श्रीमति पर्ल चौधरी

आज महात्मा ज्योतिबा फुले की 198वीं जयंती पर जब देश उन्हें श्रद्धा से याद कर रहा है, तब कुछ घटनाएं हमारे समाज की असल तस्वीर को कुरेद रही हैं।

श्रीमति पर्ल चौधरी कहती हैं – “ जिन सामाजिक कुरीतियों से ज्योतिबा फुले जी ने जीवन भर संघर्ष किया वह आज भी नए चोले में हमारे समाज में जिंदा हैं” – “बीते दिनों मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्री रामचंद्र जी के जन्मदिवस के पावन पर्व रामनवमी पर जब राजस्थान विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष श्री टीका राम जूली जी जैसे एक सम्मानित दलित जनप्रतिनिधि, मंदिर दर्शन के लिए गए, तब भाजपा के पूर्व विधायक श्री ज्ञानदेव आहूजा – जो खुद को सनातन धर्म का स्वम्भू रक्षक मानते हैं – ने उस मंदिर को गंगाजल से शुद्ध करने की बात कही। ये वही लोग हैं जो अपने अहंकार और सामंती सोच में आज भी यही मानते हैं कि दलित, पिछड़े और आदिवासी वर्ग अपवित्र होते हैं। यह सोच न केवल अमानवीय है, बल्कि संविधान और सनातन धर्म—दोनों के मूलभाव के विपरीत है।”

श्रीमति चौधरी सवाल करती हैं – “क्या प्रभु श्रीराम का मंदिर इतना कमजोर है कि वहां किसी दलित समाज के व्यक्ति की पूजा करने मात्र से वह अपवित्र हो सकता है? क्या प्रभु श्री रामचंद्र जी, जिन्होंने शबरी के जूठे बेर खाकर प्रेम की मर्यादा सिखाई, वे इस नफरत की राजनीति को स्वीकार करेंगे?”

अभी-अभी संपन्न हुआ महाकुंभ—जिसका दिव्य योग 144 वर्षों में पहली बार आया—जहाँ करोड़ों लोगों ने आस्था के संगम में स्नान किया। कहा गया, कि यह स्नान आत्मा को भी शुद्ध कर देगा। लेकिन वही आस्था के नाम पर जब श्री ज्ञान देव आहूजा जैसे लोग मर्यादापुरुषोत्तम प्रभु श्री राम के मंदिर को गंगाजल से धोते हैं तो लगता है जैसे भारत के समाज को शुद्ध करने की नहीं अपवित्र करने की मानसिकता हावी हो गई है

श्रीमति पर्ल चौधरी कहती हैं—“सरकारें नई शिक्षा नीति तो लाती हैं, लेकिन असल शिक्षा तब होगी जब हमारे दलित, पिछड़े, आदिवासी और युवा—खासकर महिलाएं—खुद अपनी ‘मन की बात’ कहेंगीं, ना कि किसी और की रची गई स्क्रिप्ट दोहराएंगी। जब बोलने का अधिकार मिलेगा, तभी सोचने की स्वतंत्रता जन्म लेगी।”

वो आगे कहती हैं—“महात्मा फुले ने शिक्षा को डिग्री नहीं, चेतना का हथियार माना। उन्होंने श्रीमति सावित्रीबाई फुले जी को सिर्फ अक्षरज्ञान नहीं दिया बल्कि उन्हें महिला शिक्षा के आंदोलन की पहली आवाज बनाया । आज भी सार्वजानिक जीवन मे महिलाएं प्रतिनिधि तो बनती हैं, लेकिन फैसले उनके परिवार के पुरुष लेते हैं, तो यह लोकतंत्र में तानाशाही की छाया है।”

हरियाणा के गुड़गांव, मानेसर, पटौदी, सोहना और फर्रुखनगर जैसे क्षेत्रों में जहाँ स्थानीय निकायों में महिलाओं को काँग्रेस की सरकार ने संविधान के तहत आरक्षण दिलवाया, वहाँ हकीकत यह है कि महिलाएं संवैधानिक प्रावधानों की पूर्ति के लिए चेहरा तो बनती हैं, लेकिन उनमें से अधिकतर महिलाओं का सारा कामकाज का निर्वहन, जनसंपर्क, भाषा और निर्णय उनके परिवार के पिता, भाई, पति, बेटे, ससुर इत्यादि ही करते हैं।

पर्ल चौधरी जी भावनात्मक स्वर में कहती हैं—”यह केवल सामाजिक व्यवस्था नहीं, यह महिलाओं पर पुरुषप्रधान समाज का मौन वशीकरण है। यह चुप्पी सिर्फ चुप्पी नहीं, यह एक प्रकार की हिंसा है, जो महिलाओं के आत्मविश्वास को निगल जाती है। यही सोच बदलनी होगी।”

आज जब देश शिक्षा, समानता और सशक्तिकरण की बात करता है, तो जरूरी है कि हम सिर्फ नीति नहीं, नियत भी बदलें। महिला आरक्षण के साथ साथ आत्म-सम्मान को प्रखर होने का भी अवसर दें। सिर्फ मंच नहीं, माइक भी दें।

श्रीमति पर्ल चौधरी अंत में कहती हैं—“महात्मा फुले को सच्ची श्रद्धांजलि तब होगी, जब हर दलित बच्ची जो डॉक्टर बनना चाहती है वो डॉक्टर बने, हर पिछडे वर्ग की बिटिया जिसकी कल्पना वैज्ञानिक बनने की है वो वैज्ञानिक बने, हर आदिवासी लड़की जो वकील बनना चाहती है वो वक़ालत कर सके, और हर महिला—निर्भीक होकर, खुले मंच से अपने मन की बात कहे।”
जहाँ किसी को मंदिर में जाने पर अपमान नहीं, सुकुन, शांति और सम्मान मिले।”

और यही होगी महात्मा ज्योतिबा फुले जी को सच्ची श्रद्धांजलि।

नफरत के हाथों में धर्म हो, समाज हो या राजनीति नहीं सौंपा जा सकता।
और शिक्षा का दीपक तब तक नहीं जल सकता जब तक आवाज़ों को दबाया जाता रहे।
अब वक्त है, हर युवा, हर महिला, हर पिछड़ा, हर आदिवासी, हर दलित को
अपने ‘मन की बात’ कहने देने का—बिना डर, बिना रोक, बिना शर्त।

“जब पढ़ेगी नारी,
बदलेगी देश की तक़दीर सारी!”

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