डॉ. सत्यवान सौरभ

साहित्य, जो समाज का दर्पण माना जाता है, आज स्वयं एक गंभीर संकट का सामना कर रहा है—साहित्यिक चोरी। हाल ही में हरियाणा के एक लेखक द्वारा राज्य गान के रूप में एक गीत के चयन को लेकर विवाद उठा, जिस पर साहित्यिक चोरी का आरोप लगाया गया। इस घटना ने साहित्य में मौलिकता बनाम साहित्यिक अनैतिकता पर एक नई बहस छेड़ दी है।
साहित्यिक चोरी: रचनात्मकता का हनन
साहित्यिक चोरी तब होती है जब कोई व्यक्ति किसी अन्य लेखक के विचारों, शब्दों या रचनाओं को बिना उचित श्रेय दिए अपने नाम से प्रकाशित करता है। यह न केवल साहित्यिक नैतिकता का उल्लंघन है, बल्कि मौलिक रचनाकारों के अधिकारों का भी हनन है। डिजिटल युग में यह समस्या और भी विकराल हो गई है, जहाँ कॉपी-पेस्ट संस्कृति ने हिंदी साहित्य की मौलिकता को गहरे संकट में डाल दिया है।
आज, कई लेखक दूसरों की कृतियों में मामूली बदलाव कर उन्हें अपनी रचना के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। वे कहानी के पात्रों, स्थानों या संवादों में परिवर्तन कर इसे अपनी नई रचना बताने की कोशिश करते हैं। यह प्रवृत्ति साहित्य की आत्मा—रचनात्मकता और मौलिकता—पर सीधा आघात कर रही है।
“गोबर विवाद” और साहित्यिक नैतिकता
हरियाणा में हाल ही में एक विवाद उभरा, जिसमें एक गीत को राज्य गान के रूप में चयनित करने की प्रक्रिया पर साहित्यिक चोरी का आरोप लगा। कुछ लेखकों ने इस मामले को मुख्यमंत्री तक पहुंचाया, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि साहित्यिक क्षेत्र में भी बौद्धिक संपदा के अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए।
यह केवल एक isolated घटना नहीं है। साहित्यिक चोरी का यह विषाणु पूरे हिंदी साहित्य को ग्रसित कर रहा है। कई प्रतिष्ठित लेखक और पत्रकार अपनी रचनाएँ अखबारों, पत्रिकाओं या डिजिटल माध्यमों में प्रकाशित होते ही अनजाने में चौर्यकर्म का शिकार हो जाते हैं।
“कॉपी-पेस्ट” प्रवृत्ति और साहित्य की मौलिकता
साहित्यिक चोरी के कई रूप हैं— किसी की कविता या लेख को जस का तस छाप देना।
थोड़े-बहुत शब्द बदलकर किसी की कहानी को अपना बताना।
किसी अन्य लेखक की विचारधारा को बिना श्रेय दिए उपयोग करना।
दुर्भाग्य से, हिंदी साहित्य जगत में भी साहित्यिक चोरी और दोहराव बढ़ता जा रहा है। त्योहारों के दौरान एक ही लेखक की रचना कई प्रकाशनों में प्रकाशित होती है, और कई बार इसे नया बताकर फिर से प्रस्तुत कर दिया जाता है।
“प्रसिद्धि की बैसाखी पर टिके लोग साहित्य की आत्मा का हनन कर रहे हैं।” आज, कई लोग किसी प्रसिद्ध लेखक की पुस्तक के अंश चुराकर उसे अपनी किताब में सम्मिलित कर लेते हैं। इससे न केवल साहित्यिक मूल्यों की हानि होती है, बल्कि नए लेखकों को भी सही पहचान नहीं मिल पाती।
“मौलिकता की रक्षा आवश्यक”
साहित्य की पहचान उसकी मौलिकता में निहित होती है। यदि हम साहित्य को कॉपी-पेस्ट संस्कृति के हाथों खो देंगे, तो आने वाली पीढ़ियों को क्या सौंपेंगे? इसलिए, साहित्यिक नैतिकता को बनाए रखना हम सभी की ज़िम्मेदारी है।
लेखकों को चाहिए कि वे अपनी रचनाओं को कॉपीराइट कराएं।
पाठकों को भी जागरूक होना होगा और साहित्यिक चोरी का विरोध करना होगा।
प्रकाशन जगत में एक मजबूत समीक्षा प्रणाली विकसित की जानी चाहिए, जिससे साहित्यिक चोरी को रोका जा सके।
संपादकों को साहित्यिक चोरी पर कठोर रुख अपनाना चाहिए।
“साहित्य को निष्कलंक बनाए रखना हमारा कर्तव्य”
यदि हिंदी साहित्य को उसके वास्तविक गौरव पर बनाए रखना है, तो हमें इसकी मौलिकता की रक्षा करनी होगी। साहित्यिक चोरी केवल लेखकों को ही नहीं, बल्कि संपूर्ण साहित्यिक जगत को क्षति पहुँचाती है।
तो आइए, साहित्य को साहित्य रहने दें, उसे बाजारवाद और चोरी की दलदल में न धकेलें।
मौलिकता को बढ़ावा दें, साहित्य को सम्मान दें। तभी हिंदी साहित्य अपने स्वर्णिम युग की ओर अग्रसर हो सकेगा।