क्या समानता है मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष में. क्या रोक पाएंगे भाजपा के गिरते जनाधार को?. क्या संगठन और सरकार मिलकर चलेंगे या संगठन अपना काम अलग करेगा?. हरियाणा के वरिष्ठ भाजपाइयों का मिल सकेगा साथ?

भारत सारथी/ऋषि प्रकाश कौशिक

आखिर भाजपा में महाशिवरात्रि के दिन लंबे इंतजार के बाद अपने प्रदेश अध्यक्ष की घोषणा कर दी। जैसा कि स्वाभाविक है कि घोषणा होते ही सारे प्रदेश से कार्यकर्ताओं द्वारा बधाई का सिलसिला आरंभ हुआ और उनके कार्य, चरित्र, योग्यता के कसीदे पढ़े जाने लगे। होना भी था, क्योंकि प्रदेश का संगठन जो अब प्रदेश अध्यक्ष ओमप्रकाश धनखड़ ही बनाएंगे। अत: पार्टी के महत्वकांक्षी व्यक्ति जो पदों पर विराजित होना चाहते हैं, बढ़-चढक़र बधाई और गुणगान में लगे हुए हैं।

लंबे समय की जद्दोजहद में भी प्रधान का नाम तय नहीं हो पा रहा था और बातें चल रही थीं कि प्रधान मुख्यमंत्री की पसंद का होना चाहिए। और जब तक मुख्यमंत्री की पसंद का प्रधान नहीं होगा तब तक प्रधान का चुनाव लटकता ही रहेगा। और अब जब मुख्यमंत्री से स्वीकृति मिल गई तो प्रधान पद घोषित भी हो गया।

2014 में जब हरियाणा के मुख्यमंत्री का नाम घोषित हुआ, तब भी वरिष्ठ भाजपाइयों को धक्का लगा था और बधाइयों का सिलसिला बड़ी तेजी से चला था। मुख्यमंत्री को पार्टी के विधायकों का समर्थन प्राप्त न होकर हाइकमान अर्थात मोदी जी का आशीर्वाद प्राप्त था, अब भी प्राप्त है और ऐसा ही कुछ अब नवनियुक्त प्रदेश प्रधान ओमप्रकाश धनखड़ के बारे में कह सकते हैं। ओमप्रकाश धनखड़ भी लंबे समय से मुख्यमंत्री के साथी रहे हैं। हरियाणा में प्रधानमंत्री पद के दावेदार होने के पश्चात मोदी की प्रथम रैली के संयोजक ओमप्रकाश धनखड़ ही थे। उसके पश्चात भी अनेक मौकों पर मोदी के कार्यक्रमों का हिस्सा बनते रहे हैं और कमान संभालते रहे हैं। अत: निसंकोच कह सकते हैं कि उन्हें भी प्रधानमंत्री मोदी और हाइकमान का आशीर्वाद प्राप्त है। यह तो सर्वविदित है ही कि दोनों संघ से जुड़े हुए हैं। दोनों पढ़े-लिखे हैं।

वर्तमान में जब भाजपा के सर्वे में ही मुख्यमंत्री की लोकप्रियता निम्न स्तर पर पाई जाती है तो यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि भाजपा का जनाधार हरियाणा में गिर रहा है। फिर पिछले दिनों में मुख्यमंत्री की कार्यशैली कहें या संगठन की कार्यशैली कहें, भाजपा के अपने पदाधिकारियों में भी असंतोष फैला है। मुखर होकर कोई कुछ नहीं बोल पा रहा है, लेकिन अंदर चर्चाएं बहुत हैं। फिर पिछले दिनों से जिस प्रकार पदों के लिए लॉबिंग हो रही है, उससे भी भाजपा के संगठन में बिखराव आया ही आया है। ऐसी स्थिति में भाजपा के जनाधार को बढ़ाना तो बहुत दूर की बात है, जहां है वहीं थामे रखना भी इस जोड़ी के लिए चुनौती होगी।

ऐसी स्थिति में अपने हाइकमान को अपनी प्रतिभा दिखाने का प्रयास दोनों ही जी-तोड़ लगन और मेहनत से करेंगे लेकिन इसमें प्रश्न यह उठता है कि दोनों संगठन से निकले हैं, मोदी के साथी हैं परंतु स्वभाव तो अलग-अलग हैं। जिस प्रकार सुभाष बराला कार्य करते थे, वहां कहीं प्रदेश अध्यक्ष की उपस्थिति नाम की ही होती थी। संगठन में भी यह माना जाता था कि जो भी कार्य होने हैं, वे मुख्यमंत्री की सहमति के बिना नहीं होने। अर्थात सत्ता का केंद्र बिंदु मुख्यमंत्री खट्टर ही रहे हैं। अब देखना यह होगा कि विद्वान ओमप्रकाश धनखड़ क्या अपने इतने लंबे राजनैतिक अनुभव का लाभ उठाकर खुद को परिपक्व समझने लगे हैं या नहीं। यदि परिपक्व समझने लगे हैं तो जैसा कि विधान है पार्टी संगठन का कार्य अलग और सरकार का कार्य अलग होता है। अब सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि क्या ओमप्रकाश धनखड़ अपनी समझ से पार्टी संगठन को मजबूत करने का कार्य करेंगे या मुख्यमंत्री के निर्देशानुसार? वैसे यह तो तय है कि जो पार्टी और सरकार की ओर से संदेश आना है, वह तो यही आना है कि हमारी पार्टी में अब नियमानुसार और लोकतांत्रित परंपराओं के अनुसार होता है।

ओमप्रकाश धनखड़ के सामने चुनौतियां:

नवनियुक्त प्रदेश अध्यक्ष का पद कोई तोहफा नहीं है, कांटों का ताज है। वर्तमान में जो भाजपा की स्थिति बनी हुई है और जिन परिस्थितियों में ओमप्रकाश धनखड़ को प्रधान बनाया गया है, वह अग्निपथ से कम नहीं।

जैसा कि भाजपा के सूत्रों से ज्ञात हो रहा है कि जाट चेहरा होने की वजह से इन्हें प्रधान पद मिला है। जाट चेहरा कैप्टन अभिमन्यु भी बहुत बड़ा है और वह संघ से भी जुड़े हुए हैं। वरिष्ठता के हिसाब से भी वह इनसे कम तो नहीं होंगे। ऐसी स्थिति में यह भूपेंद्र सिंह हुड्डा, दीपेंद्र सिंह हुड्डा, दुष्यंत चौटाला, अभय चौटाला का सामना कर पाएंगे।

चलिए छोडि़ए, यह तो विपक्ष की बात है, समय बताएगा। परंतु लगता है कि जिस प्रकार भाजपा में बीच-बीच में कहा जाता रहा कि प्रधान अनुभवी और वरिष्ठ को बनाएंगे, हारे हुए को नहीं बनाएंगे। उसमें कभी कृष्णपाल गुर्जर, कभी नायब सैनी, कभी सुभाष बराला को दोबारा देने की बात, कभी संजय भाटिया, कभी रतन लाल कटारिया, कभी प्रो. रामबिलास शर्मा आदि के नाम चलते रहे। इसके पश्चात इन्हें बनाया गया तो मानव का स्वभाव है कि जो चीज उसे मिलने वाली हो, वह छिन जाए तो असंतोष तो जागरूक हो ही जाता है। फिर वह अब इनमें भी हो सकता है। तो बड़ा काम इनका साथ लेकर चलना होगा, क्योंकि ये सभी जनाधार वाले नेता हैं और यह खुद अपने बादली क्षेत्र में बाहर से नरेश वत्स से हारे हुए हैं।

अब बात करें संगठन बनाने की। तो उसमें कृष्णपाल गुर्जर, राव इंद्रजीत सिंह, सांसद धर्मबीर, सांसद अरविंद शर्मा, संजय भाटिया…. आदि क्या इनके आदेश मान पाएंगे, यह बड़ा प्रश्न है। अपने-अपने क्षेत्रों में व अपनी मर्जी चलाने में ये सांसद इच्छा विरुद्ध कार्य को पसंद तो नहीं करेंगे। यह भी चुनौती है।

धनखड़ जी संगठन बनाएंगे, इन लोगों से संबंध मधुर करेंगे या फिर बरोदा उप चुनाव जो मुंह बाये सामने खड़ा है, उसकी ओर ध्यान देंगे। बादली से संबंध रखते हैं, इसलिए कह सकते हैं उन्हीं की भाषा में कि प्रधान पद तो मिल गया पर सफलता पाने में हरियाणा की कहावत यही चरितार्थ होगी कि कानी के ब्याह में सौ जोखम।

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