विश्वास

कमलेश भारतीय

वे हमारे पडोसी थे । महानगर के जीवन में सुबह दफ्तर के लिए जाते समय व लौटते समय जैसी दुआ सलाम होती , वैसी हम लोगों के बीच थी । कभी कभी हम सिर्फ स्कूटरों के साथ हाॅर्न बजाकर , सिर झुका रस्म निभा लेते ।

एक दिन दुआ सलाम और रस्म अदायगी से बढ कर मुस्कुराते हुए वे मेरे पास आए और महानगर की औपचारिकता वश मिलने का समय मांगा । मैं उन्हें ड्राइंगरूम तक ले आया । उन्होंने बिना किसी भूमिका के एक विज्ञापन मेरे सामने रख दिया । मजेदार बात कि हमारे इतने बडे कार्यालय में कोई पोस्ट निकली थी । और उनकी बेटी ने एप्लाई किया था । इसी कारण दुआ सलाम की लक्ष्मण रेखा पार कर मेरे सामने मुस्कुराते बैठे थे । वे मेरी प्रशंसा करते हुए कह रहे थे – हमें आप पर पूरा विश्वास है । आप हमारी बेटी के लिए कोशिश कीजिए । मैंने उन्हें विश्वास दिलाया कि मैं इसके लिए पूरी कोशिश करूंगा । नाम और योग्यताएं नोट कर लीं ।

दूसरे दिन शाम को वे फिर हाजिर हुए । मैंने उन्हें प्रगति बता दी । संबंवित विभाग से मेरिट के आधार पर इंटरव्यू का न्यौता आ जाएगा । बेटी से कहिए कि तैयारी करे ।

तैयारी ? किस बात की तैयारी ?
-इंटरव्यू की और किसकी ?
-देखिए मैं आपसे सीधी बात करने आया हूं कि संबंधित विभाग के अधिकारी को हम प्लीज करने को तैयार हैं । किसी भी कीमत पर । हमारी तैयारी पूरी है ।आप मालूम कर लीजिएगा ।
मैं हैरान था कि कल तक उनका विश्वास मुझमें था और आज उनका विश्वास ,,,,,?

लापता

मोहल्ले में शर्मा दम्पत्ति के चेहरे कई दिन तक दिखाई नहीं दिए । पहले लगा कि शायद कहीं बाहर गये होंगे । फिर चिंता सताई कि लम्बी बीमारी ने न पकड़ लिया हो । हालांकि उनके बेटे बहू मजे में सारे काम कर रहे थे । पर उनसे पूछने का साहस नहीं जुटा पाया ।

आखिर पता चला जब वृद्ध दम्पत्ति मार्केट में सब्जी खरीदते मिल गये । उन्होंने बहू बेटे की बुराई करने की बजाय बस इतना ही कहा कि बेटे जीते जी सब कुछ कैसे किसी के नाम पर कर सकते हैं ? घर तो बेटे के नाम कर दिया था पर बहू जमीन को भी अपने नाम करवाने की जिद्द पकड़ बैठी तो घर छोड़कर किराये पर रहने चुपचाप चल दिए । कुछ शर्म रही कि लोग क्या कहेंगे ? और अब मार्केट निकलने लगे हैं । मैं बाजार भाव में उलझने के बावजूद समाज भाव को नहीं समझ सका ।

मस्तराम जिंदाबाद

वे बेकार थे और सडकों से अधिक दफ्तरों के चक्कर लगाते थे । भूखे थे और घर से पैसे आने बंद थे ।
एक होटल में पहुंचे और आवाज लगाई- मस्तराम को बुलाओ ।
मस्तराम हाजिर हुआ । वहां काउंटर पर सब्जियों से भरे पतीले रखे थे और वे सुबह से भूखे थे । पर ललचाई दृष्टि से देखते तो मस्तराम को शक हो जाता । जरा रौब से बोले – हमें एक समारोह करना है । वो सामने वाला होलीडे होम का हाल बुक करवा लिया है । लगभग दो सौ लोगों कै खाने का इंतजाम ,,मतलब खाने पीने का प्रबंध तुम्हारा ।
-जी साहब । यह तो आपने कल भी फरमाया था ।

अच्छा । आज खाना चैक करवाओ । ये हमारे बड़े साहब दिल्ली से आए हैं इसी काम की तैयारियां देखने के लिए ।

नहीं साहब । मैं रोज़ रोज़ मुफ्त खाना चैक नहीं करवा सकता ।

अरे बेवकूफ । कल ये तुम्हें एडवांस दे जायेंगे । इसीलिए तो दिल्ली से आए हैं ।

ठीक है साहब लगवाता हूं ।
दोनों ने एक दूसरे की तरफ मुस्कराकर देखा और योजना की सफलता पर आंखों ही आंखों में बधाई दी । डटकर खाना खाया । उठकर चलने से पहले बताया कि कल से थोडा अच्छा है पर उस दिन तुम जानते हो कि बाहर से लोग आयेंगे , काफी अच्छा बनाना ।
मस्तराम जी साहब जी साहब करता गया । वे बाहर चले गये और सडकों पर नारे लगाने लगे -मस्तराम जिंदाबाद ।

शार्टकट

-भाई साहब , ज़रा रेलवे स्टेशन तक जाने के लिए कोई शार्टकट,,,

शाॅर्टकट तो है पर ,,,
-पर क्या ? जल्दी बताइए न ।
-आप उस रास्ते से नाक पर रूमाल रख कर और दीवारों का सहारा लेकर पांव रखकर ही जा सकोगे । आपको लगेगा कि अब गिरे ,,,अब कीचड़ में फंसे ,,,कब जाने ,,,क्या हो जाए ,,,

शाॅर्टकट की ऐसी हालत क्यों ?

क्योंकि आपकी तरह हर कोई शाॅर्टकट ही इस्तेमाल करता है । बड़े रास्ते से होकर , चक्कर काट कर कोई जाना नहीं चाहता । पल ठहरिए ,,,
-हां , कहिए ।

बुरा तो नहीं मानेंगे ?

अरे भाई जल्दी कहो न । मुझे गाड़ी पकड़नी है । छूट जाएगी ।
-यही बात ज़िंदगी पर लागू नहीं होती ?

सो कैसे ?

अब देखो न । सफलता की गाड़ी हर कोई पकड़ना चाहता है और इसके लिए हर आदमी शाॅर्टकट अपना रहा है । चाहे शाॅर्टकट कितना ही ,,,

बस । बस । अपने उपदेश अपने पास रखो । जनाब मुझे भी सफलता चाहिए ।
-तो चलते चलते इतना तो सुनते जाइए कि मेहनत का कोई शाॅर्टकट इस दुनिया में नहीं है ।

बहिष्कृत

-पापा , आज परीक्षा केंद्र में मैं रोने रोने को हो आई ।
-क्यों बेटी ? क्या हुआ ?

हुआ तो कुछ खास नहीं,,,

फिर भी,,,

परीक्षा केंद्र में मेरे सिवाय सब बच्चों की सुपरवाइजरों से जान पहचान थी । वे उनके अंकल आंटी बने हुए थे और सबको पर्चियों का प्रसाद बांट रहे थे । और मैं,,,रोने रोने को हो आई ।
-तुम्हें पेपर तो आता था न ?

उससे क्या पापा ? मेरा स्टेट्स तो नहीं रहा न अपनी क्लासफैलोज के बीच । मेरे पापा को कोई नहीं जानता । सब तो यही समझेंगीं ।
-बेटी हमारे वक्त में जिसकी परीक्षा केंद्र इस तरह मदद होती थी , उसे सब छेड़ते थे और वह शर्म से सिर झुका लेता था ।
-पापा , वक्त बदल गया है । इस ज़माने में उसे चिढ़ाते हैं जिसकी कोई पहचान नहीं । कोई सिफारिश नहीं । और वही जैसे समाज से बहिष्कृत हो मुंह छिपाता फिरता है जैसे जैसे मैं ,,,
बेटी हाथों में मुंह छिपाये सिसक उठी ,,,वक्त जैसे मेरे सामने धुंधला होने लगा ,,,

-कमलेश भारतीय

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