ऋषि प्रकाश कौशिक
गुरुग्राम – भारत की एकता के शिल्पकार, लौह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल—जिनका नाम आते ही राष्ट्रनिर्माण, दृढ़ संकल्प और अखंडता की छवि उभरती है—आज एक बार फिर राजनीति के कठघरे में खड़े दिखाई देते हैं। कारण यह नहीं कि उन्हें याद किया गया, बल्कि यह कि उन्हें याद करना ही भुला दिया गया।
कुछ ही महीने पहले तक सरदार पटेल के नाम पर तीखी सियासी बयानबाज़ी सुनाई देती थी। सत्ता पक्ष लगातार विपक्ष पर आरोप लगाता रहा कि उसने सरदार पटेल को जानबूझकर हाशिए पर रखा, जबकि सत्ता में आते ही “स्टैच्यू ऑफ यूनिटी” बनवाकर उन्हें सम्मान दिया गया। लेकिन 15 दिसंबर—सरदार पटेल के स्मृति दिवस—पर वही राजनीति मौन साधे दिखी।
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘X’ पर केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की श्रद्धांजलि दिखाई दी। इसके अलावा, पूरी भाजपा अपने नवनियुक्त राष्ट्रीय अध्यक्ष की चर्चाओं में उलझी रही, तो कांग्रेस अपने “वोट चोर, गद्दी छोड़” जैसे अभियानों में व्यस्त नजर आई। देश के लौह पुरुष का स्मरण, दलों की प्राथमिकताओं में कहीं नहीं था।
यह पहली बार नहीं है। यह चुप्पी अब अपवाद नहीं, बल्कि एक चलन बनती जा रही है—जहां महापुरुषों के जन्मदिवस और स्मृति दिवस केवल राजनीतिक सुविधा के अनुसार याद किए जाते हैं। जहां चुनाव होते हैं, जहां तात्कालिक लाभ दिखता है, वहीं स्मृतियां अचानक प्रासंगिक हो जाती हैं। और जहां चुनावी ताप नहीं, वहां इतिहास भी ठंडा पड़ जाता है।
यह सवाल भी स्वाभाविक है—जब न गुजरात में चुनाव हैं, न उत्तर भारत के किसी अन्य राज्य में, तो क्या इसलिए सरदार पटेल का स्मृति दिवस सियासी एजेंडे से बाहर हो गया?
और क्या अब राजनीति नई भौगोलिक प्राथमिकताओं के अनुसार नए महापुरुषों की “खोज” में जुटी है—जहां प्रभाव दिखे, वहीं स्मरण हो?
सरदार बल्लभ भाई पटेल किसी एक दल, एक विचारधारा या एक क्षेत्र की विरासत नहीं हैं। वे पूरे राष्ट्र की धरोहर हैं। उन्हें याद करना कोई प्रचार अवसर नहीं, बल्कि राष्ट्रीय कर्तव्य है—ऐसा कर्तव्य, जो चुनावी कैलेंडर से ऊपर होना चाहिए।
अंततः प्रश्न यही है—
क्या महापुरुषों की स्मृति केवल चुनावी मौसम तक सीमित रह जाएगी?
या फिर राजनीति कभी राष्ट्र के प्रति अपने नैतिक दायित्व को भी समझेगी—जहां स्मरण सच्चा हो, मौन नहीं; और श्रद्धांजलि अवसरवादी नहीं, संवैधानिक मूल्य बन सके?








