डॉ सुरेश वशिष्ठ

सुंदर शहरों में ऐसी बहुत सी जगह हैं जहां हर शाम हमारे रहनुमाओं और दरबारियों का मिलन होता है । हम गरीबों का वहां जाना वर्जित है । वहां पहुंचकर इन सबों का चेहरा चमक उठता है और प्रफुल्ल आनन्द में क्रूर दिल लहकने लगता है । भेद की बातें यहां होती हैं और मस्ती का आलम मस्त धुनों में यहां थिरकता है । चौकन्नी और धारदार हुकूमत मक्कार दृष्टि लिए घृणित राजनीति के पासे फेंकना बड़ी चतुराई से यहां सीखती है ।   

 अनंत काल तक सत्ता पर काबिज रहने के लिए ऐसी जगहों का होना, हुकूमत के लिए बहुत जरूरी है । आकर्षण से भरी जादुई नगरी सी, ऐसी जगहेें प्यालों के दौर से शुरू होती है और कुल्हों की गर्माइश की ठुमक-ठुम तक जा पहुंचती हैंं । मस्त आलम में इनकी तीसरी आंख जब खुलती है, तब बातचीत का सिलसिला कुछ इस कदर चलता है–   

 एक–‘मरियल से दिखने वाले इन बदबूदार लोगों में बड़ी ताकत है ।’   

 दो–‘इन्हें एकजुट होने ही न दो । एकजुट हुए तो हमारी शामत..।’   

तीसरा–‘इनमें भेद रखना हमारा कर्म है । हिंदुओं में जात-पात और मुसलमानों में इस्लाम और कुछ रंगभेद, भाषा-बोली हमारे लिए फायदेमंद है । येे ढकोसले जब तक जिंदा है, हम यूं ही मस्ती में झूमते रहेंगे ।’ 

  एक–‘हुकूमत पर कोई आंच नहीं आएगी ।’

दो- इन कठपुतलियों को नचाना हमारा मकसद है ।शिष्टाचार, अत्याचार, भ्रष्टाचार, बलात्कार, पत्राचार और लाचार इन सबके अलग-अलग अर्थ इन्हें करने दो, और मीठी बातों में, उन्हीं की नब्ज टटोलते हुए तुम भी उस व्याख्या को सही करार देते रहो, इतना बहुत है, और येे बैल की तरह दुम हिलाते रहेंगे ।’   

  तीन–‘पालतू कुत्ते की तरह दुम हिलाते रहेंगे ?’

 सभी खिलखिलाकर हंस पड़ते हैं । एक अजीब सी हंसी, जिसकी बहुत सी व्याख्याएं हैं, बहुत से भावार्थ है । और फिर शराब का दौर शुरू हुआ । हुडदंग मचा, कुछों ने धुन पर कुल्हों को थिरकाया, कुछोंं ने गाया और कुछो ने नंगा रोमांस किया । लड़की को बाहों में झुलाया, मस्त चलाया, गुल की  आबरू को खाक में मिलाया ।

बाबकट हसीना चहकती हुई आई और एक से बोली–‘गुंडों द्वारा आतंक फैलाए रखना भी जरूरी है, ताकि इन जंगलियों में दहशत भरी रहे । इनका वह निडर दिल चूहे के समान कांंपता रहे और  हम रोशन होते  रहे, हुकूमत करते रहेंं ।’

 एक खप्ती बूढ़ा, पीकर मदहोश हुआ । इन सभी की बातें वह बड़ी देर से सुन रहा था । नशा जब आसमान चढ़ा, तब इनकी तरफ देखकर वह मुस्कुराया, हसीना की चुम्मी ली और धुन पर थिरक कर कहना शुरू किया– ‘मस्त पंजाब की धरती पर हीर-रांझे और सोनी-महिवाल के अमर प्रेम तराने गाए गए । उन खलिहानों में, जहां सरसों के फूल मुस्कुराते थे, पवित्रता चहकती थी, वहां हमने वक्ती चकले आबाद किए और लाशों के ढेर में दुर्गंध पैदा की, अब वहां कभी तराने नहीं गाए जाएंगे और ना कोई हीर, ना कोई रांझा पैदा होगा । अगर पैदा होगा तो अपाहिज, मजबूर और लाचार इंसान, जिसे सोचने की फुरसत नहीं होगी और हम हुकूमत करते रहेंगे ।…जय हिंद !’

एक जाम और पी लेने के बाद, थिरक रही गुलबदन की पतली कमर में बाहें डालकर, टांगो में से टांगे निकालकर, उसकी छाती पर नजरें गड़ाकर उसने पुन: भाषण प्रारंभ किया– ‘कश्मीर की घाटियों में, जहां कलियों-सी हसीन गुलबदनें प्रफुल्ल चहक उठती थी, बदन की झकझोर के साथ खिल उठती थी, हवा के संग गा उठती थी, उनके होठों में अब गीत नहीं रहे । हमने उन होठों को सी दिया । अब कभी प्रफुल्ल चहक वहां पैदा नहीं होगी । कभी अमन-चैन नसीब नहीं होगा ।’

खिल-खिलाकर सभी हंस पड़े और बाबकट हसीना दोनों टांगों को चौडीकर बीच के हिस्से से थिरक गई । बूढ़े के नकली दांत हिनहिनाए । अंगुली से उन्हें ठीक बैठाकर उसने अपनी बात फिर शुरू की– ‘हमने और तुमने, यानी हम सभी ने, यानी हुकूमत के हम सब बादशाहों ने इनमें बेचारगी फैला दी, आदमी को ऐसा लुंज और भयानक बना दिया कि वह सोचना भूल गया, और स्वयं आग फूंककर उसमें स्वाहा हो गया । हमने ऐसा तपाया आदमी को कि वह आदमी न रहा ।’ खिल-खिलाकर सबकेे सब गा उठे– ‘क्या खूब चाल हमरी…औ ठुमरी भर बदनी…ओ चुमरी चर चिकनी… नाच-नाच झुमरी…ओ झुमरी, भर बदनी ओ ठुमरी’…और वह, नंगे बदन नृत्य कर रही गुलबदन हसीना के शरीर से लिपट गया ।