओं के अलग रंग हैं, बिम्ब हैं, संदेश हैं और सामाजिक सरोकार भी हैं। बिना सामाजिक सरोकार के राजेन्द्र बड़गूजर जी की कविताएँ आगे नहीं बढ़ती। उनकी कविताओं में ईमानदार रचनाधर्मिता है।

वर्तमान में प्रो. बड़गूजर महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय मोतिहारी में ‘लोक कला एवम्‌ संस्कृति निष्पादन केंद्र’ के निदेशक के रूप मैं बिहार की लोक कलाओं के संरक्षण के लिए प्रयासरत हैं. उन्होंने बताया कि वे इस केंद्र के माध्यम से पूरे भारत के लोक के सांस्कृतिक तंतुओं को खोजने का प्रयास करेंगे. उन्हें उम्रदराज हो चुके लोकगायकों से मिलना और उनकी धरोहर को सहेजना सबसे प्रिय कार्य लगता है. उन्होंने हरियाणा साहित्य अकादमी पंचकूला से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘हरिगंधा’ के ‘सांग विशेषांक’ का भी अतिथि सम्पादन किया जिसकी पूरे हरियाणा में भूरि-भूरि प्रशंसा हुई.

प्रो. बड़गूजर हरियाणा में छाप के मसले पर बोलने वाले पहले सम्पादक हैं. वे प्रयासरत हैं कि कोई भी गायक किसी ही भी कवि की रचना की छाप काटकर न गाए. छापकटैयो के लिए संविधान में कानून है. वे आश्वस्त हैं कि उनकी इस किताब से छाप काटकर गाने पर रोक लगेगी. निसंदेह प्रो. राजेंद्र बड़गूजर की यह किताब ऐतिहासिक और साहसिक पहल है. ये सम्पूर्ण हिंदी साहित्य के अलावा अन्य भाषाओँ के साहित्यकारों के लिए विश्वभर में एक उम्मीद की किरण है जो सभी को नया रास्ता दिखाएगी और छापकटैया लोगों के लिए एक चेतावनी पेश करेगी.