अनघा जोगलेकर, गुरुग्राम

शास्त्रों के अनुसार दृष्टि तीन प्रकार की होती है –
चर्मचक्षु की दृष्टि – जो प्राणियों को देखने की शक्ति देती है।
ज्ञानचक्षु की दृष्टि – जो नित्य-अनित्य, सत-असत, जड़-चेतन और अपने स्वरूप का बोध कराती है।
दिव्यचक्षु की दृष्टि – जो परमात्मा के अलौकिक, दिव्य, ऐश्वर्ययुक्त, विराट स्वरूप को देखने की क्षमता देती है। 

और मेरे विचार से चौथी दृष्टि है साहित्य की दृष्टि –  जिसमें इन ऊपर बताई तीनों दृष्टिओं का समावेश प्रतीत होता है।  इसमें ना भेदभाव होता है, ना छोटा-बड़ा, ना ऊंच-नीच। 

और इसी चौथी दृष्टि पर आधारित है आ. अशोक जैन द्वारा प्रकाशित ‘दृष्टि’ जो मात्र गुणवत्ता पर केंद्रित होती है। इसी परम्परा का निर्वहन करते हुए नया अंक, ‘मेरी प्रिय लघुकथाएँ’ बहुत मनभावन है।

185 पृष्ठों का यह अंक संपादकीय से आरम्भ होता है जो बहुत आकर्षक है।इसके बाद 3 आलेख हैं और एक विशिष्ट लघुकथाकार की 5 लघुकथाएँ।

पहला आलेख आ. बलराम अग्रवाल का है जो लेखक के विस्तृत अध्ययन का सार है।

दूसरा आलेख आ. माधव नागदा का है जिसमें लेखक ने पाठ्यक्रम में लघुकथाओं का महत्व बताते हुए पंडित विष्णु शर्मा, गौतम बुद्ध, महावीर, ओशो आदि का वर्णन कर अपने आलेख को प्रभुता प्रदान की है। युवा मन को संस्कारित करने में  लघुकथाओं के योगदान पर   आधारित यह आलेख महत्वपूर्ण है।

तीसरा आलेख आ. वीरेंद्र वीर मेहता का है। मेहता जी ने आधुनिक लघुकथाकारों का सूक्ष्म अध्ययन कर उनकी क्षमताओं और कमियों का एक विस्तृत खाका खींचा है।

इन आलेखों के बाद आ बलराम विशिष्ट लघुकथाकार के रूप में उपस्थित हैं। लेखक द्वारा पहली ही पंक्ति में दिया गया 2 समान नामों का रहस्योद्घाटन रोचक है।  साथ ही विशिष्ट लघुकथाकार के रूप में उनकी लगाई सारी ही लघुकथाएँ अनुपम हैं।

इसके बाद शुरू होती हैं लघुकथाएँ।इस उपक्रम में लघुकथाकारों के नामों को अ..आ..इ..ई.. के क्रम में सूचीबद्ध किया गया है ताकि वरिष्ठ, कनिष्ठ या नवोदित का कोई भेद ही न रहे। दृष्टि के इस अंक में 112 लघुकथाकारों की लघुकथाएँ हैं। साथ ही इसमें एक नवीनता यह है कि प्रत्येक लघुकथा के शुरुआत में लघुकथाकारों के विचारों को स्थान दिया गया है। इसे, संक्षिप्त रचना प्रक्रिया या रचना लिखने की प्रेरणा, कहा जा सकता है जो बहुत ही आकर्षक है। इसे पढ़ते हुए अनायास ही आप लघुकथाकार का हाथ पकड़कर उसके साथ चलने लगते हैं और लघुकथाकार भी आपको अपनी लघुकथा की पूरी सैर करा लाता है।

इनमें कुछ लघुकथाएँ बहुत ही अच्छी हैं तो कुछ अच्छी लेकिन हर लेखक के लिए उसकी रचना सदा ही उसके बच्चे के समान होती है और बच्चे तो सभी प्यारे होते हैं।साथ ही मैं यह भी कहना चाहूँगी कि आ.अशोक जैन, इस ‘दृष्टि’ परिवार के पालक की भूमिका में सफल रहे हैं।

इन लघुकथाओं के बाद विभिन्न लघुकथा पुस्तकों की समालोचना दी गई है जिसमें प्रत्येक समालोचक ने अपनी भूमिका बखूबी निभाई है। अंत में लघुकथा सम्बन्धी सभी पुस्तकों की जानकारी भी मुहैया कराई गई है जो प्रत्येक पाठक के लिए उपयोगी साबित होगी। 

जिस तरह एक गुलदस्ते में भांति-भांति के फूल उस गुलदस्ते की शोभा बढ़ाते हैं उसी प्रकार दृष्टि का यह अंक अपनी सम्पूर्ण सामग्री के साथ बहुत ही आकर्षक बन पड़ा है। 

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