-कमलेश भारतीय इन दिनों ‘साहित्य आज तक’ कार्यक्रम की बड़ी धूम है और गुलज़ार, जावेद अख्तर, नरेश सक्सेना, प्रसून जोशी आदि सितारे इस मंच पर उदय होते देख रहा हूं और अन्य अनेक जो इसमें सैंकड़ों रुपये की टिकट लेकर शामिल हो रहे हैं, वे भी खुशी से मिलने वाले लेखकों के साथ सेल्फी शेयर कर रहे हैं । यह एक प्रकार से दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले से पहले का मेला है, फिर भी विश्व पुस्तक मेले पर इसका कोई असर पड़ने से रहा, यह भी सच है पर सच को झुठलाने की कोशिश तो है ! साहित्य आज तक में नरेश सक्सेना ने महाराष्ट्र के चुनाव को लेकर खरी खरी सुनाई कविता पाठ से पहले, जिसे पचाना चैनल के लिए बहुत मुश्किल रहा होगा ! ऐसी बातें तो आज तक की तीन खूबसूरत एंकर्स राजनीति के शो में नहीं कहने देतीं लेकिन नरेश सक्सेना ने बहुत कमाल की सोच सामने रखी । लेखक इसी समाज, इसी दुनिया और इसी देश के वासी हैं, फिर जो सच दिख रहा है, उससे बच कर क्योंकि निकल रहे हो? प्रसून जोशी शहीद भगत सिंह के बड़े फैन हैं तो कुछ कहते उन हालातों पर, जिनको देखते कभी भगत सिंह ने असेम्बली में बम विस्फोट किया था, आप शब्द विसफोट तो कर ही सकते थे भाई ! खैर, यह तो सवाल है ही कि आखिर इस बड़े मेले से फायदा किसे हो रहा है ? लेखक बिरादरी को या चैनल को ? जाहिर है चैनल को ! चैनल बड़े बड़े लेखकों को बड़े खूबसूरत तरीके से बेचने में सफल हो गया लगता है और लेखक बिरादरी इनके ज़ाल में खुशी खुशी फंसती चली गयी है ! वैसे तो जयपुर लिटरेरी फेस्ट के बाद से चंडीगढ़, कुल्लू, शिमला, कसौली, अल्मोड़ा आदि अनेक शहरों में लिटरेरी फेस्ट आयोजित किये जाने लगे हैं । राजकमल प्रकाशन भी विभिन्न शहरों में पुस्तक मेले आयोजित करने लगा है यानी इतने सारे नये रास्ते, नयी पगडंडियों पर पुस्तकें और लेखक मिल रहे हैं ! यह साहित्य के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि से कम नहीं लेकिन इनमें साहित्य को बाज़ार से नहीं, साहित्यकारों से जोड़ा जा रहा है ! यह अलग लकीर बनी हुई है और इस लकीर को बनाये रखना बहुत जरूरी है साहित्य के लिए, लेखकों के सम्मान के लिए ! नहीं तो यही कहा जायेगा : बाबू जी, तुम क्या क्या खरीदोगे?यहां तो हर चीज़ बिकती है!बस, साहित्य को माफ कर दीजिए ! शब्द की पावनता को बचाये रखिये! इसे बाज़ार से ऊपर रहने दीजिये, प्लीज ! शब्द की शक्ति को बचाये रखिये!-पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी। 9416047075 Post navigation पूजा स्थलों के लिए झगड़े : धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हमारी सांस्कृतिक प्रथाओं के लिए मारकाट कब थमेगी?