( छोटे से फायदे के लिए हम आधी से ज्यादा आबादी का रोजमर्रा का नुकसान नहीं कर सकते।)

 डॉo सत्यवान सौरभ, रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,दिल्ली यूनिवर्सिटी,कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट

हादसों की वजह से चर्चा में रहने वाली भारतीय रेल अब कोरोना से उपजे वित्तीय संकट की जद में है। दुनिया के चौथे सबसे बड़े रेल नेटवर्क को पटरी पर लाने के लिए सरकार उसके स्वरूप में बदलाव की तैयारी कर रही है। इसके तहत हजारों पदों में कटौती करने के अलावा नई नियुक्तियों पर रोक लगाने और देश के कई रूट पर ट्रेनों को निजी हाथों में सौंपने जैसे कदम उठाए जा रहे हैं।

देश की ज्यादातर आबादी के लिए भारतीय रेल जीवनरेखा की भूमिका निभाती रही है। निजी हाथों में जाने के बाद सुविधाओं की तुलना में किराए में असामान्य बढ़ोतरी तय मानी जा रही है। रेल देश में सबसे ज्यादा लोगों को नौकरी देने वाला संस्थान है। फिलहाल, इसमें 12 लाख से ज्यादा कर्मचारी काम करते हैं।

देश की अर्थव्यवस्था से लेकर आम जन-जीवन को यह कैसे प्रभावित करेगा यह समझना ज़रूरी है। देश के लिए यह निजीकरण कितना अच्छा है या कितना बुरा है इसपर विचार करना आवश्यक है। भारत की पहली प्राइवेट ट्रेन तेजस एक्सप्रेस के संचालन के बाद अब भारतीय रेलवे ने 151 नई ट्रेनों के माध्यम से निजी कंपनियों को अपने नेटवर्क पर यात्री ट्रेनों के संचालन की अनुमति देने की प्रक्रिया शुरू की है। यह सभी यात्री ट्रेनें संपूर्ण रेलवे नेटवर्क का एक छोटा हिस्सा हैं, सरकार द्वारा प्रारंभ की गई निजीकरण की प्रक्रिया यात्री ट्रेन संचालन में निजी क्षेत्र की भागीदारी की शुरुआत का प्रतीक है।

निजीकरण का तात्पर्य ऐसी प्रक्रिया से है जिसमें किसी विशेष सार्वजनिक संपत्ति अथवा कारोबार का स्वामित्व सरकारी संगठन से स्थानांतरित कर किसी निजी संस्था को दे दिया जाता है। अतः यह कहा जा सकता है कि निजीकरण के माध्यम से एक नवीन औद्योगिक संस्कृति का विकास संभव हो पाता है।हाल के दिनों में यह प्रयोग भारतीय रेलवे के साथ करने की भी कोशिशें हुई हैं, जिसने कुछ वर्गों को आक्रोशित करने का कार्य किया है, जबकि कुछ एक वर्ग सरकार के इस कदम से प्रभावित भी हुए हैं।

देश की अर्थव्यवस्था से लेकर आम जन-जीवन को यह कैसे प्रभावित करेगा यह समझना ज़रूरी है। देश के लिए यह निजीकरण कितना अच्छा है या कितना बुरा है इस पर विचार करना आवश्यक है। भारत में व्यावसायिक ट्रेन यात्रा की शुरुआत वर्ष 1853 में हुई थी जिसके बाद वर्ष 1900 में भारतीय रेलवे तत्कालीन सरकार के अधीन आ गई थी। भारतीय अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ा सहयोग इसी क्षेत्र का है

साल 1925 में बॉम्बे से कुर्ला के बीच देश की पहली इलेक्ट्रिक ट्रेन चलाई गई। वर्ष 1947 में स्वतंत्रता के पश्चात् भारत को एक पुराना रेल नेटवर्क विरासत में मिला मगर पूर्व में विकसित लगभग 40 प्रतिशत रेल नेटवर्क पाकिस्तान के हिस्से में चला गया।तब रेलवे के विकास के लिए  कुछ लाइनों की मरम्मत की गई और कुछ नई लाइने बिछाई गई ताकि जम्मू व उत्तर-पूर्व भारत के कुछ क्षेत्रों को देश के अन्य हिस्सों से जोड़ा जा सके।

1952 में रेल नेटवर्क को  आधुनिक रूप से मजबूत और विकसित बनाने के लिए ज़ोन में बदलने का निर्णय लिया गया और रेलवे के कुल 6 ज़ोन अस्तित्व में आए। उस समय में रेलवे संबंधी जरूरतों को विदेशों से पूरा किया जाता था परंतु देश ने जैसे-जैसे विकास किया रेलवे संबंधी जरूरतों की पूर्ति भी देश के अंदर  से ही होने लगी और हमारी रेलवे उत्तरोत्तर प्रगति के पथ पर दौड़ती चली गई।

नए दौर और रेलवे पर बढ़ते दबाव के चलते 2003 में रेलवे ज़ोन की संख्या को बढ़ाकर 12 कर दिया गय।  और समय के साथ-साथ अन्य मौकों पर रेलवे ज़ोन्स की संख्या बढ़ते हुए 17 हो गई । मगर देश में जैसे-जैसे रेलवे नेटवर्क का विकास होता गया, रेलवे के संचालन और प्रबंधन संबंधी चुनौतियाँ भी सामने आई और नए विकल्पों की खोज की जाने लगी। जब सरकारें रेलवे के मुनाफे को ज्यादा नहीं बढ़ा पाई तो आर्थिक विशेषज्ञ रेलवे के निजीकरण को मुनाफे के एक विकल्प के रूप में देखने लगे।

आज सबसे बड़ा प्रश्न ये है कि रेलवे जो गरीबों का रथ रही है आखिर उसका निजीकरण क्यों किया जा रहा है।  माना जा रहा है कि  रेलवे के निजीकरण के बाद साफ-सफाई की सुविधा बेहतर होगी, ट्रेनों के सुचारू रूप से परिचालन के कारण समय की काफी बचत होगी, ट्रेन के अंदर भी बेहतर सुख सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी। रेलवे अपने बुनियादी ढाँचे और सेवाओं के आधुनिकीकरण के साथ तालमेल बिठा पाने में सफल हो पायेगी।

मगर निजीकरण के दूसरे पहलू को देखें तो कुछ लग ही नज़र आता है। निजी कंपनियों का मुख्य उद्देश्य पैसा कमाने का होता है और रेलवे को भी वो अपने मुनाफे के लिए ही प्रयोग करेंगे। सुख-सुविधाओं के बदले किराए में अनाप-शनाप  बढ़ोतरी देखने को मिलेगी, जिससे कि गरीब लोगों के लिए रेल यात्रा काफी महंगी और दूभर हो जाएगी। भारतीय समाज का एक तबका यात्रा के लिए केवल रेलवे पर निर्भर हैं इस निजीकरण से वो इसको भी खो देंगे।

सबसे बड़ी बात ये भी है इतने बड़े रेलवे क्षेत्र का परिचालन किसी एक निजी कंपनी द्वारा नहीं किया जा सकता। और अलग-अलग हिस्सों को अलग-अलग हाथों में सौंपना रेलवे को काट-काट कर बेचने के बराबर होगा। साथ-साथ ही एकरूपता कि कमी भी खलेगी। किसी दुर्घटना के वक्त जिम्मेवारी कौन लेगा।  जब अपने-अपने क्षेत्रों का हवाला देकर सब पल्ला झाड़ लेंगे। आखिर मार उस आम गरीब आदमी पर पड़ेगी जो अन्य माध्यम से यात्रा कि स्थिति में नहीं होगा।

निजीकरण के ठेकेदार अपना मुनाफा देखंगे। जहाँ केवल एक गरीब तबका ही रेल यात्रा करता होगा वो मार्ग बंद कर दिए जायँगे क्योंकि उनसे उनको पैसा नहीं आ रहा होगा और इस कदम से ऐसे हिस्सों में रहने वाले लोग वहीँ के होकर रह जाएंगे। यदि रेलवे का स्वामित्त्व भारत सरकार के पास ही रहता है तो इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि वह लाभ की परवाह किये बिना राष्ट्रव्यापी कनेक्टिविटी प्रदान करती है।

निज़ी कंपनियों में विदेशी कंपनियों की साझेदारी होती है ऐसे में यदि निज़ी कंपनियों को रेल परिचालन का कार्य दिया जाता है तो संभावना है कि उसकी सुरक्षा से समझौता हो जाए और भारत की छवि पूरी दुनिया में धूमिल हो जाये।

अगर बिना सोचे समझे नागरिकों के अधिकारों का हनन कर भारतीय सरकार रेलवे का निजीकरण करती है, तो यह उनके साथ अन्याय होगा, भारत की रक्त शिराओं को बेचने जैसे होगा।  अर्थव्यवस्था की मज़बूती के लिए सरकार निजीकरण के अलावा कोई और विकल्प तलाश कर सकती है या फिर बसों का पूर्ण निजीकरण करके देख सकती है।

रेलवे निजीकरण के परिणाम स्वरुप ब्रिटेन जैसे देश को मुंह की खानी पड़ी और जनता द्वारा भारी विरोध का सामना करना पड़ा। देश की अर्थव्यस्था को निजीकरण से हर जगह फायदे नहीं देखने चाहिए आखिर सरकार जनता के हित के लिए है , छोटे से फायदे के लिए हम आधी से ज्यादा आबादी का रोजमर्रा का नुकसान नहीं कर सकते।

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